तब हमारा धर्म सिर्फ बच्पन था


जावेद अनीस
मानव इतिहास के सफर में 20-25 साल कोई बड़ा समय नही होता है लेकिन पिछले दो तीन दशको से समय अपने पहिये पर  जिस रफतार से घूमा है उससे हमारे समाज, आपसी व्यवहार, सहिष्णुता आदि में जो परिर्वतन देखने को मिलता है वह अभूतपूर्व है। आपसी सहिष्णुता में देखा जाये तो दुर्भाग्य से यह परिर्वतन नकारात्मक ज्यादा है। 
बात उत्तरप्रदेश  के बलारामपुर जिले में भारत नेपाल सीमा पर स्थित गॉव बिजुआ कलॉ की है जहां मेरी पैदाईश  हुई है। 1920 में इस गांव में वही के ही एक इस्लामी विद्धान मौलाना अब्दुर्रहमान द्वारा एक मदरसे (मकलब -जहॉ 5 कक्षा तक पढाई होती है ) की स्थापना की गई थी। मदरसे की जमीन रहमान साहब ने ही दान की थी, उन्ही के प्रयासों से गांव के अन्य लोगों द्वारा मदरसे को खेती की 4 एकड़ जमीन दान मे दी गई थी। अब्दुर्रहमान साहब के नाम पर ही मदरसे का नाम मदरसा रहमानिया हुआ है।  खेती की जमीन की बटाई से प्राप्त अनाज तथा गांव के लोगों द्वारा दूसरे तरह के सहयोग से मदरसा पिछले 90 सालों से इस गॉव और आस पास के दूसरे अन्य गांवों के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा  दे रहा है। 
शुरूवात में केवल यही मदरसा बिजुआ कलॉ तथा आसपास के गांवों के बच्चों के लिये शिक्षा  प्राप्त करने का एकमात्र जरिया था । इसी मदरसे की वजह से गांव की साक्षरता दर तुलनात्मक रूप से बेहतर है। यहां कहने को तो एक प्राथमिक शाला भी थी लेकिन हकीकत में यह सिर्फ इमारत भर थी। जो कभी कभार ही खुलती थी। असल में तो यह बच्चो के लिये शौच करने व लुका छिपी जैसे खेल खेलने के लिये सबसे पसंदीदा जगह थी। 
मेरी प्रांथमिक  शिक्षा  भी गांव के अन्य बच्चों की तरह इसी मदरसे में हुई है, जहॉ हम बैठने के लिए बोरी, लिखने के लिए लकड़ी की तख्ती (स्लेट), नरकल की दो चार कलम इसे छिलने के लिए ब्लेड़, नीले इन्क की पुडिया और दवात, घर पर अम्मी द्वारा बनाये गये कपड़े के झोले में किताब लादकर ले जाते थे। लकड़ी की तख्ती को मदरसे के नल पर धोने के लिए  लाइन लगानी पड़ती थी, इसके बाद हम उस तख्ती पर मिटटी का लेप लगा कर सुखाते थे तब जा कर हमारा देशी  स्लेट तैयार होता था।
इस मदरसे में हमारे साथ हिन्दु समुदाय के  बच्चे भी पढ़ते थे। इन्ही  बच्चों में से देवप्रकाश  नाम का एक लड़का जो ’’ भूज’’ (अनाज का भूजा भूजने वाली) जाति से था, मेरे साथं पढ़ता था। उसका घर मदरसे के बिलकुल पास ही था। देव मदरसे के बड़े मौलाना (हेड़ मास्टर) का सबसे प्रिय छात्र था। बच्चों को पीटने के लिये बेशरम की लकड़ी लाने से लेकर मौलवी साहब के लिये बीड़ी-पान लाने तक की जिम्मेदारी देव की ही होती थी।इस लिहाज़ से देव हमारी नज़रों में थोडा ऊपर के दर्जे का तालिब – इल्म था !  बड़े मौलवी साहब देवप्रकाश  उनका प्यारा  सुहैल थावे देव को इसी नाम से पुकारते थे । धीरे धीरे दूसरे बच्चे, उसके घर वाले और गांव के ज्यादातर लोग भी उसे सुहैल के नाम से ही पुकारने लगें। 
मदरसे में उर्दू, हिन्दी, अंग्रेजी, फारसी, इस्लामियात,कुरान के अलावा अन्य सभी दुनियावी विषय उर्दू माध्यम में पढ़ाया जाता था। दीनयात विषय की किताब सभी समुदायों के बच्चे पढ़ते थे। 
मदरसे में बड़े मौलवी बच्चों को नमाज भी (सिखाने के लिए ) पढ़ाते थे। नमाज सिर्फ मुस्लीम बच्चों को ही सिखाया जाता था लेकिन कभी कभी देवप्रकाश  भी हमारे साथ नमाज पढ़ना-सीखने के लिए आ जाता था।
देवप्रकाश  का घर बगल में होने के कारण उसके घर वाले भी उसे ऐसा करते हुए देखते थे। लेकिन विवाद तो दूर की बात है उन्होनें कभी उसे इसके लिए मना भी नही किया, इसी तरह से मुस्लिम परिवारों को भी इससे कोई परेशानी नही थी कि उनके बच्चों के साथ एक गैर-मुस्लिम बच्चा भी नमाज सीख रहा है। शायद वह पुराना आपसी विश्वाश ही था जो इसे अटपटा या गलत नही मानता था और बचपन पर धर्मो की लगाम नही कसता था।
इस घटना को केवल 20-25 साल ही बीते है लेकिन इस बीच देश  में धर्म के नाम पर राजनीति की कुछ ऐसी उठा पटक हुई है जिसने समुदायों के बीच विष्वास को तोड़ा है और आपस में शक और अविष्वास की ऐसी दीवार खड़ी की है जिससे अब किसी देवप्रकाश का सुहैल बनना नामुमकिन सा ही है। दुखद है कि ये दीवार दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है। मेरे गॉव में सभी समुदाय के लोग अब भी साथ ही रहते है, मिलते जुलते है लेकिन अब दिल नही मिलते ना ही कोई देवप्रकाश  मदरसा रहमानिया में पढ़ने जाता है।
  
ये कहानी सिर्फ मेरे गॉव की ही नही है बल्कि पूरे मुल्क की है। नफरत की यह दीवार कही उची तो कही नीची,लेकिन हर जगह मौजुद है। कही यह दीवार हमारे इन्सान होने के वजूद को ही खत्म ना कर दे ?
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