मध्यप्रदेश -:महिलाओं पर अत्याचार में लगातार इजाफा
March 17, 2012
साभार - नया इंडिया
भारत सरकार के राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो तथा केंद्रीय गृह मंत्रालय की रिपोर्ट में भारत में तेजी से बढ़ते अपराधों का जिक्र किया गया है। खासतौर पर महिलाओं के प्रति अत्याचारों में निरंतर वृद्धि चिंताजनक है। राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार, महिलाओं के विरुद्ध अपराधों की सूची में मध्यप्रदेश का नाम सबसे ऊपर है। पिछले वर्ष मध्यप्रदेश में बलात्कार के कुल 3010, पश्चिम बंगाल में 2106, उत्तरप्रदेश में 1648, बिहार में 1555 और राजस्थान में 1238 मामले दर्ज किए गए। दिल्ली में बलात्कार के 698 मामले प्रकाश में आए। महिला और बाल विकास मंत्री ने राज्यसभा में जानकारी देते हुए मध्यप्रदेश में बढ़ते महिला उत्पीड़न पर चिंता व्यक्त की है। प्रदेश में महिलाओं के साथ प्रतिवर्ष लगभग तीस हजार अपराध हो रहे हैं। स्त्रियों के साथ छेड़छाड़, लूटपाट, मोबाइल फोन और चेन छीनने जैसी घटनाएं तो रोजमर्रा की बात है।
महिलाओं और किशोरियों के साथ बलात्कार के मामले बढ़ रहे हैं। वर्ष 2008 में मध्यप्रदेश में 892 किशोरियों और 2852 महिलाओं के साथ बलात्कार की घटना घटी। राजधानी भोपाल में सबसे अधिक 76 किशोरियों के साथ दुष्कृत्य किया गया। सर्वाधिक किशोरियों के साथ दुष्कर्म वाले दस प्रमुख जिले माने गए - भोपाल, सतना, छिंदवाड़ा, बैतुल, विदिशा, खंडवा, बालाघाट, रतलाम, नरसिंहपुर और गुना। किशोरियों के साथ दुष्कर्म के मामलों में प्राय: पुलिस की लापरवाही के कारण फरियादी को समय पर न्याय नहीं मिल पाता। हाल में भोपाल और बैतुल के दो मामलों में पुलिस मुख्यालय ने केस डायरी मंगवाई तो उसमें प्रकरण की रिपोर्ट समय पर न लिखने, पर्यवेक्षण न करने, आरोपी को लाभ पहुंचाने के लिए साक्ष्य न जुटाने जैसी खामियां पाई गईं। हैरानी की बात तो यह है कि प्रदेश के अन्य शहरों सहित राजधानी भोपाल में भी सभी स्तरों पर विभिन्न वय की स्त्रियों पर निरंतर अत्याचार के मामले अखबार की सुर्खियों में हैं।
वर्ष 2009 की हाल की कुछ घटनाओं पर गौर करें तो छतरपुर, बैतुल, सागर, इंदौर, ग्वालियर, रायसेन के सलामतपुर, मुलताई, मुरैना और भोपाल में स्त्रियों पर अत्याचार के जो हृदयविदारक मामले सामने आए, उनमें एक भी अपराधी को पकड़ा नहीं गया है। कुछ अन्य मामलों में भी अपराधियों को पकड़ने में विफल मध्यप्रदेश पुलिस द्वारा पुरस्कार की घोषणा की जा चुकी है। अब जनता की जिम्मेदारी है कि वह अपराधियों को तलाशे और पुलिस के हाथों में सौंपकर उनसे इनाम हासिल करे। आलम यह है कि यदि पुलिस किसी अपराधी को पकड़ ले तो उसे सम्मानित किया जाना चाहिए क्योंकि पुलिस की निष्क्रियता और उदासीनता की पौ बारह है। पुलिस का यह रवैया घोर चिंताजनक है। यह आश्चर्यजनक है कि राजधानी में मानवाधिकार आयोग, राज्य महिला आयोग, नौकरशाह, मंत्रीगण, राजनेता और विरोधी दल के सूरमा सभी शांत हैं। किसी का ध्यान पुलिस के निकम्मेपन पर नहीं जाता। सरकार स्वर्णिम मध्यप्रदेश का स्वप्न देख रही है, जबकि राज्य ने विभिन्न अपराधों और अत्याचारों के मामले में देश के अन्य राज्यों को पीछे छोड़ दिया है।
यह भी कहा जा रहा है कि करीब 76 हजार लोगों की पुलिस फोर्स साढ़े छ: करोड़ लोगों की रक्षा करने में असमर्थ है। जनसंख्या के लिहाज से 809 लोगों की सुरक्षा का जिम्मा एक पुलिसकर्मी पर है।
इसके अलावा महत्वपूर्ण लोगों की सुरक्षा, धरने और प्रदर्शन के झंझट भी हैं। यही नहीं, आतंकवाद की जड़ें, सिमी का नेटवर्क, अंडरवर्ल्ड की गतिविधियां, मादक पदार्थों की तस्करी समेत तमाम अपराध लगातार बढ़ रहे हैं। निश्चय ही मध्यप्रदेश में महिलाएं अत्यधिक उत्पीड़ित हैं। विभिन्न आयोग उनकी अधिक मदद नहीं कर पाते क्योंकि वे अधिकार संपन्न नहीं हैं। पुलिस के पास मामले पहले पहुंचते हैं, लेकिन उसकी उदासीनता जग-जाहिर है। एक वर्ष में पुलिस के विरुद्ध ही 18526 शिकायतें दर्ज की गईं। देशभर में पुलिस के खिलाफ दर्ज हुई कुल शिकायतों का यह 35.8 प्रतिशत है। इससे मध्यप्रदेश पुलिस का जनता के प्रति रवैया स्पष्ट होता है।
पुलिस हिरासत से एक ही वर्ष में 214 अपराधियों को भागने के कारण भी देश भर में उसकी बदनामी हुई है। राजधानी भोपाल की जनता उनका गैरजिम्मेदाराना बर्ताव देख ही रही है। यहां पुलिस कभी हेलमेट चेकिंग अभियान चलाती है, कभी मजनुओं को पकड़ने का अभियान छेड़ती है, लेकिन उसका कोई अभियान सुनिश्चित और सफल नहीं रहा है। गंभीर अपराधियों को पकड़ना तो वह भूल ही गई है। भाजपा सरकार के नेता मातृ शक्ति का गुणगान करते नहीं थकते। धार्मिक देवी-देवताओं की उपासना और पूजा-पाठ करके उनके मन को भले ही शांति मिलती हो, लेकिन अत्याचारों से स्त्रियों की रक्षा तो इससे संभव नहीं है। प्रदेश सरकार को चाहिए कि वह अपने राज्य में महिलाओं के प्रति हो रहे अत्याचार को रोकने के लिए ठोस कदम उठाए। आज महिलाएं एक तरफ तो पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर हर क्षेत्र में आगे आ रही हैं, वहीं समय-समय पर कुछ ऐसे मामले भी सामने आते हैं – जो किसी भी देश व समाज की प्रगति के लिए शुभ संकेत नही हो सकते। आज भी देश में महिला शिक्षा की स्थिति कमजोर है । ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं आज भी अत्याचार शोषण और रूढिवादी परम्पराओं में जकड़ी हुई हैं ।
कानून व्यावहारिक हो
महिलाओं के साथ हो रहें अत्याचार व अपराध से निपटने के लिए जटिल कानूनी प्रक्रिया भी एक बाधा है, जिससे उन्हें न्याय देरी से और बहुत से मामलों में नही मिल पाता। उच्चतम न्यायालय ने इस संबंध में दिशा निर्देश जारी किए हैं। महिलाओं के विरुद्ध अपराध की घटनाओं को ध्यान में रखते हुए कुछ कदम उठाए गए हैं, लेकिन वह पर्याप्त नही हैं। आवश्यकता है महिलाओं के प्रति सिर्फ नैतिकता ही नहीं, सवेदनशीलता अपनाकर सभी कानूनों का गंभीर तरह से विश्लेषण किया जाय। इसे व्यापक और व्यवहारिक भी बनाया जाय। समस्त पहलुओं को उजागर कर एक प्रभावी कानून का निर्माण किया जाय। चूंकि तमाम अत्याचारों अपराधों का समाधान न्याय व्यवस्था के द्वारा ही हो सकता है। कानून को सरकारी राजपत्र कागजों से बाहर निकलकर हर एक के पहुंच में लाना जरूरी है।
आज भी महिलाओं की स्थिति हमारे समाज में दोयज दर्जे की है। प्राचीन काल से ही स्त्री भोग्य रूप से अवलोकित और अधिग्रहित की गई है, परन्तु बदलते परिवेश में सामाजिक और देशव्यापी परिवर्तनों ने महिलाओं की भागीदारी पारिवारिक स्तर से बढ़कर कार्यालयों, प्रतिष्ठान और कमोबेश हर एक स्तर पर एक समान होने लगी है ।
वर्तमान न्याय प्रक्रिया का अगर अवलोकन करें तो हम पाएंगे कि हमारी न्यायपालिका न्याय को समर्थ बनाने वाली नहीं है। यदि हम अपनी न्याय प्रणाली का अवलोकन करें तो पाएंगे कि यहां प्रतीकारात्मक कार्यवाही किसी भी अपराध की तुलना में अधिक कठिन है। यहां तक की महिलाओं के प्रति अपराध को परिभाषित करना भी अत्यधिक दुष्कर कार्य है। साक्ष्य का मूल्यांकन, परिस्थितियों का आंकलन आदि करने में अनेक बाध्यताएं होती हैं । मेडिकल जांच और प्रमाण और पुलिस विभाग का व्यवहार मिलकर संपूर्ण न्याय प्रक्रिया को हाशिए में ला खड़ा कर देते हैं।
शारीरिक अपराध के संबंध में महिलाएं पुलिस थाना में जाकर रिपोर्ट लिखवाने में आज भी एक भय सा महसूस करती हैं। महिलाओं के प्रति समुचित और प्रभावी कानून न होने के कारण वह अपने आप को पिछड़ा हुआ महसूस करती हैं। समय की आवश्यकता है कि महिला कानूनों की समीक्षा कर उसमें ऐसे बदलाव किए जाएं जिससे कि महिलाएं अपने ऊपर हो रहे अत्याचार की शिकायत खुलकर कर सकें। विज्ञापनों में नारी की भूमिका व्यवसायिक दृष्टिकोण से उचित कही जा सकती है, पर कहीं न कहीं उन्हें अपने शारीरिक प्रदर्शन पर अंकुश लगाना भी आवश्यक है । इससे समाज के भीतर उनकी छवि प्रभावित होती है । मेरा दृष्टिकोण है कि ग्रामीण क्षेत्रों में महिला शिक्षा में और सुधार की आवश्यकता है, ताकि वह रूढ़िवादी परम्पराओं से बाहर निकले और प्रगति के मुख्य धारा से जुड़ पाएं । आज के इस अति प्रगतिशील दौर में भी अगर महिलाओं को सती प्रथा का शिकार होना पड़ता है तो इसमें कहीं न कही हमारी व्यवस्था की कमजोरी ही दृष्टिगोचर होती है ।
हमारा संविधान महिलाओं के अधिकारों को सुरक्षा देने की बात तो करता है, किंतु महिला उत्पीड़न और शोषण की घटनाओं को देखते हुए लगता है कि महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है। कई बार कानून का सही पालन न होने से दहेज हत्या, भ्रूण हत्या, बलात्कार के मामलों में आरोपी आसानी से बच निकलता है। हमारे देश में महिलाओं के लिए नैतिक रूप से वृहद और व्यापक कानून बनाए गए हैं, लेकिन इन कानूनों का व्यवहारिक स्वरूप प्रभावी नहीं है। कानूनी प्रक्रिया बहुत लंबी है तथा इसमें मनोवैज्ञानिक दबाव रहता है। जबकि होना ऐसा चाहिए कि यह बिना किसी भय के लोगों को अपना पक्ष रखने के लिए उत्साहित करे। समुचित और प्रभावी कानून न होने के कारण महिलाएं न्याय पाने में खुद को असहाय पाती हैं।
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भगवा एजेंडे से मध्यप्रदेश में हो रही महिलाओं की दुर्दशा
01 March 2012
-दीपक- http://journalistcommunity.com
मध्यप्रदेश मे सरकारी खजाने का एक बड़ा भाग उन योजनाओ पर खर्च हो रहा है जो लड़कियो को बचाने एवं उनके सम्मान के लिये बनाई गई है या यह कह सकते हैं जो योजना मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार ने संघी ऐजेंडे को पूरा करने के लिए बनाई है। मध्यप्रदेश मे भाजपा की दूसरी पारी और आठवे वर्ष तक इस सरकार ने ऐसी कई योजनाए बनाई है जो लड़कियो की तरक्की के लिए कही जाती रही है, परन्तु तमाम सरकारी दावो के बाद मध्यप्रदेश मे लड़कियो या महिलाओ की स्थिति अत्यंत दयनीय है और महिलाओं पर अत्याचार की पराकाष्ठा तब होती है जब पुलिस द्वारा ही थानो में बंदी महिलाओ से बलात्कार किया जाता है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्युरो(एनसीआरबी) के आकड़ो के अनुसार मध्यप्रदेश में लगातार तीसरे वर्ष सर्वाधिक बलात्कार की घटनाएं हुई है। वर्ष 2008 में 2937 महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाऐं हुई और ये ऑकड़ा 2009 में 2998 तथा 2010 में 3135 तक पहुंच गया अर्थात मध्यप्रदेश में हर दिन लगभग 8 महिलाए बलात्कार की शिकार हो रही है। इन घटनाओं के पिछे परोक्ष-अपरोक्ष रूप से मध्यप्रदेश सरकार की पुनरूत्थानवादी नीतिया ही जिम्मेदार है। भगवा विचारधारा के चलते मध्यप्रदेश में सरकार द्वारा बचे कुचे सामंती अवशेषों को संरक्षित करने का पुरजोर प्रयास किया जा रहा है इसलिये महिलाओं पर अत्याचारों में बढ़ोतरी हो रही है।
मुख्यमंत्री को अपनी भांजियो से इतना प्यार है कि उन्हाने कन्यादान जैसी योजनाओ का क्रियान्वयन करते समय देश के संविधान की धज्जिया उड़ा दी जो कहता हैं ’किसी भी व्यक्ति का दान या व्रिकय नही किया जा सकता‘। इसके अतिरिक्त मंगल दिवस, गोदभराई और लाड़ली लक्ष्मी योजना जैसी कई योजनाओं को लागू करके भाजपा सरकार ने अपने संघी आकाओ को खुश करने और सरकारी तन्त्र का भगवाकरण करने मे कोई कसर नही छोड़ी ।
भाजपा की सरकार और भगवा विचारधारा वाले संगठन लड़कियो को या तो पैर की जूती समझते हैं या देवी समझकर उनकी पूजा करते हैं दोनो ही स्थिति में इनकी भगवा विचारधारा महिलाओ को इंसान नही समझती और उन्हे प्रताड़ित करती हैं। पिछले दिनो भोपाल मे संघी दलालो द्वारा ऐसे ही सांमती फरमान जारी किये गये जिसमे कहा गया की लड़कियां जींस पहनकर मंदिरो मे प्रवेश न करें। इससे हिन्दू संस्कृति दूषित हो रही है। कई स्थानो पर भगवा ब्रिगेड द्वारा प्रेमी युगलो की पिटाई की गई जिस पर प्रायः पुलिस भी चुप्पी साधी रही। धर्म और संस्कृति के आधार पर भगवा विचारधारा वाले संगठन समय समय पर औरतों पर अत्याचार करते आए हैं। मध्यप्रदेश के अतिरिक्त जहॉ भी भाजपा की सरकार है वहा महिलाओ पर सामंती और पितृसत्तात्मक हमलो मे तेजी आई है।
पिछले वर्षो में बैगलोर के डिस्को और पबो पर हमला कर इन लोगो ने महिलाओ को नैतिकता का पाठ पढ़ाने का प्रयास किया क्योंकि इन पढ़ी लिखी और स्वतंत्र आचरण वाली महिलाओ से पितृसत्तात्मक समाज को कड़ी चुनौति मिल सकती है इसलिए इन पर हमले लगातार बढ़ते जा रहे हैं ।
वहीं दूसरी ओर मध्यप्रदेश में घरेलु हिंसा के मामलों में भी स्थिति गंभीर है। वर्ष 2010 में 3756 महिलाऐं घरेलू हिंसा का शिकार हुई अर्थात प्रदेश में हर दिन 10 महिलाओं को उनके रिष्तेदारों द्वारा प्रताड़ित किया जा रहा है। मध्यप्रदेश सरकार की लाड़ली लक्ष्मी योजना और कन्यादान जैसी योजना के चलते समाज में दहेज की मांग बढ़ी है साथ ही प्रदेश में दहेज हत्या के प्रकरणों में वृद्धि हुई है। वर्ष 2003 में 648 दहेज हत्या हुई वहीं ये ऑकड़ा 2010 में बढ़कर 892 तक पहुंच गया अर्थात हर दिन तीन महिलाओं की दहेज के लिये हत्या की गई।
यह सर्वविदित है कि विकास के लिए महिलाओं को भी वही दर्जा दिया जाए जो पुरूष को इस समाज में प्राप्त है लेकिन सरकार द्वारा संचालित सभी योजनाएं हिन्दुत्व का प्रचार एवं हिन्दुओ का तुष्टिकरण मात्र है पिछले आठ वर्षो में भाजपा के शासन काल के दौरान प्रदेश में सरकारी तंत्र का भगवाकरण और फासीवादी आक्रमणों के चलते जनवादी ताकते कमजोर हुई है इस कारण प्रदेश की भाजपा सरकार ने महिलाओं को दोयम दर्जे पर लाकर खड़ा कर दिया है।
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