अंतर्निहित है “आप” का संकट
जावेद अनीस
नयी नवेली, सबसे अलग, अच्छी और भारतीय राजनीति में अमूल
चूल बदलाव करने का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी अपने पहले संकट से उबरी ही थी कि
उसका एक और संकट सामने आ गया है, यह संकट उसके बाकि सियासी दलों से अलग होने के
दावे पर ही सवालिया निशान है और उसके पारदर्शी,ज्यादा लोकतान्त्रिक होने के दावे
पर बट्टा लगता है। आप लीडरशिप ने
पार्टी में सवाल उठाने वाले एक खेमे को पुरानी पार्टियों के उन्हीं तौर- तरीकों को
और बेहतर तरीके से इस्तेमाल करते निपटाया है जिनकी वह आलोचना करके थकती नहीं थी।
सारे दावे जुमलेबाजी और संभावनायें क्षीण साबित हुई हैं। जनता से स्वराज्य और
सत्ता के विकेंद्रीकरण का वादा करने वाली पार्टी इन्हें अपने अन्दर ही स्थापित
करने में नाकाम रही है। इन सब पर व्यक्तिवाद और निजी महत्त्वकाक्षा हावी हो गयी, सयाने
अरविन्द केजरीवाल अपने आप को पार्टी के हाई-कमांड साबित कर चुके है लेकिन अंत में
अरविन्द और उनके लोग जीत तो गए परन्तु “आप” हार गयी है ।
राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक
में “बहुमत के साथ” आप के संस्थापक सदस्यों योगेंद्र यादव और
प्रशांत भूषण को पार्टी की सबसे ताकतवर कमेटी (पॉलिटिकल
अफेयर्स कमिटी) से हटाने का फैसला पहले से बने बनाए पटकथा के अनुसार संपन्न हुआ है।
दिलचस्प बात यह है कि पार्टी की तरफ से आधिकारिक रूप से इसकी कोई ठोस वजह नहीं
बतायी गयी और इन दोनों नेताओं और पार्टी के लोकपाल एडमिरल रामदास के द्वारा उठाये गये आंतरिक लोकतंत्र, एक व्यक्ति एक पद,
पार्टी में हाई कमान कल्चर, पारदर्शिता जैसे मुद्दों को नजरअंदाज कर दिया गया। यह
पूरा घटनाक्रम तस्दीक करता है कि पार्टी और उसके शीर्ष नेतृत्त्व ने राजनीति को
बदल डालने का दावा करते हुए किस तेजी से पुरानी राजनीतिक संस्कृति व पैतरेबाजियों
को सीख लिया और बहुत ही काम समय में वे बड़े से बड़े घाघ नेताओं को पीछे छोड़ते नज़र आ
रहे हैं।
इतनी अहम बैठक में पार्टी के
राष्ट्रीय संयोजक प्लस दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने
अपने आप को पाक साफ़ और अलग दिखाने के लिए बैठक में हिस्सा नहीं लिया। वजह बतायी गयी कि वे
नैचुरोपैथी के जरिए इलाज कराने के लिए छुट्टी पर जा रहे हैं। उनका एक ट्वीट जरूर
आया जिसमें उन्होंने लिखा कि ''पार्टी में जो चल रहा है,
उससे मैं दुखी हूं उन्होंने इसे
यह दिल्लीवालों के विश्वास के साथ धोखेबाजी बताया और ऐलान किया कि “मैं इस
गंदी लड़ाई में नहीं पड़ूंगा” ।
लेकिन संजय सिंह, आशुतोष और आशीष खेतान जैसे केजरीवाल करीबी
नेताओं ने प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव के खिलाफ खुलकर निशाना साधा गया, इन्हें
“अल्ट्रा लेफ्ट” बताया गया और प्रशांत भूषण के खिलाफ उन्हीं आरोपों को दोहराया गया
जो भाजपा और संघ परिवार लगाते रहे हैं। यही नहीं इन
दोनों को केजरीवाल के
खिलाफ षडयंत्रकारी
बताते हुए सख्त कार्रवाई करने की मांग भी की गयी। योगेन्द्र यादव पर कार्रवाई
करने के लिए एक स्टिंग करने की भी ख़बरें आयीं जिसमें केजरीवाल के पीए विभव
कुमार द्वारा एक महिला पत्रकार का फोन उनकी जानकारी के बिना रिकॉर्ड किया गया जिसे
यादव के खिलाफ सबूत के तौर पर इस्तेमाल किया गया। दरअसल महिला पत्रकार ने एक खबर
लगाई थी जिसमें बताया गया था कि कैसे पार्टी हरियाणा में चुनाव लड़ना चाहती थी, लेकिन केजरीवाल ने तानाशाही तरीके से यह निर्णय लिया कि दिल्ली से पहले कोई चुनाव पार्टी नहीं लड़ेगी
और पार्टी
का सार संसाधन और
पैसा दिल्ली चुनाव में लगा दिया गया। आरोप लगा कि यह खबर योगेन्द्र यादव द्वारा प्लांट कराई गयी है।
इन सब के बीच योगेन्द्र यादव मीडिया के माध्यम से अपना पक्ष
और मुद्दे रखते रहे और पार्टी को चेताते भी रहे कि सब छोटे-मोटे मतभेदों को भुलाकर
बड़े दिल से काम करें और लोगों के उम्मीद
की इस किरण को छोटा न पड़ने दें। प्रशांत भूषण ने भी कहा कि “मैंने पार्टी के ढांचे में
बदलाव को लेकर राष्ट्रीय कार्यकारिणी को एक ख़त लिखा था जिसे विद्रोह की तरह नहीं
देखा जाना चाहिए।" लेकिन सारे दबावों के बीच योगेन्द्र यादव को कहना पड़ा कि “न तोडेगें,न छोडगें, सुधारेगें
और खुद भी सुधरेंगें। प्रशांत भूषण ने भीपार्टी में लोकतंत्र, पारदर्शिता, स्वराज
और उत्तरदायित्व की जरूरत को दोहराया ।
पार्टी के पॉलिटिकल अफेयर्स कमिटी से निकले
जाने के बाद इन दोनों के के सकारात्मक रुख के बावजूद केजरीवाल के करीबी नेताओं नेताओं (मनीष सिसौदिया, गोपाल राय, पंकज गुप्ता और संजय सिंह) ने सावर्जनिक
रूप से योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण के खिलाफ बाकायदा एक बयान जारी करते हुए
आरोप लगाया कि उन्होंने पार्टी को हराने
और अरविन्द केजरीवाल की छवि को धूमिल करने के का काम किया है।
पार्टी
के एक वरिष्ठ नेता और राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य मयंक गाँधी ने भी ब्लॉग
लिखकर पार्टी के अन्दर चल रहे खेल और अंदरूनी कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए
, उन्होंने अपने ब्लॉग में योगेंद्र
व प्रशांत को पीएसी से निकाले जाने के लिए सीधे केजरीवाल को जिम्मेदार ठहराते हुए
खुलासा किया कि अरविंद केजरीवाल ने उनसे
कहा था कि अगर ये दोनों (योगेंद्र व प्रशांत )'आप' की राजनीतिक मामलों की समिति से रहेंगे, तो वह
पार्टी प्रमुख नहीं रहना
चाहेंगें।
इस पूरे
घटनाकर्म पर आप की समर्पित कार्यकर्ता व ई-मेल टीम की सदस्य श्रध्दा उपाध्याय का अरविन्द केजरीवाल को संबोधित करता हुआ ब्लॉग उन हजारों युवा कार्यकर्ताओं की टीस और मोहभंग
को दर्शाता है जो एक आदर्श और सपने के साथ पार्टी से जुड़े थे, श्रध्दा ने लिखा कि, “आज आपने हमें ऐसे अनाथ
किया है कि सब धुंधला-सा दिखता है, खुद से ज्यादा उन साथियों की फिक्र है ,
जिन्होंने परीक्षाएं छोड़ीं, नौकरियां छोड़ीं, घर-परिवार
छोड़े...सर, स्वराज भी क्या राजनीतिक जुमला था? आपने तो कहा था कि हम राजनीति को पवित्र कर देंगे! आपने ये कौन-से दलदल
में फेंक दिया? ऐसा क्या हो गया कि आपका अंबर भी दागदार हो
गया? गलत तो हम सभी हैं, पर सजा सिर्फ
उनके हिस्से क्यों आई? इतना पक्षपाती तो कोई और कानून भी
नहीं।“
जिस
तरीके से योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण
को पीएसी से बाहर किया है वह अपने आप में कई सवाल खड़े करता है अगर इसकी वजह अनुशासनहीनता थी भी तो केजरीवाल गुट के नेता योगेन्द्र और प्रशांत जिस तरीके से सावर्जनिक रूप से को घेरने की कोशिश कर रहे
थे उससे लग रहा था कि योगेन्द्र और प्रशांत किसी दूसरी पार्टी के सदस्य हैं। इन
दोनो के द्वारा उठाये गये नीतिगत सवालो पर
तो पार्टी के तरफ से कोई जवाब देने की जरूरत भी नहीं समझी गयी ।
“आप” का यह संकट
नया नहीं है, पहले भी इससे जुड़े लोग पार्टी में लोकतंत्र ना
होने कि शिकायत करते रहे हैं
और कई लोग इसी
बिना पर पार्टी छोड़ कर जा भी चुके है, इससे पहले एक बार और योगेंद यादव ने आंतरिक लोकतंत्र को लेकर सवाल उठाते हुए केजरीवाल द्वारा पार्टी के राजनीतिक मामलों की समिति के सुझावों
को नहीं सुनने की शिकायत की थी, जिस पर केजरीवाल के करीबी मनीष सिसोदिया ने उलटे उनपर हमला बोलते हुए कहा था “योगेन्द्र यादव पार्टी प्रमुख अरविंद केजरीवाल को
निशाना बना रहे हैं तथा पार्टी के अंदरूनी मामलों को सार्वजनिक कर पार्टी को खत्म
करने की रणनीति पर काम कर रहे हैं”। उन्होंने
चुनाव के बाद हुई पार्टी की हालत
का जिम्मेदार योगेन्द्र यादव को ठहराया दिया था । इसी तरह से समय समय पर अन्य नेता भी पार्टी की कार्यप्रणाली पर सवाल उठा चुके है
और सुनवाई ना होने या तो चुप होकर बैठ गये
है या पार्टी छोड़ का जा चुके हैं ।
दरअसल आम आदमी पार्टी का यह संकट खुद उसी में अंतर्निहित है और देर-सेवर इसे सतह पर आना ही था। पार्टी का खुद कहना है कि वह किसी विशेष विचारधारा द्वारा निर्देशित नहीं है, फिर तो लफ्फाजी और जुमले बचते हैं। ऐसे में वहां व्यक्तिवाद का हावी होना लाजिमी है,वैसे भी भारतीय समाज में करिश्माई और अवतारी व्यक्तित्व का बड़ा महत्व है और अरविन्द केजरीवाल ने एक बार अकल्पनीय चमत्कार किया है, उनकी वोटरों को लुभाने की क्षमता भी उजागर हो गयी है। ऐसे में “आप” के ज्यादातर नेताओं और कार्यकर्ताओं को केजरीवाल को “सुप्रीमो” मान लेना कोई अचंभे की बात नहीं है, “आप” वाले भी बहुत काम समय में यह समझ चुके हैं कि चूंकि भारतीय राजनीति में वोट नेता के नाम पर ही मिलता है और किसी भी पार्टी को सत्ता वोटों से ही मिलती है, ऐसे में कौन एक व्यक्ति-एक पद, अंदरूनी लोकतंत्र, सोच–विचार, फैसलों में पारदर्शीता की जकड़न में बंधना चाहेगा और जो लोग इस तल्ख़ सच्चाई को नहीं समझेंगें उनका हश्र पूरी बहुमत के साथ भूषण और यादव जैसे ही होगा। कांग्रेस भाजपा सहित तमाम छोटे-बड़े क्षेत्रीय दलों से ऊबी जनता व लोकतान्त्रिक और जनपक्षीय ताकतों के लिए “आप” का उभार एक नयी उम्मीद लेकर आया था, आशा जगी थी कि “आप” और उसके नेता नयी तरह के राजनीति की इबारत लिखेंगें। हालिया घटनाक्रम “आप” से नई राजनीति’ की उम्मीद पालने वालों के लिए निराशाजनक है, पार्टी के नेता पुरानी राजनीतिक संस्कृति के तरीके से व्यवहार कर रहे है। शायद केजरीवाल और उनके लोग यह भूल गये हैं कि “आप” एक आईडिया है, व्यक्ति नहीं, जैसी की संभावना थी, खुद अरविन्द केजरीवाल "आप" नाम की विचार की सीमा बनते जा रहे हैं।
“आप” की विचारधारा को लेकर
एक बार अरविन्द केजरीवाल ने कहा था कि
“हमने व्यवस्था को बदलने के लिये राजनीति में प्रवेश किया है। हम आम आदमी हैं, अगर
वामपंथी विचारधारा में हमारे समाधान मिल जायें तो हम वहाँ से विचार उधार ले लेंगे
और अगर दक्षिणपंथी विचारधारा में हमारे समाधान मिल जायें तो हम वहाँ से भी विचार
उधार लेने में खुश हैं।” पार्टी विचारधारा को लेकर आशुतोष का
हालिया ट्वीट भी यही सन्देश देता है जिसमें उन्होंने कहा था कि “आप” मैं दो तरह के
विचारों के बीच मतभेद है। एक तरफ़ हैं
कट्टर वामपंथी विचारधारा जो कश्मीर में जनमत संग्रह की बात करती हैं,तो दूसरी ओर
विकास में यक़ीन करने वाली विचारधारा।"
यह संभावना जतायी जा रही थी कि केजरीवाल और उनकी "आप"
भाजपा और संघ-परिवार पोषित बहुसंख्यक राष्ट्रवाद और इसके खतरों का विकल्प बन सकते
है, हालंकि इसके कांग्रेस का एक विकल्प के रूप में
उभरने के संभावना ज्यादा थी, लेकिन अब इस संभावना पर भी एक सवाल है, फिलहाल “आप”
दक्षिणपंथ की ओर जाती हुई दिखाई दे रही है। लेकिन
उन्हें याद रखना होगा की भारतीय राजनीति की क्षितिज पर भाजपा जैसी धुर दक्षिणपंथी पार्टी का पहले से ही कब्जा है
ऐसे में एक और दक्षिणपंथी पार्टी की लिए
स्थान सीमित है ।
“आप” के
पहले उभार के समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक बड़े पदाधिकारी के उस बयान का
उल्लेख करना गैर-मुनासिब नहीं होगा जिसमें उन्होंने कहा था संघ की स्वयंसेवकों को “आप” में जरूर शामिल चाहिए जिससे “आप” के अन्दर संघ के विचारधारा को स्थान
मिल सके । इसकी झलक हमें समय समय पर दिखाई भी देती है, आम आदमी के बड़े
नेता कुमार विश्वास जो
आम नरेंद्र मोदी के बड़े समर्थक रहे हैं और जिन्होंने अपनी एक कविता में नरेंद्र मोदी की तुलना
भगवान् शिव से की है, आम आदमी पार्टी
पूर्व नेता मल्लिका साराभाई उन पर सवाल उठाते
हुए कहा था कि विश्वास
का नजरिया महिलाओं, समलैंगिकों और अल्पसंख्यकों के
प्रति समस्या पैदा करने वाला है जो कि ठीक
नहीं। हाल ही में कुमार विश्वास ने जिस तरह से देश के संविधान और कानून धज्जियां उड़ाते
हुए कश्मीर के अलगाववादी नेता मसरत आलम
को लेकर बयान दिया है कि, “मसरत जैसे आदमखोर भेडियों को जेल में रखने की
जगह गोली मार देनी चाहिए”, वह किसी भी दक्षिणपंथी पार्टी के नेता के विचारों को
मात देता है । इसी तरह से आम आदमी द्वारा अपने
वेबसाइट पर मोदी और केजरीवाल की एक साथ तस्वीर वाला पोस्टर लगाये जाने का कारनामा
सामने आया था जिसमें “दिल्ली की आवाज:
मोदी फॉर पीएम, अरविन्द
फॉर सीएम” का स्लोगन दिया गया था। दरअसल संघ और केजरीवाल का साथ अन्ना आन्दोलन के समय से ही रहा है, खुद
मोहन भगवत इस बात का खुलासा कर चुके है कि अन्ना आन्दोलन को संघ का समर्थन रहा है ।
अरविन्द केजरीवाल और उनके समर्थक जो कि विचारधाराविहीन
आदर्शवादियों का गुट है समय समय पर अपने
आप को फ्री-थिंकर और व्यवहारवादी धोषित
करते रहे हैं , उनका पूरा आर्थिक चिंतन दक्षिणपंथ के करीब है और वे इसको छुपाते भी
नहीं है , वह तो बाकायदा धोषणा करते हैं कि “हमें निजी व्यापार को बढ़ावा देना होगा” ,
फरवरी 2014 में सीआईआई की एक मीटिंग में केजरीवाल ने कहा था कि वह 'क्रोनी
कैपीटलिज्म" ( लंपट पूँजीवाद) के ख़िलाफ़ है, पूँजीवाद के नहीं और राज्यसत्ता की बाज़ार के नियमन में कोई भूमिका
नहीं होनी चाहिए उनका मानना है कि सरकार
का काम सिर्फ़ प्रशासन चलाना है व्यापार के काम को निजी क्षेत्र पर छोड़ दिया जाना चाहिए ।
आम आदमी
पार्टी और इसके लोग शुरू से ही विकल्प की राजनीति
का दावा करते रहे हैं, लेकिन लकिन
बीतते समय के साथ यह यह दावे खोखले साबित
हो रहे है, इससे उन लोगों को बड़ी निराशा
हुई होगी जो इनके माध्यम से बड़े बदलाव
की उम्मीद कर रहे थे । यह
पार्टी तो उन्हीं राजनीतिक व्याकरणों, तौर तरीकों और राजनीतिक संस्कृति को
बड़ी तेजी से अपनाती हुई प्रतीत हो रही है
जो हमेशा से उसके निशाने पर रहे है ।
No comments: