एक विलुप्त होती नदी का दर्द

स्वदेश कुमार सिन्हा


                                        
पूर्वी उ0प्र0 के बस्ती जनपद के रहने वाले कवि, पत्रकार और दिनमान पत्रिका के भूतपूर्व सम्पादक स्व0 सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने अपने गावं के निकट बहने वाली कुआनो नदी की कविताओ की सीरिज उसे चर्चित कर दिया था। उनका कविता संग्रह ’’कुआनो का दर्द ’’ आज यथार्थ बन कर सामने आ गया है। एक समय में बाढ़ से पूर्वान्चल को डुबाने वाली यह नदी आज अपने अस्तित्व का संकट झेल रही है। यही स्थिति यहाँ की अधिकांश छोटी नदियों की है। आज से करीब दो हजार वर्ष ईसा पूर्व लिखे गये बोद्ध ग्रन्थो में इस इलाके के अनेक नदियों के नाम आते हैं । कुआनो ,आमी ,मनोरमा , मनवर , रोहिणी ,राप्ती मुख्य हैं । इनमें से अनेक ऐसी हैं जो विलुप्त हो चुकी है ओैर अनेको इसके कगार पर हैं । 

इसी क्षेत्र में  स्थित कुशीनगर में  गौतम बुद्ध का महापरिनिर्वाण हुआ था तथा यहाँ पर स्थित मनोरमा नदी पर उनका अन्तिम संस्कार हुआ था। उस स्थल पर एक स्तूप आज भी बना हुआ है। परन्तु नदी विलुप्त हो चुकी है। आज से 30-35 वर्ष पहले एक पतली धारा के रूप में यह मोजूद थी। आश्चर्य की बात यह है कि हजारो वर्षो से सदा नीरा बहने वाली इन छोटी नदियों का अस्तित्व एकाएक 30-35 वर्षो के भीतर समाप्त क्यो हो रहा है। पर्यावरणविद इसके अनेक कारण बतलाते हैं। ब्यापक जलवायु परिवर्तन मानवीय हस्ताक्षेप जिसमें वनो की अन्धाघंध कटाई तथ नदियों पर बड़े बाॅध बनाने से ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं । नदियो मं भी जल कम आ रहा है। यह तो केवल एक भौगोलिक कारण है। आज इन नदियों के लिए सबसे बड़ा खतरा मानवीय प्रदूषण है जो इन नदियों को लील रहा है।
  
पूर्वी उत्तर प्रदेश में  सन्तकबीर नगर स्थित मगहर में  सन्त कबीर दास का महा परिनिर्वाण हुआ था। यही से बहने वाली आमी नदी जो नेपाल की तराई में स्थित सिद्धार्थ नगर जनपद में  एक झील से निकल कर नब्बे कि0मी0 की यात्रा करके राप्ती में मिल जाती है। 20 वर्षो पूर्व यह एक खूबसूरत तथा सदा नीरा नदी थी यह इस इलाके की जीवन रेखा थी तथा इस पर हजारो लोगों का जीवन यापन निर्भर था। मछली पालन ,सिचाई तथा अन्य मानवीय क्रियाकलापो के लिए इसका ब्यापक उपयोग किया जाता था। यह एक खूबसूरत पर्यटक स्थल भी था। आज यह नदी एक गन्दे नाले के रूप में तब्दील हो चुकी है। अगल-बगल की चीनी मिलो से लेकर गोरखपुर सन्त कबीर नगर के नगरीय तथा औद्योगिक इलाके का सारा गन्दा पानी इसी में डाला जाता है। इस जल गहरा काला हो गया है। वह इतना प्रदूषित हो गया है जिसके किनारे खड़े होना भी असंभव हो गया है। नदी का सम्पूर्ण जन जीवन भी समाप्त हो गया है। 

नदी के आस-पास का भूमिगत जल भी प्रदूषित हो जाने के कारण इस इलाके में चर्म तथा पेट के रोग भी फैल रहे हैं । नदी में प्रतिदिन करोड़ो लीटर गन्दा पानी गिरता है। इससे नदी के आस-पास बसे 300 गावं बुरी तरह प्रभावित है । आश्चर्य की बात यह है कि इस प्रदूषण से सारे बड़े राजनीतिक दल छिटपुट अखबारी बयान देने के अलावा मौन रहते हैं। आस-पास के ग्रामीण बिना किसी नेतृत्व के इस प्रदूाण के खिलाफ लम्बे समय से आन्दोलन चला रहे हैं । आमी बचाव मन्च के नेतृत्व में 14 फरवरी 2009 को हजारो लोगो ने प्रतीकात्मक रूप से मुठ्ठी भर फिटकरी तथा ब्लीचिंग पाउडर डालकर इसे बचाने का संकल्प  लिया। ब्यापक जन दबाव में 2011 में  केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड की एक टीम आई उसने आमी को बचाने के लिए प्रदूषित करने वाले कारखानो में  शोधन यंत्र लगाने की जरूरत बतायी। परन्तु आज इतने वर्ष बीत जाने के बावजूद भी नदी की हालत बद से बदतर होती जा रही है। 24 मार्च 2014 को गोरखपुर आये पर्यावरण विद राजेन्द्र सिंह ने भी आमी बचाव आन्दोलन का समर्थन किया।
 
 अनेक शोधकर्ताओ तथा पर्यावरण विदो का कहना है कि नदी में प्रदूषण नही रोका गया तो धीरे-धीरे नदी इतनी प्रदूषित हो जायेगी तथा इसके मुहाने पर इतनी शील्ट जमा हो जायेगी कि यह नदी भी अन्य नदियों की तरह समाप्त हो जायेगी।
  
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एन0जी0टी0) महाराष्ट्र की दो नदियों में प्रदूषण का जिम्मेदार मानते हुए चार संस्थानो पर 100 करोड़ का अर्थदण्ड लगाया है। इस फैसले से महाराष्ट्र में उल्लास तथा बाल्थुनी नदी के पुर्नजीवन की सम्भावना तो जगी है। आमी केा बचाने के लिए ग्रामीणों का गुस्सा जोश में बदलने लगा। ग्रामीणो ने क्षेत्रीय प्रदूषण  नियंत्रण बोर्ड के गोरखपुर व बस्ती के दफ्तरो पर घेरा डालो डेरा डालो के आन्दोलन की तैयारी शुरू कर दी है। इस आन्दोलन के संयोजक ने गाॅधी जयती से आमरण अनशन की चेतावनी भी दी है।


एक नदी की मोत उस इलाके की सम्पूर्ण सभ्यता व संस्कृति की मौत  होती है हो सकता है कि ग्रामीणो का यह संघर्ष एक नदी को मौत से बचा ले।  

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