जनगणना में अल्पसंख्यक
-सुभाष गाताडे
“लोकप्रिय स्तर पर लोगों के लिए इस हकीकत पर गौर करना या उसे जज्ब़ करना
मुश्किल जान पड़ता है जब उन्हें बताया जाता है कि बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी वाले
इंडोनेशिया की प्रजननक्षमता (कुल प्रजनन क्षमता दर 2.6) की दर बहुसंख्यक हिन्दू
आबादी वाले भारत की तुलना में (कुल प्रजनन क्षमता दर 3.2) कम है। दरअसल इंडोनेशिया में प्रजनन क्षमता में कमी को परिवार नियोजन पर कारगर
अमल, जो मुल्क की स्वास्थ्यसेवाओं के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी हैं, से जोड़ा जा सकता है। हाल के समयों में बांगलादेश में भी परिवार नियोजन के
बढ़ते स्तर ने वहां की प्रजनन क्षमता को में काफी तेजी से कमी दिखाई दी।’’
(फेक्ट एण्ड फिक्शन आन हिन्दुत्व क्लेम्स, आर बी भगत, सितम्बर 25,
2004, इकोनोमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली )
1.
जनगणना के आंकड़े एक गतिशील समाज के तेजी से बदलते परिदृश्य को उदघाटित करते
रहते हैं। आंकड़ों का यह समुच्चय नीतिनिर्धारकों को ही नहीं समाजविज्ञानियों, राजनीतिक विश्लेषकों या सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए एक खजाने के तौर
पर उपस्थित होता है, जिसका विश्लेषण करके वह अपनी समझदारी तय करते हैं या अपने हस्तक्षेप की रूपरेखा
बनाते हैं। एक सौ बीस करोड़ से अधिक आबादी का भारतीय समाज - जहां दुनिया के लगभग
सभी धर्मों के अनुयायी मिलते हैं - और जो अपने उपमहाद्वीपीय आकार के चलते ; भाषाई, सांस्कृतिक तथा अन्य विविधताओं के चलते दुनिया भर के जनसंख्याविदों के लिए
कुतूहल एवं अध्ययन का विषय बनता है, ऐसा ही नज़ारा उपस्थित करता है।
यह अलग बात है आज जबकि दक्षिण एशिया के इस हिस्से में बहुसंख्यकवाद अर्थात
मेजोरिटेरियानिजम का बोलबाला बढ़ा है और भारत के इस हिस्से के धर्मनिरपेक्ष एवं
समावेशी जनतंत्रा के क्षरण की कोशिशें तेज हो चली हैं हम पा रहे हैं कि जनगणना के
आंकड़ों के माध्यम से अपनी संकीर्ण राजनीति को ही हवा देने की कोशिशें तेज हो रही
है, और उसके व्यापक निहितार्थों पर परदा डाले रखने के प्रयास चल रहे हैं। यह महज
इत्तेफाक नहीं कि बिहार विधानसभा चुनावों के ऐन मौकों पर जनगणना के धार्मिक
आंकड़ों को जारी किया गया है ताकि उसके आंशिक निष्कर्षों को सामने लाकर
अल्पसंख्यकों की ‘बढ़ती आबादी’ के नाम पर बहुसंख्यकों का ध्रुवीकरण किया जा सके और चूंकि 2001-2011 के दरमियान हिन्दुओं की आबादी की तुलना में मुसलमानों की आबादी अधिक बढ़ने के
आंकड़े सामने आए हैं, लिहाजा उसी को लेकर एक नए ध्रुवीकरण के फिराक में वह दिखती है। विडम्बना है कि
जनगणना के जाति सम्बन्धी आंकड़ों पर अभी भी चुप्पी है, जिसकी लम्बे समय से मांग हो रही है।
और मीडिया जिसे ‘लोकतंत्रा का प्रहरी’
कहा जाता है उसने भी - चन्द अपवादों को छोड़ दें तो - एक तरह से इसी सुर में
सुर मिला लिया है। जनगणना 2011 के धार्मिक आकड़ों को जिस अन्दाज़ में
भाषाई मीडिया ने और अंग्रेजी अख़बारों के एक हिस्से ने पेश किया है, वह शायद इसी बात की ताईद करता है। एक अग्रणी हिन्दी अख़बार की सूर्खियां थीं ‘ धर्म का सियासी डेटा ‘
चुनाव के पहले जनगणना के आंकडे, मुस्लिम आबादी सबसे तेज बढ़ी’ /नवभारत टाईम्स/, दूसरे अख़बार की हेडलाइन थी:बढ़ी मुस्लिम आबादी: सरकार ने जारी किए 2011 जनगणना के धार्मिक आंकडे/जागरण/; ‘अमर उजाला’ का कहना था ‘आबादी की रफतार: हिन्दुओं की धीमी, मुस्लिमों की तेज’ ; हालांकि ‘राजस्थान पत्रिका’ के गुजरात संस्करण जैसे चन्द अपवाद भी थे जिन्होंने आबादी में प्रमुख धर्मो के
मौजूदा प्रतिशत को बताते हुए इस बात को रेखांकित किया कि ‘मुस्लिमों की बढ़ोत्तरी दर पिछले दशक के मुकाबले घटी’ तो ‘द टेलिग्राफ’ की रिपोर्ट थी ‘सेन्सस नेल्स प्रमोटर्स आफ पैरोनेइया’ अर्थात ‘जनगणना के आंकड़ों ने फर्जी आतंक पैदा करनेवालों पर
नकेल डाली’।
इस प्रष्ठभूमि में यह बेहद समीचीन होगा कि हम मसले की गहन समीक्षा करें। और
जिसकी शुरूआत जनगणना को लेकर चन्द सामान्य सूचनाएं साझा करके की जा सकती है।
क्या कहते हैं जनगणना के धार्मिक आंकडें
जनगणना 2011 के धार्मिक आंकड़ों के मुताबिक 92 करोड़ 63 लाख आबादी के साथ हिंदू देश का सबसे बड़ा धार्मिक
समूह है(हिस्सेदारी 79.82) तो मुसलमानों की आबादी 17.22 करोड़ (हिस्सेदारी 14.2 फीसदी) है। अन्य समुदायों
की आबादी इस प्रकार है: ईसाई 2.78 करोड़(2.3 फीसदी), सिख 2.08 करोड़ (1.7 फीसदी), बौद्ध 84 लाख (0.7 फीसदी), जैन 45 लाख (0.4 फीसदी) और अन्य 78 लाख (0.7 फीसदी)
गौरतलब है कि 2001 के आंकड़ों की तुलना में हिन्दुओं की आबादी 0.7 फीसदी घटी है तो मुसलमानों
की 0.8 फीसदी बढ़ी है, ईसाइयों एवं जैनियों की आबादी के अनुपात में कोई फर्क नहीं आया है ( 2.3 फीसदी और 0.4 फीसदी क्रमशः) जबकि सिखों की आबादी 1.9 फीसदी से 1.7 फीसदी तक हुई है और बौद्धों की आबादी भी 0.8 फीसदी से 0.7 फीसदी तक हुई हैं।
आंकड़ों पर सरसरी निगाह डालने से कुछ बातें स्पष्ट होती हैं
- -सभी समुदायों में आबादी की बढ़ोत्तरी की दर में इस अन्तराल (2001-2011) के दरमियान कमी आयी है
- यह चित्र भी उपस्थित होता है कि भारत की धार्मिक विविधता अब सिमट रही है क्योंकि सबसे छोटे धार्मिक समूह, जिनमें सिख, बौद्ध, जैन आदि शामिल हैं, उनकी बढ़ोत्तरी की दर विगत दशक में न्यूनतम रही है। विगत तीन दशकों में पहली बार सिख और बौद्धों की बढ़ोत्तरी की दर 10 फीसदी से कम देखी गयी है जबकि जैन लोगों की बढ़ोत्तरी दर 5 फीसदी से भी कम है। हिन्दू अतिवादियों में चर्चित विमर्श के विपरीत आंकड़े यहीं बताते हैं कि अल्पसंख्यकों के देश में हावी होने की कोई सम्भावना नहीं दिखती जबकि आबादी का लगभग अस्सी फीसदी हिस्सा हिन्दुओं का ही है।
- यह बात रेखांकित करनेवाली है कि 2001 की तुलना में 2011 की जनगणना में भारत के छह सबसे बड़े धार्मिक समुदायों में लिंगानुपात की स्थिति बेहतर हुई है, जिसमें सबसे बेहतर सुधार मुसलमानों में ( 936 से 951 तक) जबकि सबसे कम सुधार हिन्दुओं में (931 से 939 तक) दिखाई देता है
- विभिन्न धार्मिक समुदायों के लिंगानुपात में काफी फरक दिखता है जिसमें सबसे खराब स्थिति सिखों की है जहां एक हजार पुरूषों की तुलना में महज 903 महिलाएं हैं, जबकि ईसाइयों में यह आंकड़ा 1,023 है, अब जहां तक हिन्दुओं की बात है उत्तरपूर्व के कई राज्यों में यह आंकड़ा 900 से कम है
- जहां असम के 27 जिलों में से 9 जिलों में अब मुस्लिम बहुसंख्या में है (जो आंकड़ा 2001 में छह था) वहीं यह भी देखने में आ रहा है कि पंजाब, कर्नाटक, गोवा, पुदुच्चेरी, चंडीगढ, नागालैण्ड, दमन दीव एवं नगर हवेली जैसे इलाकों में हिन्दुओं की आबादी की बढ़ोत्तरी की दर राष्ट्रीयऔसत से ज्यादा है।
- सबसे दिलचस्प आंकड़ा उन लोगों के बारे में है जिन्होंने किसी धर्म के साथ अपने आप को जोड़ने से इन्कार किया है। इसमें नास्तिक हो सकते हैं, तर्कशील हो सकते हैं या किसी संगठित धर्म से दूरी रखनेवाले लोग शामिल हो सकते हैं। ऐसे लोगों की तादाद 29 लाख है, जिसमें पुरूषों एवं महिलाओं की संख्या लगभग बराबर है। 2011 की जनगणना में सम्भवत‘ ‘अनास्था अर्थात नानफेथ’सवा सौ करोड़ की आबादी में उनकी संख्या एक फीसदी की चैथाई से भी कम है। यह भी नोट करनेलायक है कि 2001 की जनगणना की तुलना में 2011 की जनगणना में ऐसे कहनेवालों की तादाद में 294 फीसदी बढ़ोत्तरी देखी गयी है।
निश्चित ही इन आंकड़ों पर समूचे समाज में एक अच्छी खासी बहस खड़ी हो सकती हैं।
उदाहरण के तौर पर हिन्दुओं के लिए यह गहरे आत्मपरीक्षण का विषय हो सकता है कि
लिंगानुपात को लेकर सबसे कम सुधार उन्हीं के यहां क्यों दिखता है, या यह भी पूछा जा सकता है कि लिंगानुपात के मामले
में ईसाई समुदाय का रेकार्ड बाकी समुदायों की तुलना में बेहतर क्यों है ? पंजाब तथा चंडीगढ़ में सिखों की आबादी कम हो रही है और हिन्दुओं की बढ़ रही है, यह अवश्य पूछा जा सकता है कि क्या यह स्थिति उपरोक्त सूबे में नए तनाव का सबब
बनेगी ?
जनसंख्या का अपना गतिविज्ञान आम लोगों के लिए यह कुतूहल का विषय हो सकता है
मगर समाज वैज्ञानिकों में यह जानी हुई बात है कि आबादी के बढ़ोत्तरी का दर विभिन्न
कारकों से प्रभावित होता है जैसे आर्थिक विकास का स्तर, साक्षरता का स्तर, स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच और भौतिक सम्रद्धि के साथ यह दर भी स्थिर होती जाती
है। वह हमें बता सकते हैं कि जनसंख्या बढ़ोत्तरी दर का धर्म से कोई सीधा रिश्ता
नहीं होता यह हम दक्षिणी राज्यों में - खासकर केरल में मुसलमानों के बढ़ोत्तरी दर
पर गौर करके देख सकते हैं - जो बिहार और उत्तर प्रदेश में हिन्दुओं की बढ़ोत्तरी
दर से कम है।
समाज में उच्च साक्षरता दर किस तरह इन अल्पसंख्यक समुदायों में आबादी की
बढ़ोत्तरी को प्रभावित करता है, यह हम जैन लोगों पर गौर करके देख सकते हैं, जो इस दशक में महज 5.4 फीसदी की दर से बढ़े हैं। एक दशक पहले उनकी साक्षरता दर 90 फीसदी से अधिक नोट की गयी थी।
जैसा कि हमारे सामने है संघ-भाजपा के चिन्तक विचारकों को न इन आंकड़ों का गहन
विश्लेषण करना है और न ही इस मसले के बारे में कोई समझदारी बनानी है, उन्हें बस इन ताज़ा आंकड़ों का सियासी दोहन करना है, जिसमें वह पूरे जोशो खरोश के साथ जुट गए हैं, मगर वह शायद भूल रहे हैं कि
सच्चाई की जो ताकत है वह उन्हें आज नहीं तो कल बचावात्मक पैंतरा अख्तियार करने के
लिए मजबूर करेगी। एक मोटी बात ही बता दें कि 2011 के आंकड़ों की चर्चा करते हुए मुसलमानों की बढ़ती
आबादी के खौफ को दिखा रहे लोग इस बात की चर्चा करना जरूरी नहीं समझते कि चाहे हिन्दू
हों या मुसलमान हों उनकी आबादी की बढ़ोत्तरी की दर में कैसे बदलाव आ रहे हैं। नीचे
दिए गए टेबिल में भारत के इन दोनों प्रमुख समुदायों में तीन दशक में जनसंख्या बढ़ोत्तरी की दर कैसे घटी है, इसे स्पष्ट किया गया है।
वर्ष
|
हिन्दू
|
मुसलमान
|
1981-1991
|
22.8 फीसदी
|
32.9 फीसदी
|
1991-2001
|
20.0 फीसदी
|
29.3 फीसदी
|
2001-2011
|
16.8 फीसदी
|
24.6 फीसदी
|
अंकगणित की साधारण जानकारी रखनेवाला बता सकता है कि जहां मुसलमानों में
बढ़ोत्तरी दर में 4.8 फीसदी कमी दिखती है,
वहीं हिन्दुओं में यह महज 3.2 फीसदी है, और इसी किस्म की सच्चाई हम इसके पहले के आंकड़ों पर
भी गौर करके यही पा सकते हैं।
2
निश्चित ही यह पहली दफा नहीं है जब अल्पसंख्यकों की आबादी के ‘विस्फोट’ के नाम पर समाज में नकली डर पैदा किया जा रहा है। इतिहास के पन्नों को पलटें
तो इस बात को बार बार देखा जा सकता है।
बहुत कम लोगों को याद होगा कि बीसवीं सदी की शुरूआत में किन्हीं जनाब यू एन
मुखर्जी द्वारा लिखित एक किताब आयी थी ‘हिन्दू: ए डाईंग रेस अर्थात
एक मरणासन्न कौम’। यह वहीं मुखर्जी थे जिन्होंने बाद में पंजाब हिन्दू महासभा का गठन भी किया।
यह किताब इस मामले में क्लासिक कही जा सकती है कि उसने बाद की तमाम किताबों को
प्रभावित किया, जिनकी रचना हिन्दू महासभा ने की थी। मोहन राव ‘हिमाल’ पत्रिका के अपने उपरोल्लेखित आलेख में बताते हैं कि ‘इस किताब की उन दिनों जबरदस्त मांग रही, जिसे कई बार पुनमुद्रित करना पड़ा, जिसने हिन्दू साम्प्रदायिकता को निर्मित करने में एवं मजबूती देने में अहम
भूमिका निभायी। इस किताब का उच्च जाति के हिन्दू सम्प्रदायवादियों पर विशेष प्रभाव
था जो मुसलमानों एवं दलितों से उठ रही अलग प्रतिनिधित्व की मांग के बरअक्स एक
एकाश्म/मोनोलिथिक हिन्दू समुदाय को गढ़ना चाह रहे थे। मुसलमानों को लेकर अनापशनाप
बातों को उछालने से विविध जातियों में बंटे हिन्दूओं को - जिनमें से कइयों के आपस
में दुश्मनाना सम्बन्ध थे - एक मंच पर लाना आसान था।’
अल्पसंख्यकों की आबादी का डर दिखा कर हिन्दुओं को अधिक बच्चे पैदा करने चाहिए
ऐसी सलाह हम आए दिन सुनते रहते हैं। ‘जनसंख्या सन्तुलन के अल्पसंख्यकों के दिशा में
मुड़ने’ की बात और हिन्दुओं को ‘परिवार नियोजन पद्धतियों का ‘अंधानुकरण’ करने के बजाय उसके बारे में पुनर्विचार करने की बात संघ के अग्रणियों की तरफ
से भी अक्सर की जाती है। उदाहरण के तौर पर विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष अशोक
सिंघल ने दस साल पहले हिन्दुओं को परिवार नियोजन त्यागने की सलाह दी थी ताकि ‘उनकी आबादी कम न हो।’
उनके मुताबिक ‘मुसलमानेां की आबादी इस कदर तेजी से बढ़ रही है कि आनेवाले पचास सालों में वह
कुल आबादी का 25-30 फीसदी होगी। अगर हिन्दुओं ने इस दिशा में सचेत प्रयास नहीं किए तो यह उनके
लिए आत्मघाती होगा।’
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, जो खुद संघ प्रचारक रहे हैं, उन्होंने सूबा गुजरात का मुख्यमंमंत्री होने के दौरान जनसंख्या को लेकर इस भ्रांति को
खूब हवा दी थी और चुनावी मैदान में उसका उन्हें फायदा भी मिला था। इतिहास गवाह है
कि एक तरफ उन्होंने जहां शरणार्थी शिविरों में रहने को मजबूर पीडि़त मुस्लिम
समुदाय को मज़ाक उड़ाया था कि किस तरह उसने इन शिविरों को ‘बच्चा पैदा करने की फैक्टरियों’ में तब्दील किया है वहीं साथ ही साथ उनके खिलाफ
उन्माद पैदा करने के लिए ‘हम दो हमारे दो ; वह पांच, उनके पचीस’ जैसे भडकाउ नारे भी दिए थे।
अपने एक आलेख में जनसंख्या विशेषज्ञ मोहन राव (मर्डरस आइडेंटीटीज एण्ड
पापुलेशन पेरोनोइया,
हिमाल, सितम्बर 2008) इस जूनूनी किस्म के नारे का
विश्लेषण करते लिखा था: ‘‘अन्य तमाम बातों के अलावा इसके जरिए यही कहा जा रहा है कि सिविल कानून के तहत
जबकि हिन्दू एक से अधिक शादी नहीं कर सकते
हैं जबकि मुस्लिम चार शादी कर सकते हैं। यह इस बात को उजागर नहीं करता कि आंकडे
यही बताते हैं कि गैरकानूनी दो शादियां या कई शादियों का प्रचलन मुसलमानों की
तुलना में हिन्दुओं में ज्यादा है। उदाहरण के तौर पर, उपलब्ध आंकडों के मुताबिक जिसे बहुपत्नीक शादी कहा जा सकता है उसका प्रतिशत
हिन्दुओं में 5.8 है जबकि मुसलमानों में 5.73 है।..इसमें इस बात की भी अनदेखी की जाती है कि
हिन्दुओं की तरह मुसलमान भी मोनोलिथ,समरूप समुदाय नहीं हैं, उनमें भी तरह तरह की विभिन्नताएं हैं। केरल और तमिलनाडु के मुसलमान या यूं
कहें कि दक्षिण भारत के मुसलमानों के परिवारों की सदस्य संख्या उत्तर भारत के
बिहार एवं उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के हिन्दु परिवारों के सदस्य संख्या की तुलना
में कम पायी जाती है। स्पष्ट है कि इसमें धर्म की कोई भूमिका नहीं है।’
मोदी के सत्तारोहण के बाद साक्षी महाराज से लेकर साध्वी प्राची तक हिन्दु
राष्ट के नए-पुराने ‘संग्रामियों’ की तरफ से इसे अधिक उत्तेजक अन्दाज में रखा जा रहा है। कुछ समय पहले जब यह शोर
अधिक हुआ था - और जब जनगणना के धार्मिक आंकड़े आधिकारिक तौर पर सामने नहीं आए थे -
तब देश के एक अग्रणी अख़बार (डीएनए) ने इस मसले पर तमाम विशेषज्ञों से बात की थी।
जनसंख्या विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय इन्स्टिटयूट के प्रोफेसर अरोकियास्वामी के
मुताबिक मुसलमानों में प्रजनन क्षमता की अधिक दर को हम उनके धार्मिक विश्वासों तक
सीमित नहीं कर सकते , इस सन्दर्भ में सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों की भी भूमिका होती है, अधिकतर मुस्लिम महिलाओं के लिए गर्भनिरोधक साधन सुलभ नहीं होते, जैसे कि वह अन्य समुदायों की वंचित महिलाओं के लिए सुगम नहीं होते। केरल एवं
जम्मू कश्मीर के मुसलमानों की वृद्धि दर का उल्लेख करते हुए उन्होंने यह भी बताया
कि किस तरह वह हिन्दु समुदाय की औसत वृद्धि दर से कम है जिसे हम उनकी बेहतर शिक्षा
एवं बेहतर सामाजिक आर्थिक स्थिति से जोड़ सकते हैं और उन्हीं कारणों से यू पी एवं
बिहार जैसे कम विकसित राज्यों में हिन्दुओं की प्रजनन क्षमता अन्यों की तुलना में
अधिक है।
टाटा इन्स्टिटयूट आफ सोशल साइंसेस के प्रोफेसर अब्दुल शबान के मुताबिक 2001 की जनगणना की रिपोर्ट को देखें तो आप पाएंगे कि मुसलमानों की वृद्धि दर में
कमी बहुसंख्यक समुदायों से अधिक तेज है। ‘‘अध्ययनों और सांख्यिकी के आंकड़ों ने इस बात को
प्रमाणित किया है जनसंख्या विज्ञान धर्म से तटस्थ होता है, जबकि संकीर्णमना ताकतें उसे अपने पक्ष में करने की कोशिश में रहती हैं।’’
संयुक्त राष्ट्रसंघ के पापुलेशन फण्ड के वरिष्ठ अधिकारी ने एक अलग पहलू को
रेखांकित किया था: ‘ धर्म से परे ग्रामीण,
जनजातीय और गरीब परिवारों में हमेशा ही जनसंख्या वृद्धि दर अधिक होती है और
सभी समुदायों के सम्पन्नों की कम सन्तानें होती हैं।’’
वैसे अगर हम यहुदी, ईसाई, इस्लामिक या सिंहाला मूलवादी/बुनियादपरस्त जनसंख्या विमर्शों को देखें तो
उनमें भी हिन्दुत्व के जनसंख्या विमर्श के तत्व मिल सकते हैं। हिन्दुत्व के
विचारकों की ही तर्ज पर इस्लामिक बुनियादपरस्त ताकतें भी परिवार नियोजन का विरोध
करती हैं, जिनका यह कहना होता है कि मुस्लिम दुनिया को कुन्द करने की यह
यहुदियों-ईसाइयों की चाल है। मिस्त्रा का मुस्लिम ब्रदरहुड जैसा संगठन गर्भनिरोधक
साधनों का विरोध करता है क्योंकि उसका मानना है कि इससे ‘अनियंत्रित स्त्री यौनिकता’ को बढ़ावा मिलेगा जो इस्लामिक समाज के नैतिक ताने बाने को कमजोर कर देगा।
No comments: