बिहार का ब्रेक
जावेद अनीस
2014 आम चुनाव के बाद यह सबसे बड़ा चुनाव था, जिसमें एक तरफ
नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने भाजपा
और भारत की राजनीति में अजेय साबित करने के लिए अपने आप को दावं पर लगा रखा था तो
दूसरी तरफ लालू-नीतीश अपने अस्तित्व को बचाए रखने लिए लड़ रहे थे. मोदी और शाह की
जोड़ी के लिए जहाँ यह दिल्ली के बाद दूसरी बड़ी हार
हैं, वहीं लालू-नीतीश के लिए उम्मीद से बड़ी एक तरफा जीत है और मोदी-शाह की
बहुत बड़ी हार. बिहार की सीमाओं से बाहर की राजनीति पर इस जनादेश का क्या असर पड़ेगा
यह कहना तो मुश्किल है लेकिन इसका भाजपा की अंदरूनी राजनीति और कुछ हद तक मोदी
सरकार पर असर पड़ सकता है.
राजनीति समय पर अपने और अपने दोस्तों के संभावनाओं और
सीमाओं को पहचान लेने का खेल है, इसे आप मौकापरस्ती भी कह सकते हैं, 2002 में गुजरात दंगों के समय नीतीश कुमार
वाजपेयी सरकार में
मंत्री बने रहे, लेकिन 2013 में नरेंद्र मोदी को बीजेपी की राष्ट्रीय चुनाव प्रचार समिति का प्रमुख बनाए जाने के बाद जेडीयू ने भाजपा से अपना 17 साल
पुराना गठबंधन तोड़ लिया था. उधर राम विलास पासवान ने गुजरात दंगों की वजह से केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया लेकिन लोकसभा चुनाव से ठीक पहले उन्होंने
भाजपा के साथ गठबंधन कर लिया, इसका उन्हें और भाजपा दोनों को फायदा मिला, 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी गठबंधन को
बिहार की कुल 40 में से 31 सीटें
मिली थी जिसमें पासवान की एलजेपी को 6 और उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएसपी को 3 सीटें
मिली थीं.पासवान
केंद्र सरकार में मंत्री बनाए गये वहीँ नीतीश
कुमार की पार्टी जेडीयू को केवल 2 सीट मिलीं थीं, आरजेडी और कांग्रेस गठबंधन भी महज 7 सीटों
पर सिमट कर रह गयी थी. इस हार की जिम्मेदारी लेते हुए नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे कर महा दलित नेता जीतन राम मांझी को
मुख्यमंत्री बना दिया,बाद में वे अपने हिसाब से चलते हुए नीतीश कुमार को ही टक्कर
देने लगे, मुख्यमंत्री बनने के १० महीनों के बाद जब उन्होंने नीतीश कुमार के लिये पद छोड़ने में आनाकानी की तो उन्हें पार्टी
से निष्कासित कर दिया गया। बाद में उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा और नीतीश कुमार फिर से
मुख्यमंत्री बन गये.
अगस्त 2014
में बिहार के 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुआ, जिसे 2015 में होने वाले
विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल कहा जा रहा था। इस चुनाव को लालू-नीतीश-कांग्रेस ने
मिल कर लड़ा था जो की सफल रहा और इस गठबंधन ने 10 में से 6
सीटों पर जीत मिली थी जबकि
भाजपा को मात्र 4 सीटें ही मिल पायीं। उपचुनाव में जीत और
दिल्ली में आम आदमी पार्टी द्वारा एकतरफा जीत से उत्साहित होकर नीतीश कुमार की जनता दल (यू), लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल और
मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी और जनता परिवार की अन्य पार्टियों ने विलय के लिए प्रयास शुरू कर दिया था जिससे वे भाजपा के खिलाफ देशव्यापी विकल्प
प्रस्तुत कर सकें जो कि विफल रहा, बाद में तो मुलायम सिंह ने बिहार में अलग से चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया, उपचुनाव में लालू-नीतीश-कांग्रेस का आजमाया हुआ महागठबंधन था तो दूसरी तरफ
भाजपा के साथ एनडीए में राम विलास पासवान, उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम माँझी शामिल थे.
ऐसा लगता है भाजपा के रणनीतिकारों द्वारा दिल्ली
विधानसभा चुनाव की हार से सबक न लेते हुए बिहार में भी नकारात्मक अभियान चलाया गया
और दिल्ली की ही कई गलतियां दोहराई गयी, बिहार चुनाव को भाजपा ने एक राज्यस्तरी
पार्टी की तरह लड़ा और पार्टी के केंद्रीय नेताओं को राज्य स्तर के नेता की जगह पेश
किया गया, खुद मोदी को राज्य स्तर के नेताओं के सामने खड़ा कर दिया गया, उनसे 29
सभायें कराई गयीं, इन परिवर्तन रैलीयीं के माध्यम से वे खुद और प्रधानमंत्री के
रूप में किये गये कार्यों को लालू–नीतीश के बरअक्स पेश करते रहे और इसी तरह से केंद्र सरकार के लगभग दर्जन भर
मंत्री, दूसरे राज्यों से 500 से ज्यादा की संख्या में पार्टी के नेता और पार्टी
अध्यक्ष अमितशाह पूरे चुनाव प्रचार के दौरान बिहार में स्थायी रूप से जमे रहकर
कमान संभाले रहे .
इसी तरह से बिहार में भी भाजपा का पूरा
प्रचार अभियान नकरात्मक रहा, यह कुछ और नहीं विकास और हिंदुत्व के घालमेल का पुराना फ़ॉर्मूला था जिसमें गाय,
आतंकवाद को नरमी देने और पाकिस्तान जैसे
मुद्दों उठाये गये, आरक्षण को धार्मिक रंग देने की कोशिश की गयी. यहाँ तक की चुनाव आयोग
को बीजेपी प्रकाशित विवादित विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाना पड़ा, एक विज्ञापन में
लालू और नीतीश कुमार दलितों और ईबीसी का आरक्षण
अल्पसंख्यकों को देने का आरोप लगाया गया ,एक दूसरे विज्ञापन में मतदाताओं को बताया
गया था कि आरजेडी, जेडीयू और
कांग्रेस के नेता एक विशेष समुदाय को खुश करके वोट हासिल करने के लिए आतंकियों को
बिहार में पनाह दे रहे हैं। दरअसल यह नरेंद्र मोदी की पुरानी शैली है,गुजरात के
समय अपनी चुनाव सभाओं में वे “मियां मुशर्रफ” का जुमला उछालते थे और तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त
जे.एम.लिंगडोह का पूरा नाम
जेम्स माइकल लिंगडोह लेकर उन्हें कोसते थे, यह उनका राजनीतिक मेटाफॉर है जिसके सहारे वे
बहसंख्यक समुदाय को लामबंद करते आये हैं. इस बार जब उन्होंने प्रधानमंत्री के तौर
पर वही काम किया तो उनकी खूब आलोचना भी हुई.
लोकसभा चुनाव के दौरान जिस तरह से संघ के कैडर ने भाजपा के
लिए काम किया था, वह बिहार के चुनाव में नज़र नहीं आया, उलटे आरक्षण नीति की समीक्षा को लेकर संघ प्रमुख मोहन भागवत के बयान ने भाजपा के लिए परेशानी खड़ी कर
दी थी जो पूरे चुनाव के दौरान एक मुद्दा बना रहा.
महागठबंधन की तरफ से लालू-नीतीश इस तरह से मिल
कर चुनाव लड़ रहे थे जिससे की एक दूसरे की ताकत से फायदा उठाया सकें और कमजोरियों
से नुक्सान भी ना हो, लालू-नीतीश दो स्तरों पर लड़ते हुए दिखाई दे रहे थे, एक तरफ
लालू यादव मंडल को केंद्र में रखते हुए भाजपा के लिए ऐजेंडा तय कर रहे थे और
ज्यादातर समय भाजपा उसी पर रिएक्ट कर रही थी, दूसरी तरफ नीतीश कुमार की टीम उनके लिए
सकारात्मक अभियान चला रही थी जिसमें उनके उपलब्धियों को बताते हुए इस काम को और
आगे बढ़ाने के लिए वोट माँगा जा रहा था, नीतीश कुमार ने अपने स्तर पर मोदी से लड़ने
के लिए उन्हीं के तौर-तरीकों को आजमाया. लोकसभा चुनाव में नरेंद मोदी को सेवाएं दे
चुके चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर इस बार नीतीश कुमार की सेवा में थे. प्रशांत
किशोर के “इंडियन पोलिटिकल एक्शन कमेटी” से जुड़े करीब 300 वालंटियर
पटना के स्ट्रेंड रोड स्थित
मुख्यमंत्री निवास पर नीतीश कुमार के चुनाव अभियान में लगातार सेवाएं दे रहे थे.
इस टीम द्वारा “ बिहार में बहार हो, नीतीश कुमार हो” और “झांसे में न आएंगे नीतीश कुमार को
जिताएंगे” और “फिर एक बार नीतीश कुमार” आदि नारे गढ़े, “हर घर दस्तक” जैसे अभियान चलाये गए. “इंडियन पोलिटिकल
एक्शन कमेटी” अभियान का पूरा ध्यान नीतीश की तरफ था, उन्हें महागठबंधन के चेहरे के तौर
पर पेश करते हुए उनके पिछले
कामों, विकास और
बिहार की ब्रैंडिंग की गयी,
खुद नीतीश को एक
ब्रांड के रूप में गढ़ा गया, इस तरह पूरा जोर विचार और विचारधारा की जगह नेता को
प्रस्तुत करने का था जो की सफल रहा. ओवैसी,मांझी
और मुलायम फेक्टर भी बेअसर रहा।
इस महाजीत से नीतीश कुमार किंग और लालू
किंग मेकर बन गये हैं, नीतीश के लिए भी अस्तित्व की
लड़ाई बन गया है, लालू ने बिहार की राजनीति
में अपनी प्रासंगिता एक बार फिर हासिल कर ली है, लेकिन आने वाले चुनौती नीतीश
कुमार की है, उनकी पार्टी राजद से कम सीटें लायी है,देखना दिलचस्प होगा कि किस तरह
से वे लालू की छत्र-छाया में सरकार चलाते हैं, वैसे भी जनता परिवार में लम्बे समय
तक साथ चलने का रिकॉर्ड बहुत ख़राब रहा है.
ऐसा
नहीं लगता कि इस नतीजे का भारत की राजनीति पर कोई सीधा प्रभाव पड़ेगा, और ना ही इसे धर्मनिरपेक्षता की जीत की तरह प्रस्तुत किया
जा सकता है, मोदी सरकार के यह भाजपा का स्वर्णकाल है, पिछले
डेढ़ सालों में वह अपने आप को कांग्रेस के विकल्प के तौर पर स्थापित करने में काफी
हद तक कामयाब रही है. लेकिन जिन
राज्यों में उसका मुकाबला सीधे कांग्रेस से नहीं हैं, वहां क्षेत्रीय दलों ने कड़ी चुनौती पेश की है. आने वाले दिनों में भी इसी ट्रेंड के बरकरार रहने की
संभावना है.
लेकिन इस हार का असर भाजपा और मोदी सरकार
पर पड़ना तय है, दरअसल मोदी काल में भाजपा का हद से ज्यादा केंद्रीकृत हो गयी है जो
उसके लिए एक गंभीर समस्या बन सकती है, ऐसा लगता है कि पूरी पार्टी और सरकार को तीन
ही लोग चला रहे हैं, निश्चित रूप से पार्टी के असंतुष्ट चाहेंगे कि इस हार का ठीकरा मोदी -अमित शाह और माथे ही फूटे, इसे
केंद्र सरकार की नाकामियों से भी जोड़ा जाएगा. यह एक ब्रेक है जिससे गुजरात की जोड़ी का
भाजपा पर पहले जैसा नियंत्रण नहीं रह पायेगा.
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