इक लपकता हुआ शोला, इक चलती हुई तलवार
रूपाली सिन्हा
Google image |
उत्तरप्रदेश के रुदौली में 19 अक्टूबर 1911 को जन्मे उर्दू के लोकप्रिय शायर मजाज़ की गिनती उन चंद तरक्कीपसंद शायरों में की जाती है जिसने बहुत ही कम उम्र में शोहरत की बुलंदियों को छू लिया। 46 साल की छोटी सी उम्र में इस नौजवान शायर ने शायरी के जो जलवे दिखाए उसकी चमक आज भी वैसे ही बरक़रार है। सन 1929 में 18 वर्ष की उम्र में कॉलेज में दाखिला पाने के लिए मजाज़ आगरा पहुंचे। यहाँ की सरगर्मियों और गहमागहमी के माहौल में उन्होंने गज़लें और नज़्में लिखनी शुरू की। आगरा में एक साल भी नहीं बीता कि उनके पिता का तबादला अलीगढ हो गया। पढ़ाई पूरी करने के मक़सद से मजाज़ कॉलेज के हॉस्टल में रहने लगे। उनकी आज़ाद तबियत यहीं परवान चढ़ी। मजाज़ का ज़्यादातर वक़्त अदबी महफ़िलों में ही गुज़रा।
1931 में बी ए करने के लिए जब वे अलीगढ आये तो यहाँ मंटो,इस्मत चुगताई,अली सरदार जाफरी ,जां निसार अख्तर,सिब्ते हसन जैसी शख्सियतों की संगत में उनकी शायरी और सियासी रुझान को निखरने का पूरा मौका मिला। 1931 तक आते-आते 'अंगारे' के प्रकाशन से रशीद जहाँ और सज़्ज़ाद ज़हीर वामपंथी सोच के लेखकों के बीच ख़ासी लोकप्रियता प्राप्त कर चुके थे। इसी सरगर्म माहौल में मजाज़ ने अपनी मशहूर नज़्म इंकलाब,रात और रेल जैसी मशहूर रचनायें की। वे एम ए की पढ़ाई पूरी किये बिना ही दिल्ली नौकरी करने चले गए, लेकिन साल भर बाद ही लखनऊ लौट आये।
देश में जब साम्राज्यवादी विरोध का स्वर पुख्ता हो रहा था ,प्रगतिशील ताक़तें इकट्ठी हो रही थीं ,मजाज़ की शायरी इसी माहौल में परवान चढ़ रही थी। प्रगतिशील लेखक संघ के गठन और विकास के शुरुआती दौर में उर्दू शायरों और अफ़्सानानिगारों की बहुत बड़ी भूमिका रही है। एक तरफ इक़बाल के गीतों ने देशभक्ति की आत्मा विकसित की तो दूसरी तरफ दिनकर और नवीन जैसे कवियों ने उसमे जान फूँक दी। यह विशेषता हमारी समूची सांस्कृतिक विरासत में दिखाई देती है। प्रेमचंद का ही उदाहरण लें, वे पहले उर्दू के लेखक हैं बाद में हिंदी मे आये। इस बात को बार -बार रेखांकित करने की ज़रूरत है कि उर्दू मुसलमानों की भाषा नहीं,हिन्दुस्तानियों की ज़बान है। भाषा के तमाम साम्प्रदायीकरण के बावजूद उर्दू का सीना खोलकर खड़े रहना इस बात का सबूत है कि तरक़्क़ीपसन्द ताक़तें इस मज़हबी जूनून और बंटवारे की राजनीति को सिरे से नकारती रही हैं।
सन 1931 में 'अंगारे' का प्रकाशन इस दृष्टि से महत्वपूर्ण साबित हुआ कि इसके द्वारा उर्दू दुनिया का मार्क्स से परिचय हुआ। बेशक इस समय की रचनाओं में साहित्यिक उत्कृष्टता नहीं थी लेकिन रचनाकारों की सोच और नज़रिये में महत्वपूर्ण बदलाव आया। इन लेखकों ने सामंती समाज के पिछड़ेपन की ज़ंजीरों के खिलाफ बेड़ियां खनकायीं। पांच साल बाद इन्ही लेखकों द्वारा 'तरक़्क़ीपसन्द तहरीक़' (प्रगतिशील लेखक संघ) की बुनियाद डाली गयी। जल्द ही यह आंदोलन एक मज़बूत और जीवंत आंदोलन बन गया जिसका प्रभाव तेज़ी से फैलता गया। तहरीक़ की लोकप्रियता के कारण उसके वे सरोकार थे जिन्होंने सामंती,रूढ़िवादी सोच पर प्रहार कर प्रगतिशील विचारों और साहित्य के लिए माहौल और ज़मीन तैयार की। मजाज़ इसी माहौल की देन थे। वे प्रगतिशील आंदोलन के ऐसे शख्स थे जिनके सरोकार इस आंदोलन के साथ इस कदर घुल-मिल गए थे कि उनको अलग करके देखना नामुमकिन है।
मजाज़ के कविता संग्रह 'आहंग' की भूमिका लिखते हुए फैज़ ने उन्हें इंक़लाब का ढिंढोरची नहीं, इंक़लाब का मुगन्नी(गायक) क़रार दिया है। उन्होंने इस एक वाक्य से मजाज़ के व्यक्तित्व का परिचय दे दिया है। उर्दू शायरी के तरक्कीपसंद तहरीक़ के में हिन्दुस्तान के पश्चिमी सूबे में लाहौर के अलावा आगरा बड़े केंद्र माने जाते थे। वहीँ पूरबी इलाके मे अलीगढ़,लखनऊ और इलाहाबाद बड़े केंद्र के रूप में देखे जाते थे। ये सरे शहर सियासी सरगर्मियों के अलावा अदबी गहमागहमी के मरकज़ बने हुए थे। फैज़ का मजाज़ से गहरा रिश्ता था। वे दोनों एक ही विचारधारा से जुड़े थे लेकिन अलग-अलग परम्पराओं का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। मजाज़ अपना परिचय और अपनी पक्षधरता स्पष्ट करते हुए कहते हैं-
ब-ई-रिंदी1 'मजाज़' इक शायरे-मज़दूरों-दहकां2 है
अगर शहरों में वो बदनाम है,बदनाम रहने दे
(1. शराबखोरी के बावजूद, २. मज़दूर और किसान का शायर)
मजाज़ ने एक विराट स्वप्न देखा था जिसमे महज़ विदेशी हुक्मरानो से मुक्ति ही नहीं थी बल्कि हर तरह के शोषण-उत्पीड़न,धर्म की पाबंदियों और पिछड़ेपन से मुक्ति की भावना थी। 'ख्वाबे-सहर' उसी सपने की दास्ताँ है। यह बेबाक,खुद्दार,इंक़लाबी शायर दुनिया की चाल-ढाल से अच्छी तरह वाक़िफ़ था,अतिसंवेदनशील था जिसकी संवेदना को जब-तब करारे झटके लगते ही रहते थे। वह इनसे उबरता,संभालता और फिर शायरी और शराब में डूब जाता। इनकी अवसादग्रस्तता का कारण भी इनकी संवेदनशीलता ही थी। कबीर ने कहा है:
सुखिया सब संसार है,खावै और सोवै .
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै
इंसान के 'जागरण' की अभिव्यक्ति पहले उसके रुदन होती है। ख्वाब और हक़ीक़त के बीच का फैसला मजाज़ को मायूस कर देता था। यही मायूसी उनकी शायरी की शक्ल ले लेती। थी हालाँकि मायूसी और अवसादग्रस्तता पर उनकी संकल्पशक्ति भारी पड़ती थी। वे मूलतः एक जज़्बाती इंसान थे। उनके अंदर का दर्द और अकेलापन उनकी ग़ज़लों और नज़्मों के अलग-अलग मिसरों में घुले हुए दिखाई देते हैं।
अली सरदार जाफरी ने 'लखनऊ की पाँच रातें' में लिखा है, 'हमारी बग़ावत का अंदाज़ रूमानी और इन्फ़रादी था, जिसका सबसे हसीन पैकर मजाज़ की दिल-आवेज़ शख्सियत थी। ये पूरी शख्सियत उसकी नज़्म 'आवारा' और 'अँधेरी रात का मुसाफिर' में मौजूद है और उसके बिखरे हुए जलवे उन रातों में नज़र आते हैं, जिनमे से पाँच रातों का इंतेखाब यहाँ पेश किया जा रहा है।' वे आगे लिखते हैं, 'बेशतर तरक्कीपसंद अदीब इस रूमानी मिजाज़ी के दौर से गुजर रहे थे। हमारा ग्रुप एक तरफ तो उस बैरूनी हुकूमत के खिलाफ था, जिसने डेढ़-दो सौ बरस से हमारे मुल्क और क़ौम को ग़ुलाम बना रखा था और दूसरी तरफ उस खानदानी शराफत और रस्मो-रिवाज़ के खिलाफ भी था जो हमारी बेबाक फ़ितरतों को अंगड़ाई नहीं लेने देता था।' मजाज़ की शायरी इसी ग़ुलामी और सामंती जकड़बंदी के ख़िलाफ़ बग़ावत की आवाज़ है:
बढ़के इस इन्दर सभा का साज़ो-सामां फूंक दूँ
इसका गुलशन फूंक दूँ, उसका शबिस्ता फूंक दूँ
तख़्ते-सुल्ताँ क्यां, मैं सारा क़स्रे-सुल्ताँ फूंक दूँ
ऐ ग़मे दिल क्या करूँ, ऐ वहशते-दिल क्या करूँ
मजाज़ एक सच्चे प्रगतिशील शायर थे। उनकी शायरी में तार्किकता,इंसान की गरिमा और उसका जीवन-कर्म, ज़ुल्म का विरोध,धर्म के द्वारा फैलाये गए अँधेरे का विरोध मुखर रूप से दिखाए देते हैं। अन्धविश्वास और धार्मिक रूढ़ियों पर उन्होंने लगातार चोट की-
क़दामत 4 हदें खींचती ही रहेगी
क़दामत की बुनियाद ढाए चला जा
(4- रूढ़िवाद)
'ख्वाबे-सेहर' में तो मजाज़ ने धर्म के परदे में चलने वाले फरेब,शोषण और गैरबराबरी को बेपर्द कर दिया है-
इक न इक दर पर जबीने-शौक5 घिसती ही रही
आदमियत ज़ुल्म की चक्की में पिसती ही रही
रहबरी जारी रही,पैगम्बरी जारी रही
दींन के परदे में जंगे-ज़रगरी 6 जारी रही
(5 -प्रेम भरा माथा, 6 -धन-दौलत की जंग)
मजाज़ ज़िन्दगी से लबरेज़ शख्सियत थे। उनके लतीफों में भी गहरा व्यंग्य छुपा रहता था। एक बार नशे में धुत लड़खड़ाते हुए वे किसी ऐसी गली में पहुँच गए जहाँ मीलाद का जश्न चल रहा था। एकाएक किसी ने उन्हें पहचान लिया और पूछा, "अरे मजाज़ साहब,आप यहाँ? मजाज़ ने तपाक से उत्तर दिया,"हाँ भई, आदमी को रास्ता भटकते देर लगती है क्या?"
मजाज़ की प्रगतिशीलता औरत के प्रति उनके नज़रिये में भी प्रकट होती है। उस दौर में जब सामंती मूलाधार के कारण जीवन के हरेक क्षेत्र पर बंदिशें और पाबंदियां थीं औरत की ऐसी तस्वीर पेश करना निश्चय ही उनकी गहरी लोकतान्त्रिक दृष्टि के कारण ही संभव था। इंक़लाब के रास्ते में वह मर्द के कंधे से कन्धा मिलकर चलती है। वहां वह सजावटी गुड़िया नहीं,उसका स्वतंत्र व्यक्तित्व है जिसे समाज-परिवर्तन की लड़ाई में अपनी ज़िम्मेदारी निभानी है:
"नौजवान खातून से" वे कहते हैं-
तिरे माथे का टीका मर्द की किस्मत का तारा है
अगर तू साजे-बेदारी 7 उठा लेती तो अच्छा था
तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था
(7 -जागृति का साज़)
मजाज़ ने प्रेम के ऊपर जो काव्य रचा उसमे आज़ादी और खुलेपन की तड़प साफ़ दिखाई पड़ती है। उन्होंने हुस्न और इश्क़ पर लगे सामाजिक बंधनो को हटाने के लिए आवाज़ बुलंद की। यहीं उनकी शायरी व्यक्तिगत से सामाजिक का रूप ले लेती है।उन्हें न शायरी की बंदिशें रास आती थीं न ज़िन्दगी की। उनकी नज़्म "आवारा" इश्क़ से इंक़लाब तक की यात्रा है। मजाज़ के राजनीतिक दृष्टिकोण और सामाजिक बदलाव की तड़प में रुमानियत रची -बसी है। व्यक्तिगत दुखों को वे पूरे सामाजिक सन्दर्भ में देखते हैं,इसीलिए उनसे मुक्ति का रास्ता भी उन्हें नज़र आता है। रोमांस और यथार्थ का यही मेल मजाज़ को मजाज़ बनाता है:
मुझे शिकवा नहीं दुनिया की उन ज़ोहराज़बीनों से
हुई जिनसे न मेरे शौक़े-रुसवा 8 की पजीराई 9
ज़माने के निज़ामे-ज़ंग आलूदा10 से शिकवा है
क़वानीने-कुहन,आईने-फरसूदा 11 से शिकवा है
(8 -बदनाम प्रेम, 9-स्वीकार करना, 10-ज़ंग लगी व्यवस्था, 11-पुराने कानूनोंऔर सड़े-गले विधानों से)
मानसिक आघातों और असन्तुलनों के दौर में भी मजाज़ अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के प्रति अडिग रहे। जहाँ कहीं समझौते की बू आई अपने घनिष्ट मित्रों को भी नहीं बख्शा। इसी वैचारिक मजबूती के दम पर वे बार-बार आघातों से उबरते रहे। 1940 से 1945 के बीच उन्हें दो बार दौरे पड़े। 1943 में फासीवाद के विरुद्ध उनका ऐतिहासिक बयान आया जिसकी अंतिम पंक्तियाँ कुछ इस तरह थी: "कोई वजह नहीं कि इंसानियत और तमद्दुन के सबसे बड़े दुश्मन फासीवाद के मुकाबले हम अपनी तलवार म्यान में रख लें। हमारे नग़में आज दोबारा वतन की फ़ज़ाओं में गूंजने चाहिए,ताकि इत्तेहाद,खुद ऐतमादी,सरफ़रोशी और हैरत के जज़्बात से मामूर होकर हम अपने रास्ते से हर उस रूकावट को हटा दें जो अँगरेज़ साम्रराजी हमारी राह में हायल करते हैं;और तमाम दुनिया के अवाम के साथ मिलकर इस जंगे-आज़ादी में इस तरह शरीक हों जो हमारी अज़ीम क़ौम के शायाने- शान हो। "
मजाज़ की शायरी में उनके समय का इतिहास दर्ज़ है। उस समय की आशा-निराशा,जीत-हार, उमंग-मायूसी सभी के रंग वहां मौजूद हैं। गहरी निराशा के दौर में भी मजाज़ ने सुनहरे भविष्य के सपने का दामन नहीं छोड़ा। मजाज़ का मूल्याङ्कन उनके निजी जीवन की कमज़ोरियों और असफलताओं के बजाय उर्दू शायरी में उनके अवदान को केंद्र में रख कर किया जाना चाहिए जिसने तरक्कीपसंद उर्दू शायरी के लिए नए दरवाज़े खोल दिए। उनके जीवन पर आह भरने की बजाय उनके तेवर को देखना चाहिए जिससे हमें भविष्य के लिए ऊर्जा और सीख मिलती है:
जुनूँ के राग गाता हूँ,लहू के अश्क़ रोता हूँ
हमेशा कुश्तगाने-ग़म12 की पहली सफ13 में होता हूँ
मिरे सीने में मुस्तक़बिल14 के जलवे मुस्कराते हैं
मिरी गुफ़्तार सुनकर अहले-दौलत15 काँप जाते हैं
(12-दुखों के मारों की, 13-क़तार, 14-भविष्य, 15-धनवान)
5 दिसंबर, 1955 को यह नौजवान शायर ख़ामोशी के साथ इस दुनिया से रुखसत हो गया। मजाज़ की शायरी आने वाले ज़माने की आवाज़ है। जब तक ज़ुल्म और गैरबराबरी रहेगी उनके गीत फ़िज़ां में गूंजते रहेंगे, उनकी शायरी हौसला बढाती रहेगी। इस इंक़लाबी शायर को इंक़लाबी सलाम!
No comments: