बाजीराव मस्तानी: मिथक और यथार्थ का अंतर्द्वंद


स्वदेश कुमार सिन्हा


हिन्दी सिनेमा के सौ वर्षो के इतिहास में  ऐतिहासिक चरित्रों तथा इतिहास पर आधारित हजारो फिल्मों बनी तथा आज भी बन रही है। सैकड़ो टी0वी0 सीरियल भी बने। हालांकि  ज्यादातर को देखना अपने आप में  निराशाजनक अनुभव होता है। भारतीय सिनेमा में’’टेन कमाण्डेन्ट’’ ’’बेनहर’’ ’’उमर मुख्तार’’ जैसी फिल्में बनाना आज भी कल्पना से परे हैं। ’’इतिवृत्त ’’ मिथको अख्यानो और ऐतिहासिक गल्प का इतिहास लेखन में महत्व जरूर है परन्तु उनकेा फिल्म के रूपहले पर्दे पर उतारना जिससे दर्शको तथा इतिहास दोनो के साथ न्याय हो बहुत जटिल ओैर संशलिस्ट कर्म है।

 सन् साठ के दशक में ऐतिहासिक चरित्रो पर आधारित फिल्म मुगल-ए-आजम ने धूम मचा दी थी, इसमें कितनी कल्पना और यथार्थ का मिश्रण था यह सभी इतिहास के जानकारो को पता है, परन्तु अनारकली ’’दासी पुत्री’’ और सलीम ’’जहाॅगीर’’ का प्रेम और उसके लिए पिता अकबर से विद्रोह दर्शको को छू गया। फिल्मांकन और गीतो ने इसकी अपार सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। हालाकि यह फिल्म भी इतिहास से कही न्याय करती नही नजर आती है।

 ’’संजय लीला भंसाली’’ द्वारा निर्देशित ’’बाजीराव मस्तानी’’ पर्दे पर आने से पहले ही विवादो के घेरे में  आगयी। निःसंदेह यह फिल्म अब तक बनी इतिहासिक फिल्मो से भिन्न है। भारतीय मराठा इतिहास में बाजीराव पेशवा की भूमिका महत्वूपर्ण है। पूना के मराठा पेशवा राजपूत न होकर ब्राम्हण थे, उनके शासन काल में राजतंत्र तथा समाज पर ब्राम्हणो का जबरदस्त प्रभुत्व , तथा हिन्दू वर्ण व्यवस्था जिसमें दलित सबसे निचले पायदान पर थे का कठोरता तथा निर्ममता से पालन एक महत्वपूर्ण तथ्य था। 

पेशवा शासन में दलित तथा अन्य पिछड़ी जातियों  की स्थिति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि, ’’मराठा गौरव’’ के सबसे महान प्रतीक छत्रपति शिवाजी का राज्याभिषेक करने से पूना के ब्राह्मणों ने इस आधार पर इनकार कर दिया था कि वे पिछड़ी जाति के थे। 1857 में अंग्रेजो के ख्लिाफ हुए भारतीय जन विद्रोह के पराजित होने पर महान मराठी दलित समाज सुधारक ज्योतिबा फूले ने हर्ष प्रकट करते हुए कहा था ’’अगर अंग्रेज हार जाते और पेशवा शासन पुनः स्थापित हो जाता तो हमारी स्थिति और भी नारकीय हो जाती। यहाँ पर एक तथ्य और है कि मराठो में मुगलो और राजपूतो की तरह  महलो में स्त्रियों के ’’हरम’’ नही थे। उनमें एक पत्नी प्रथा तो थी परन्तु बिना विवाह किये रखैलो को रखने की इजाजत थी। इसलिए फिल्म में बाजीराव पेशवा का बुन्देल खण्ड के हिन्दू राजा की मुस्लिम बेगम की वीरांगना बेटी मस्तानी से प्रेम तथा विवाह तथा पुत्र का जन्म वर्तमान ब्राम्हणवादी ढ़ांचे  में बड़े विद्रोह से कम न था । ब्राम्हण पेशवा जो कथित रूप से अपनी रक्त शुद्धता के बड़े कायल थे, इसलिए बाजीराव पेशवा की मस्तानी से प्रेम की तुलना मुगल -ए-आजम की अनारकली और सलीम के प्रेम से नही की जा सकती है।

निदेशक ने फिल्म में कल्पना , मिथक ओैर इतिहास का अदभुत सम्मिश्रण किया है। जो इस फिल्म को हिन्दी की इतिहासिक फिल्मो में सर्वश्रेष्ठ बना देता है। इतिहास, वीरता , मजहब ,कर्मकाण्ड ,कट्टरता , धर्म , प्रेम ,त्याग , छल , जीवनोत्सर्ग,उदारता, ओैर उत्कृष्ट मानवीय मूल्यों में अडिग आस्था को इस फिल्म में देखा जा सकता हैं।

बाजीराव की पटरानी यानी काशीबाई के अंतर्द्वंद को जिस शानदार तरीके से प्रियंका चोपड़ा ने पर्दे पर जीवंत किया है उसको यह और प्रभावपूर्ण बनाता है , मस्तानी , दीपिका पादुकोण का शानदार अभिनय जो एक साथ विरांगना कलाकार ,प्रेमिका , पत्नी और मां भी है। अपने जीवन में कोई भी युद्ध न हारने वाला बाजीराव ’’रणवीर सिंह’’ अपनो के हाथो धर्म ,प्रेम ,पति ,पिता,बेटा ,योद्वा ,भाई सेनापति के कर्तब्यों रक्षा करते हुए हार जाना ही उसकी सबसे बड़ी जीत थी।


 निःसन्देह रणवीर सिंह ने अपने जानदार अभिनय से दिग्गजो से पीछे छोड़ दिया है। फिल्म की तकनीकी रूप से भब्यता युद्ध ,नृत्य ,संगीत के रोमांचकारी और भब्य दृश्य शानदार फोटोग्राफी औैर निर्देशन इसे हालीवुड के महान ऐतिहासिक फिलमे के समकक्ष खड़ा कर देता है।

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