अमेरिका में मुसलमान



अमेरिका में मुसलमान
                                                             -डॉ. असगर अली इंजीनियर


वासिंगटन डी.सी. की “अमेरिकन यूनिवर्सिटी“ में शिक्षक, अकबर अहमद, विश्व विद्यालय  “इब्न खल्लादुन इस्लामिक अध्ययन पीठ“ के प्रमुख हैं। वे कई पुस्तकों के लेखक भी हैं। हाल में उनकी एक नई पुस्तक “जर्नी इंटू अमेरीका-द चैलेन्ज ऑफ इस्लाम“ (अमरीका व इस्लाम की चुनौती) प्रकाशित हुई है। अमरीकी मुसलमानों के मैदानी सर्वेक्षण पर आधारित यह पुस्तक, निःसंदेह इस्लाम, मुसलमानों व अमरीका के बारे में कई मिथकों का खंडन करने में सहायक होगी। प्रोफेसर अहमद ने अपने दल के साथ, अमरीका का व्यापक दौरा किया और लगभग हर राज्य में मुस्लिम नेताओं से विचार-विनिमय किया। यह पुस्तक, मैदानी सर्वेक्षण पर आधारित, उच्चस्तरीय अकादमिक कृति है।


प्रो. अहमद प्रषिक्षित मानवषास्त्री हैं और वे यह अच्छी तरह से जानते हैं कि किसी भी समूह या समुदाय व उसके व्यवहार को समझने के लिए उसका किस तरह से अध्ययन किया जाना चाहिए। किसी भी बाहरी व्यक्ति को-जिनमें पश्चमी  विद्वान शामिल हैं-ऐसा लग सकता है कि मुसलमान, एक एकसार धार्मिक समुदाय हैं। उन्हें ऐसा भी लग सकता है कि हर मुसलमान की राजनैतिक व धार्मिक सोच एक सी रहती है, भले ही वह किसी भी देश का निवासी हो और किसी भी नस्ल या कबीले का हो। इस तरह का गैर-यथार्थवादी दृष्टिकोण, मुस्लिम समुदाय की विभिन्नता व इस्लाम की अलग-अलग व्याख्याओं को समझने की राह में रोड़ा है।  


जब विद्वानों व प्राध्यापकों के ये हाल हैं तो हम आम आदमी को ऐसा सोचने के लिए कैसे दोषी ठहरा सकते हैं? इस तरह के सर्वेक्षण-आधारित अध्ययन ही दुनिया को यह विस्वास दिला सकते हैं कि मुसलमानों में भी उतनी ही विभिन्नताएं व विविधताएं हैं, जितनी की किसी अन्य धार्मिक समुदाय में। उम्मत वह्दत (एक ही पैगम्बर को मानने वाले लोगों की एकता) जैसे नारों के बावजूद, पैगंबर साहब की मृत्यु के बाद से ही, मुसलमानों में धार्मिक व राजनैतिक विभिन्नताएं घर करने लगी थीं। जब मुसलमान अरब-जहाँ इस्लाम का उदय हुआ था-में भी एकसार नहीं रह पाए तो वे तब कैसे एकसार रह पाते, जब इस्लाम चीन, भारत, मध्य एशिया, सुदूर पूर्व व यूरोप जैसे दूर-दराज के क्षेत्रों में फैल गया। इन क्षेत्रों की सभ्यता, भाषाएं, नस्लें व कबीले बिलकुल अलग-अलग थे। 


यह सही है कि उम्मत वह्दत जैसे नारे, सैद्धांतिक तौर पर बहुत आकर्षक जान पड़ते हैं परंतु सिद्धांत और व्यवहार में हमेषा बहुत अंतर रहता है। सैद्धांतिक तौर पर, धर्म, आदर्षों व मूल्यों  का प्रतिनिधित्व  करता है परंतु यथार्थ हमेषा आदर्षों व मूल्यों को प्रतिबिंबित नहीं करता। मानव व्यवहार केवल आदर्षों व मूल्यों से संचालित नहीं होता। मानव अपने राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, भाषायी व अन्य हितों की पूर्ति के लिए, आदर्षों व मूल्यों की राह से भटक जाता है। यही कारण है कि मुस्लिम समुदाय कभी एकसार नहीं बन सका। इस तथ्य को प्रो. अहमद की पुस्तक में अत्यंत तार्किक व विष्वसनीय तरीके से रेखांकित किया गया है। 

अमरीका कई अर्थों में एक अद्वितीय देश है। दुनिया के अनेक देशो के निवासियों ने उसे अपना घर बनाया है। प्रवासियों के अमरीका में बसने के पीछे अलग-अलग कारण हैं। कुछ बेहतर जीवनस्तर की तलाश में अमरीका आए हैं तो कुछ अपने मूल देश में उत्पीड़न से बचने के लिए। दुनिया में शायद ही मुस्लिम रहवासियों वाला कोई भी ऐसा देश होगा, जिसके नागरिकों ने अमरीका में अपना डेरा न जमाया हो। यही कारण है कि अमरीका में मुसलमानों में जितनी विविधता है, उतनी शायद ही किसी अन्य देश में हो। यह पुस्तक पढ़ने के बाद तो मुझे लगा कि अमरीका में मुसलमानों की विविधता, सचमुच सिर चकरा देने वाली है। 


यह मानना अनुचित होगा कि अमरीका के सभी मुसलमानों का आतंकवाद के बारे में एक सा दृष्टिकोण हैं या यह कि वे सभी इस्लाम की विभिन्न व्याख्याओं के बारे में एक सी सोच रखते हैं। इस्लाम के लगभग सभी पंथों-वहाबी, तब्लीगी, अह्ले हदीथ, शिया, इस्माईली, बोहरा व सुन्नी- के मुसलमान, बेहतर जीवन जीने के लिए अमरीका में रह रहे हैं। पुस्तक में दिए गए विभिन्न साक्षात्कारों से साफ है कि अमरीका में इस्लामिक दुनिया के सभी पंथों का प्रतिनिधित्व है। एशियाई व अफ्रीकी देशो से अमरीका आए इन मुसलमानों की एक समस्या है, उनका दोहरा राष्ट्रवाद। अपना देश छोड़कर अमरीका में बसने वाला हर व्यक्ति अपनी मूल राष्ट्रीय सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ा रहता है। साथ ही, उसे अमरीकी संस्कृति को भी अपनाना पड़ता है। पहली पीढ़ी के प्रवासियों के लिए यह काम बहुत कठिन होता है। आगे आने वाली पीढ़ियाँ, धीरे-धीरे अपने मूल देश की संस्कृति से पूरी तरह कट जाती हैं। यह परिवर्तन बहुत सहज नहीं होता। मुसलमानों की दो पीढ़ियों के बीच इस परिवर्तन के कारण उपजा तनाव भी साक्षात्कारों में स्पष्ट झलकता है। 



अमरीकी पहचान भी बहुत महत्वपूर्ण है। और लेखक, पुस्तक के पहले ही अध्याय में इस पर चर्चा करता है।  पहचान की हमारे जीवन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। पहचान का संबंध भावनाओं से होता है। पहचान एक जटिल अवधारणा है, जो हमारी भाषा, संस्कृति, नस्ल, परंपराओं व प्रथाओं से गुंथी होती है। अपनी पुरानी पहचान को त्यागकर नई पहचान अपनाना बहुत मुस्किल होता है। अमरीका में सबसे पहले यूरोप से आए प्रवासी बसे। इन प्रवासियों के लिए नई अमरीकी पहचान अपनाना अपेक्षाकृत आसान था क्योंकि यद्यपि वे भिन्न भाषा-भाषी व अलग-अलग सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों से थे तथापि वे सभी यूरोपीय व प्रोटेस्टेंट ईसाई थे। चूंकि वे सब प्रोटेस्टेंट यूरोपियन थे इसलिए उनके लिए पहचान का “मेल्टिंग पाँट“ माडल अपनाना आसान था, अर्थात अलग-अलग पहचानों के एक-दूसरे में घुलने-मिलने से एक नई, संयुक्त अमरीकी पहचान का उदय। 



अफ्रीकी व एशियाई देशो से आए प्रवासियों के लिए यह करना इतना आसान नहीं था। वे ईसाई नहीं थे, यूरोपियन नहीं थे और उनकी त्वचा का रंग एकदम अलग था। उनकी संस्कृति भी अमरीकी संस्कृति से बिलकुल जुदा थी। चूंकि वे अपनी मूल पहचान को पिघला कर, अमरीकी पहचान में उस तरह मिला नहीं सके जैसा कि यूरोपियनों ने किया था इसलिए एक नई शब्दावली अस्तित्व में आई। वे अफ्रीकी-अमरीकी, भारतीय-अमरीकी, पाकिस्तानी-अमरीकी, चीनी-अमरीकी, कोरियाई-अमरीकी आदि कहलाने लगे। यह एक अर्थ में अधिक यथार्थवादी व प्रजातांत्रिक वर्गीकरण था। अतः, अमरीका में रहने वाले मुसलमान को मात्र अमरीकन कहना पर्याप्त नहीं होता। वे सऊदी-अमरीकी, ईरानी-अमरीकी आदि कहलाते हैं। निःसंदेह सऊदी अरब, ईरान व मिस्त्र आदि में ईसाई, यहूदी व अन्य धर्मों के लोग भी रहते हैं परंतु उनकी आबादी इतनी कम है कि सऊदी अमरीकी या ईरानी-अमरीकी शब्दों का अर्थ अमरीका में रहने वाले सऊदी अरब या ईरान का मुसलमान समझा जाता है। 

पुस्तक का पहला खंड, अमरीकी पहचान के बारे में है व दूसरा खंड है “अमरीका में इस्लाम“। दूसरे खंड का चौथा अध्याय, अफ्रीकी-अमरीकियों पर केन्द्रित है। अफ्रीकी मुसलमान, अमरीका में बसने वाले पहले मुसलमान थे। वे अमरीका में सदियों से रह रहे हैं। यहाँ तक कि वे अपनी अफ्रीकी जड़ों को पूरी तरह भुला चुके हैं। यही कारण है कि जब एक अफ्रीकी-अमरीकी ने लंबे व कठिन अनुसंधान के बाद अपनी अफ्रीकी जड़ों को खोज निकाला और अपने इस सफल प्रयास पर एक पुस्तक लिखी तो यह पुस्तक जम कर बिकी। यह इसी बात का सुबूत है कि मानव को अपनी मूल जड़ो, अपनी मूल पहचान से कितना लगाव होता है। इससे ही हम यह कल्पना कर सकते हैं कि हाल में अमरीका में बसे प्रवासियों की क्या स्थिति होगी। 

पुस्तक के तीसरे खंड में प्रवासियों के अपने नए परिवेश से सामंजस्य स्थापित करने व उसके अनुरूप स्वयं में परिवर्तन लाने के संघर्ष की कथा है। इस खंड में तीन अध्याय हैं जिनमें यहूदी, मुसलमान व अमरीकन होने के निहितार्थ पर चर्चा है। लेखक व उसका सर्वेक्षण दल, विभिन्न मुस्लिम समूहों के नेताओं के अलावा मस्जिदों के इमामों से भी मिला। अधिकतर मुलाकातें रेस्टोरेन्टों में लंच या डिनर पर हुईं या फिर मस्जिदों में। एक नमूना देखिए। इमाम फतीन सिफुल्लाह, लॉस वेगास (जिसे लेखक उसके जुएं के अड्डों के कारण पाप-नगरी कहते हैं) की सबसे पुरानी मस्जिद के मुखिया हैं। वे बताते हैं कि अस् सबूर नामक इस मस्जिद में मोहम्मद अली व माईक टाईसन सहित कई जानी-मानी हस्तियां आती हैं। माईक टाईसन तो मस्जिद में नमाजियों के लिए बिछाई जाने वाली दरियों की सफाई में भी हाथ बंटाते हैं।

इमाम फतीन एक आकर्षक व्यक्तित्व के धनी हैं। उनके व्यक्तित्व से मानो उर्जा उत्सर्जित होती रहती है। इमाम मुस्तफा की तरह वे एक ऐसे बुद्धिजीवी लगते हैं जो अपनी आध्यात्मिक जिज्ञासाओं के समाधान के लिए, रेगिस्तान में रह रहा हो। लेखक, फतीन की एक दिलचस्प आपबीती बताते हैं। एक बार फतीन, कुछ अन्य अफ्रीकी-अमरीकी मुसलमानों के साथ एक शेख से मिलने पहुंचे। वे पारंपरिक मुस्लिम वेषभूषा में थे। शेख ने पूछा,  “अमरीकन कहां हैं?“ “हम लोग ही अमरीकन हैं,“ फतीन ने जवाब दिया। इस पर शेख ने कहा कि फिर वे लोग मोरक्कन वेशभूषा में क्यों हैं? “अपने अमरीकन होने के तथ्य को प्रदर्षित करो। अमरीकन बनो।“ 

अकबर अहमद ने पूरे अमेरिका में घूम-घूम कर वियतनामी, चीनी व कंबोडियाई मुसलमानों जैसे छोटे समुदायों के अलावा बड़ी मुस्लिम आबादी वाले देशो जैसे इंडोनेषिया, मलेषिया, थाईलैंड, भारत, पाकिस्तान व अरब और अफ्रीकन देशो के मुस्लिम प्रवासियों से चर्चा की। इस चर्चा से यह स्पष्ट उभरकर आया कि विभिन्न देशो के मुसलमानों के अलग-अलग दृष्टिकोण व अलग-अलग चिंताएं हैं। यह पुस्तक, इस मिथक का पुरजोर खंडन करती है कि अमेरिका के सभी मुसलमान, ओसामा-बिन-लादेन के प्रशंसक हैं या अल् कायदा का समर्थन करते हैं।

मुसलमानों की नई पीढ़ी पर अमरीका का रंग चढ़ गया है और पुरानी पीढ़ी के मुस्लिम प्रवासी इससे परेशान हैं। उन्हें डर है कि वे अपनी भाषा और संस्कृति को हमेशा के लिए खो बैठेंगे। वे चाहते हैं कि युवा पीढ़ी अपनी मूल संस्कृति व भाषा को सीखे-जाने। इस अध्ययन से यह भी साफ है कि स्वेत अमरीकी, उतने धर्मनिरपेक्ष व उदारवादी नहीं हैं जितना कि हम उन्हें समझते हैं। अनेक साक्षात्कारों से पता चलता है कि अमरीकी जीवन शेली में स्वयं को ढ़ाल लेने के बावजूद, मुसलमानों को किस तरह के भेदभाव का सामना करना पड़ता है। उन पर हिंसक हमले भी होते हैं और कुछ युवा मुसलमानों ने इन हमलों का प्रतिकार करने के लिए हथियारबंद गिरोह भी बना लिए हैं।

यह पुस्तक, अमेरिकी मुसलमानों पर एक गंभीर व तथ्यपरक अध्ययन है। यद्यपि लेखक जाने-माने मानवशात्री  हैं तथापि उन्होंने क्लिष्ट शब्दावली के उपयोग से बचते हुए, पुस्तक ऐसी भाषा में लिखी है जिसे आम आदमी भी समझ सके। 

 (लेखक मुंबई स्थित सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म के संयोजक हैं, जाने-माने इस्लामिक विद्वान हैं और कई दशकों से साम्प्रदायिकता व संकीर्णता के खिलाफ संघर्ष करते रहे हैं।) 


1 comment:

  1. सुंदर निचोड़ पुस्तक का बहुत से मिथक तोड़ता हुआ

    ReplyDelete