संघ के विचारों को ही स्वर दे रहे थे सुदर्शन

संघ के विचारों को ही स्वर दे रहे थे सुदर्शन 

                                                                                                                        -राम पुनियानी


सार्वजनिक जीवन में हम कई बार ऐसी बातें सुनते हैं जो अषिष्ट, गरिमाहीन व मुँह का स्वाद कसैला कर देने वाली होती हैं। आर.एस.एस. के पूर्व सरसंघचालक के. सुदर्षन का बयान (नवंबर 2010) इसी श्रेणी में आता है। सुदर्शन  ने कहा कि श्रीमती सोनिया गाँधी विदेशी  एजेन्ट हैं, उनकी अपनी सास व पति की हत्याओं में भूमिका थी व यह भी कि राजीव गाँधी उनसे संबंध विच्छेद करना चाहते थे। मीडिया के बड़े हिस्से ने सुदर्शन के गैर-जिम्मेदाराना वक्तव्यों को कोई अहमियत नहीं दी और केवल चंद स्तंभकारों ने उन्हें टिप्पणी करने के लायक समझा। कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्षन किए। कुछ लोगों ने अदालतों में मामले भी दायर किए। आर.एस.एस. ने सुदर्शन  के इन वक्तव्यों से स्वयं को दूर कर लिया। संघी पृष्ठभूमि वाले भाजपा नेता तरूण विजय ने यह घोषणा की कि सुदर्शन के आरोपों से भाजपा का कोई लेना-देना नहीं है। 
दिलचस्प बात यह है कि उनके वक्तव्यों से भाजपा को अलग करते हुए भी, तरूण विजय,सुदर्शन की बुद्धिमत्ता व विद्वता   की तारीफ करना नहीं भूले। 
कुल मिलाकर, संघ परिवार के लगभग सभी सदस्यों ने सुदर्शन के वक्तव्यों से स्वयं को अलग तो कर लिया परंतु अपने पूर्व प्रमुख व संघ के सबसे पुराने नेताओं में से एक की उन्होंने आलोचना भी नहीं की। और तो और, सुदर्शन की विद्वता की शान में कसीदे भी गाये  गए।  
संघ परिवार द्वारा सुदर्शन की आलोचना न करने में कुछ भी आष्चर्यजनक नहीं है। सुदर्शन की जुबान नहीं फिसली थी। उन्होंने जो कुछ कहा, संघ उसमें विश्वास करता है, उसे सही मानता है और इसीलिए, संघ ने सुदर्शन की निंदा नहीं की। 
कुछ लोग सुदर्शन के वक्तव्यों को एक कुंठित बूढे़ की बकवास भले ही मानें परंतु सच यह है कि सुदर्शन के उद्गार, दरअसल, आर.एस.एस. की सोच को प्रतिबिंबित करते हैं। ये संघ के ही विचार हैं।  
समाज को सांप्रदायिक चश्मे  से देखना, आर.एस.एस. की मूल विचारधारा का महत्वपूर्ण अंग है। सांप्रदायिक चश्मे  झांकने पर लोगों की भौतिक व अन्य आवष्यकताएं केवल और केवल धर्म के दृष्टिकोण से दिखलाई देती हैं। इस विचारधारा के अनुसार, सभी हिन्दुओं के हित एक से हैं व इसी तरह, सभी मुसलमानों व ईसाईयों के भी एक से हित हैं। चूंकि हर समुदाय के हित एक से हैं अतः जाहिर तौर पर, अलग-अलग समुदायों के हित अलग-अलग हैं। यह विचारधारा कहती है कि अलग-अलग समुदायों के हित न केवल एक दूसरे से अलग हैं वरन् एक-दूसरे के विरोधाभासी व विपरीत भी हैं।  

इस विचारधारा के अनुसार, एक हिन्दू उद्दोगपति व हिन्दू भिखारी के हित समान हैं! मुस्लिम जमींदारों और मुस्लिम सफाई कर्मियों के हित एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसी तरह, अगर हम इस विचारधारा के पैरोकारों की मानें तो पुराने समय में हिन्दू राजा और हिन्दू गरीब शुद्र ,  किसान एक ही नाव में सवार थे। प्राचीन व मध्यकालीन भारत में पूरा हिन्दू समुदाय एक था और अन्य समुदायों से सतत संघर्षरत था। सारे हिन्दू राजा एक दूसरे से अतिषय प्रेम करते थे और शूद्रों और हिन्दू गरीब किसानों को अक्सर अपने महलों में खाने पर निमंत्रित करते रहते थे। 

सांप्रदायिक विचारधारा- चाहे वह किसी भी धर्म से संबद्ध हो- समाज को ऊपर से नीचे की ओर विभाजक रेखाएं खींचकर, हिस्सों में बाँटती है। वह समाज के विभिन्न आर्थिक स्तरों- धनी, मध्यम, निम्न व अति दरिद्र- को मान्यता नहीं देती। उसके अनुसार महत्व केवल धर्म-आधारित लंबवत विभाजन का है, आर्थिक स्थिति पर आधारित क्षैतिज विभाजन का नहीं। यह विचारधारा पहचान से जुड़े मुद्दों पर जोर देती है और दुनियावी समस्याओं को नजरअंदाज करती है। सामाजिक व आर्थिक कारकों से जन्मी अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था से इस विचारधारा को कोई लेना-देना नहीं है। धर्म के नाम पर, जन्म-आधारित विषेषाधिकारों का संरक्षण इस विचारधारा का लक्ष्य है। चूंकि धर्म, आस्था और विष्वास पर  आधारित होता है इसलिए एक शक्तिशाली  शस्त्र के रूप में उसका इस्तेमाल करना आसान होता है। यह उपयोग सकारात्मक भी हो सकता है और नकारात्मक भी। सांप्रदायिक संगठन, धर्म का दुरूपयोग जनोन्माद भड़काने के लिए करते हैं ताकि वे अपने राजनैतिक हित सिद्ध कर सकें। धर्म-आधारित राजनीति के सभी खिलाड़ी यही खेल खेलते हैं। 

भारत में मुस्लिम व हिन्दू - दोनों  सांप्रदायिक धाराएं - उस प्रजातांत्रिक धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के विरोधस्वरूप उभरीं, जो सभी भारतीयों को एक निगाह से देखती थी। सांप्रदायिक राजनीति को समर्थन मिला श्रेष्ठि वर्ग से, जमींदारों से, राजाओं-नवाबों व उनसे जुड़े पुरोहित वर्ग से और षहरी मध्यम वर्ग से। सतही तौर पर देखने से ऐसा लग सकता है कि विभिन्न सांप्रदायिक विचारधाराएं परस्पर विरोधी हैं परंतु सच यह है कि उन सभी की जडे़ं एक हैं, उनके मूल्य समान हैं व वे एक से तर्कों व सोच से संचालित होती हैं। इन विचारधाराओं के पोषक व प्रणेता अक्सर उच्च सामाजिक हैसियत वाले लोग होते हैं जो केवल पहचान से जुडे मुद्दों की बात करते हैं। इसके विपरीत, दो जून की रोटी कमाने के लिए संघर्षरत वर्ग, अपनी दुनियावी समस्याओं में उलझा रहता है। 

इस वैचारिक भिन्नता की झलक हम गौतम बुद्ध की  षिक्षाओं में देख सकते हैं। गौतम बुद्ध ने जाति प्रथा की खिलाफत की। वे समाज के दुख-दर्द, वंचित वर्गों  की तकलीफों की बात करते थे। उनके प्रभाव को कम करने के लिए, योजनाबद्ध ढंग से दुनिया को माया बताने का अभियान चलाया गया (जगत मिथ्या, ब्रम्ह सत्यम)। बौद्ध धर्म पर हमला, आर्थिक षोषण पर आधारित जातिप्रथा के मजबूत होने का प्रतीक भी था। मध्यकाल में अधिकांष शासकों ने- चाहे वे किसी भी धर्म के क्यों न रहे हों- पुरोहित वर्ग को संरक्षण दिया (हिन्दू राजाओं के मामले में राजगुरू, मुस्लिम बादशाहों के दरबारों के शाही इमाम और यूरोप में राजाओं व पोप के बीच संधियां)। पुरोहित वर्ग, हमेशा  से यथास्थितिवादी व कर्मकांडी रहा है। 

इसके विपरीत, सभी धर्मों के संतो ने धर्मों में निहित नैतिक मूल्यों पर जोर दिया और इन नैतिक मूल्यों से सभी धर्मों के लोगों को एक सूत्र में पिरोने की कोषिष की। संतों की इहलोक की समस्याओं की ज्यादा चिंता थी, परलोक की कम। कबीर कहते हैं “पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहाड़“। कबीर के अनुसार, भगवान की मूर्ति से चक्की ज्यादा महत्वपूर्ण है। वे मुल्ला को भी नहीं बक्शते जो मस्जिद पर चढ़ कर चिल्ला-चिल्ला कर लोगों को मस्जिद में बुलाता है। षोशकों व शोषितों के हितों का विरोधाभास, पुरोहित वर्ग व संतों की षिक्षाओं में अंतर से साफ हो जाता है। 

हमारे देश  की आजादी की लड़ाई के दौरान, हिन्दू व मुस्लिम सांप्रदायिक संगठनों ने एकसा दृष्टिकोण अपनाया। दोनों ने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग नहीं लिया और दोनों ने स्वतंत्रता आंदोलन के साथ हो रहे सामाजिक परिवर्तन का विरोध किया। मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा व आर.एस.एस. स्वाधीनता आंदोलन से इसलिए दूर रहे क्योंकि इस आंदोलन का उद्देष्य केवल अंग्रेजी राज से छुटकारा पाना नहीं था। इसका लक्ष्य देश में सामाजिक, आर्थिक व लैंगिक न्याय का सूत्रपात करना भी था

इस पृष्ठभूमि में सोनिया गांधी के प्रति आर. एस. एस. के बैरभाव को समझा जा सकता है। अपनी मुख्य प्रतिद्वंदी पार्टी के षीर्ष पर विराजमान सोनिया गांधी में संघ एक भारतीय नागरिक को नहीं देखता, वह एक ईसाई महिला को देखता है। संघ की विचारधारा में रचे-बसे सुदर्शन  की सोनिया गांधी के बारे में टिप्पणियां, आर. एस. एस. की सोच का प्रकटीकरण मात्र हैं। सुदर्शन  लगभग पांच दशकों से संघ से जुड़े हुए हैं और दस वर्ष तक संघ के प्रमुख रहे हैं। भला संघ की सोच को उनसे बेहतर कौन जान सकता है? 

उन साम्प्रदायिक संगठनों, जिनका लक्ष्य धर्म-आधारित राज्य की स्थापना है, की असली सोच और उसके प्रकटीकरण के बीच अंतर होना अवष्यंभावी है। आर. एस. एस. का लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र की स्थापना है और अपने इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए वह भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त प्रजातंत्र का इस्तेमाल करना चाहता है। स्पष्टतः ऐसा करने के लिए उसे अत्यंत सावधानी व धूर्तता से काम लेना पड़ता है। संघ के स्वयंसेवक वही और केवल वही कहते हैं जो संघ चाहता है, परंतु संघ उनके वक्तव्यों का खुलकर अनुमोदन नहीं कर सकता क्योंकि इससे प्रजातंात्रिक मान्यताओं का हनन होगा। गांधी हत्या (नाथूराम गोड़से), पास्टर स्टेन्स की हत्या (दारासिंह), मंगलौर पब कांड (श्रीराम सेने) आदि जैसे मामलों में भी ठीक यही हुआ था। आर. एस. एस. प्रजातंत्र को खत्म करना चाहता है परंतु वह ऐसा कह नहीं सकता। इस समस्या से निपटने के लिए संघ की रणनीति यह है कि उसके समर्थक व कार्यकर्ता जब भी कोई विवादास्पद बात कहते हैं या कोई गैर-कानूनी हरकत करते हैं तो संघ ऊपरी तौर पर स्वयं को उनसे अलग कर लेता है परंतु उनके प्रति पूरे सम्मान के साथ!


 (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।) 
                


  

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