बाल मन,शिक्षा और साम्प्रदायिकता


[युवा संवाद के साथी ताहिर का एक निजी अनुभव हम यहा आप सभी साथियो के साथ साँझा कर रहे है. साम्प्रदायिकता का जहर आज हमारे समाज का सहजबोध बनता जा रहा है जोकि हमारी सांझी संस्क्रति के लिये एक बड़ा खतरा है.]
बाल मन,शिक्षा और साम्प्रदायिकता 
- ताहिर अली
एक दिन मैं भोपाल के नेहरू नगर स्कूल की कक्षा में पहुंचा तो एक बच्चे ने पूछा कि सर आप मुसलमान हो ना ? तभी तुरन्त एक लड़की सोनिका बोली ”हट ! भैया तो हिन्दू है।” इस पर मैने अजय से पूछा कि तुम्हे कैसे पता चला कि मैं मुसलमान हू ? अजय बोला सर आपका नाम अली है ना और अली मुसलमान होते हैं। सोनिका ने फिर कहा कि नही अली हिन्दू होते है और दोनो मेरे हिन्दू-मुसलमान होने पर बहस करने लगे। तब मैने दोनां को चुप किया और पूछा अच्छा बताओ हिन्दू अच्छे होते हैं या मुसलमान ? मुकर्रम को छोडकर सारे बच्चों ने कहॉ हिन्दू। मैने पूछा क्यों मुसलमान अच्छे क्यों नही होते हैं ? इस सवाल के जवाब में कोई भी बच्चा नही बोला।

अब मैने कहा अच्छा बताओ क्या कभी ऐसा होता है कि मुकर्रम के घर रात होती है और अजय के घर दिन? सारे बच्चे हॅंसने लगे और कहॉ नही वो तो एक साथ रात होती है। मैने फिर कहा अच्छा मानलो अजय का और मुकर्रम का घर पास-पास है और पानी बरसेगा तो क्या केवल अजय के घर पानी बरसेगा,मुकर्रम के घर पर नही ? तब सारे बच्चों ने कहॉ-नही सर दोनो के घर पानी गिरेगा। 

अब मैने कहॉ देखो सूरज तो हिन्दू-मुसलमान नही मानता, बादल भी दोनो के घर पानी बरसाता है फिर हम लोग क्यों हिन्दू-मुसलमान या छोटा-बड़ा मानते हैं ? हिन्दू-मुसलमान होने से पहले हम लोग इन्सान है। तब एक साथ बच्चों ने कहॉ हॉं सर। तभी अजय बोला पर सर वो अल्लाह से मॉंगते हैं,अल्लाह का नाम लेते हैं। मैने फिर कहॉ अच्छा हमने पहले पर्यायवाची शब्द पढ़े थे याद है ? सारे बच्चों ने एक साथ कहॉं हॉं सर याद है। हालांकि उसमें से ६० प्रतिशत बच्चे ऐसे थे जिन्हे पर्यायवाची शब्द नही आते थे या वे भूल चुके थे।
मैने पूछा अच्छा बताओ घर को और क्या कहते हैं? इस पर सोनिका ने कहा एक तो मकान कहते हैं इतने में मोहिनी बोली भवन भी कहते हैं। मैने कहा बिल्कुल ठीक जैसे घर को लोग अलग-अलग नाम से जानते हैं वैसे ही कुछ लोग भगवान कहते है कुछ रब, कुछ अल्लाह,खुदा या गॉड कहते हैं पर सब कुल मिलाकर होता तो एक ही है ना भले ही नाम अलग-अलग हों। क्या घर को मकान कह देने से वो बदल जायेगा या छोटा हो जायेगा? वैसे ही लोग भगवान को अलग-अलग नाम से पुकारते हैं। सारे बच्चे चुप हो गए। मैने फिर पूछा अच्छा अब बताओ कोन अच्छा होता है? तब सबसे पहले अजय बोला सर दोनो अच्छे होते हैं। बाद में सारे बच्चों ने कहॉ हॉं सर दोनो अच्छे होते हैं।

इस उपरोक्त उदाहरण के अलावा और भी ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि बच्चों के बालमन में जाति या सम्प्रदाय को लेकर कितनी संकीर्णता भरी है। चिंता यह नही है कि बच्चों के मन में यह सब कहॉ से आया ? आज का दौर ही इतना उन्मादी, तनावग्रस्त और साम्प्रदायिक है कि बच्चों के मन में इस तरह के खयाल आना कोंई आश्चर्य की बात नही है। बल्कि चिंता का विषय यह है कि बच्चों के बालमन की इस संकीर्णता को दूर करने के,और क्या प्रयास हमारे विद्यालयों या घरों में किये जा रहे हैं? क्या शिक्षक कभी इस विषय को गंभीरता से लेते हुए इसके परिवर्तन हेतु प्रयास करते हैं?

असल में ऐसे भी कई उदाहरण हैं जिनमें खुद शिक्षक ऐसे बच्चों की पैरवी करते नजर आते हैं जिनके मन में इस तरह की साम्प्रदायिक संकीर्णता है और यह पैरवी वह भरी कक्षाओं में करते हैं। इस पैरवी का क्या असर होता होगा उन चंद बच्चों पर जो मुस्लिम या अन्य कोंई छोटी जाति का होने के कारण शिक्षक और बाकि बच्चों की हीन भावना का शिकार होते हैं? ऐसे बच्चों को अन्य बच्चे हमेशा अपने से छोटा और हीन मानते हैं और खुद बच्चा भी अपने आप को औरों से कमतर समझने लगता है। यह सोंच दोनों बच्चों में निरंतर बलवती होती जाती है और असल जिंदगी में इसके भयानक परिणाम सामने आते हैं।

इस तरह की सोंच सरकारी विद्यालयों में तो जाने-अनजाने आ जाती है किन्तु और गहराई से देखें तो पायेंगे कि इस सोंच या इस तरह की सोचवाले बच्चों की ज्यादा से ज्यादा संख्या बढ़ाने के लिये बाइज्जत बड़े-बड़े स्कूल चलाए जा रहे हैं जहॉं मुस्लिम बच्चों के प्रवेश प्रतिबंधित हैं। क्या कर रही है हमारी तथाकथित धर्मनिर्पेक्ष सरकार या हमारा शिक्षातंत्र?

हमारी शिक्षातंत्र के अधिकारी या जनता द्वारा चुने प्रतिनिधि समय-समय पर ऐसे विद्यालयों का गुणगान करते हैं और उन्हे भारतीय संस्कृति का पोषक और रक्षक बताते हैं। क्या एकदूसरे के जहन में नफरत और हीन भावना को बढ़ाना ही हमारी संस्कृति है? यदि ऐसा है तो हमें अपनी संस्कृति के लिये पुनर्विचार करने की जरूरत है।     
 

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