आर. एस. एस. और व्यवसायी वर्ग

(6 दिसंबर 1992 - संघ परिवार की भीड़ ने बाबरी मस्जिद को गिरा दिया। इसके लगभग दो साल पहले से उन्होंने राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन के नाम पर जो भयावह सांप्रदायिक उत्तेजना पैदा की वह इस घटना के बाद भी लंबे समय जारी रही। उसी पृष्ठभूमि में इस लेखक ने काफी शोध करके सन् 1993 में एक किताब लिखी - आरएसएस और उसकी विचारधारा। इस किताब के दो संस्करण नई दिल्ली से नेशनल बुक सेंटर से प्रकाशित हुए और बाद में राधाकृष्ण प्रकाशन से छपती रही है। 

तब से अब तक गंगा में काफी पानी बह चुका है। सच यह है कि रामजन्म भूमि आंदोलन के रथ पर सवार होकर ही 1998 और 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी। और उस सरकार की सबसे बड़ी कीर्ति सन् 2002 में सामने आई जब गुजरात के जनसंहार ने सारी दुनिया के सामने भारत के सर को हमेशा के लिये झुका दिया। 
बहरहाल, बाबरी मस्जिद को ढहाने और 2002 के गुजरात दंगों की तरह के अक्षम्य अपराधों के दोषी भारतीय जनता पार्टी और उसका सरगना आरएसएस आज गुजरात जन-हत्या के नायक को ही सामने रख कर आगामी लोक सभा चुनाव में उतर रहे हैं। 
जिस समय हमने किताब लिखी, उसकी पृष्ठभूमि में बाबरी मस्जिद की घटना थी, उस किताब का मकसद था - आरएसएस की तरह के एक रहस्यमय संगठन के पूरे सच को उजागर करना। इसीलिये आज भी उस किताब की उपयोगिता कम नहीं हुई है।  इधर मोदी के नाम से जो एक खास प्रकार की परिघटना दिखाई पड़ती है, वह उस किताब के निष्कर्षों की पुष्टि ही करती है। फिर भी मोदी से जुड़े घटनाक्रम को भी विश्लेषित करते हुए इस विषय के अध्ययन को अद्यतन बनाया जा सकता है। आने वाले दिनों में इसकी कोशिश करूंगा, और अपनी किताब के नये संस्करण में इस परिघटना को भी समेटने की कोशिश करूंगा। लेकिन फिलहाल, अपने फेसबुक के मित्रों के लिये उस किताब का एक अध्याय - आरएसएस और व्यवसायी वर्गदे रहा हूं। नरेन्द्र मोदी से जुड़ी कई बातों को समझने के अनेक सूत्र इससे मिल सकते हैं। ) 

अरुण माहेश्वरी


आर. एस. एस. और व्यवसायी वर्ग




व्यवसायियों के साथ आर एस एस का हमेशा एक गहरा सम्बन्ध देखा जाता है। बिल्कुल शुरू के दिनों में ही गोविन्द सहाय ने अपनी पुस्तक में इस पहलू पर थोड़ा प्रकाश डाला था। उन्होंने क्लर्कों के साथ ही मयमवर्गीय दुकानदारों के आर एस एस की ओर आकर्षित होने के एक मनोवैज्ञानिक कारण की बात कही थी। उन्होंने लिखा था कि ये वर्ग दमित आकांक्षाओं से पीडि़त एक हद तक निराश तबके होते हैं और हमेशा शक्तिशाली बनने की कामना करते हैं। आर एस एस की तरह का संगठन उनके सपाट और ढर्रेवर जीवन में थोड़ा वैविध्य ला देता है, पारिवारिक जीवन की निराशाओें और दमित वासनाओं से उत्पन्न शून्य को थोथी बहादुरी और सैनिक आचरण से एक हद तक भरा करता है, इसीलिए वे सहज ही इस संगठन की ओर आकर्षित हो जाते हैं।


हिन्दू संस्कृति के पुनरुत्थान का विचार, अन्यथा पूरी तरह से अनुशासनहीन जीवन में एक अनुशासन लाने की इच्छा, रोमांचक खेलों तथा व्यायामों का रोमांच और आकर्षण और सर्वोपरि, महान संघ की विस्मयजनक आयात्मिकता या अबूझ रहस्यात्मकता इस वर्ग के लोगों के लिए काफी बड़ा आकर्षण साबित होती है।...व्यक्ति के जीवन में निजी स्वार्थ सबसे बड़ी चालक शक्ति होती है, इसके दबाव में निराश क्लर्क, जो अक्सर यह सोचता है कि स्वतन्त्रता ने उसके जीवन में कोई परिवर्तन नहीं किया है, यह कल्पना करने लगता है कि विभाजन के बाद यदि मुसलमानों को खदेड़ दिया गया होता तो शायद उन्हें ज्यादा लाभ होता। इस प्रकार दुकानदार यह मानने लगता है कि यदि उनके व्यवसाय से मुसलमानों को निकाल बाहर कर दिया जाता तो उनके लिए अधिक सम्भावना के द्वार खुल जाते। (गोविन्द सहाय, पूर्वोक्त, पृ. 22-23)

इसके अलावा गोविन्द सहाय ने अपने ढंग से पूँजीपतियों, जमींदारों तथा अन्य निहित स्वार्थी तत्त्चों के संघ के प्रति आकर्षण के कारणों की ओर भी संकेत किया था। उन्होंने लिखा था : पूँजीपति, जमींदार तथा अन्य निहित स्वार्थी भी कुछ हैं जो निजी कारणों से कांग्रेस के किसान-मजदूर राजके आदर्श से डरते हैं। अपने संकीर्ण वर्गीय हितों के निष्ठुर तर्क से चालित ये लोग भी संघ को एकमात्रा ऐसा संगठन मानते हैं जो सत्ता से कांग्रेस सरकार को हटा सकता है और इस प्रकार जनतन्त्रा के क्रोध और आक्रोश से उन्हें बचा सकता है। (वही, पृ. 23-24)


गोविन्द सहाय खुद ए आइ सी सी के सदस्य थे। अन्य अनेक कांग्रेसजनों की तरह तब तक शायद उनको भी वहम था कि कांग्रेस सरकार किसी किसान-मजदूरराज के लिए काम कर रही है। लेकिन जहाँ तक पूँजीपतियों के एक हिस्से का आर एस एस की ओर खिंचाव का प्रश्न है, उनका कहना काफी हद तक सही था। कांग्रेस भले ही किसानों-मजदूरों का राज कायम न करें, लेकिन जमींदारों और पूँजीपतियों को लगता था कि आजादी के बाद जनतन्त्रा नाम की बला से कम्युनिस्टों और सोशलिस्टों को बढ़ावा मिल रहा है। इन शक्तियों को वे अपने सामाजिक प्रभुत्व के लिए भारी खतरा मानते हैं। इसीलिए जनतन्त्र से भी वे नफरत करते हैं।

इस तथ्य को जे.ए. करान ने भी अपने शोध में रेखांकित किया है। करान की बातों से एक ओर जहाँ यह साफ है कि 1950 के काल में ही बड़े व्यवसायी घरानों के एक हिस्से का आर एस एस के साथ सम्पर्क स्थापित हो गया था, वहीं इन सम्पको के मूल में काम कर रहे इन व्यवसायियों के दृष्टिकोण का भी साफ पता चलता है।

अपने शोधकार्य के लिए करान जब ’50-’51 के दौरान डेढ़ वर्षों तक आर एस एस के लोगों से घनिष्ठ सम्पर्क बनाकर उसके बारे में जानकारियाँ इकट्ठी कर रहे थे, उसी काल में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण व्यवसायीसे हुई बातों का हवाला देते हुए करान ने लिखा था कि एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण व्यवसायी तथा संघ के काफी करीबी समर्थक ने लेखक से (करान से - अ.मा.) हाल में कहा कि यदि अमरीका भारत को स्तालिन एण्ड कम्पनी के खतरे से बचने में मदद करना चाहता है, तो उसे निश्चित तौर पर आर एस एस की मदद करनी चाहिए। (जे.ए. करान, पूर्वोक्त, पृ. 36)


यहीं पर करान ने आर एस एस के लोगों के मन में कम्युनिस्टों के प्रति चरम नफरत का भी उल्लेख किया है।

सच्चाई यह है कि आर एस एस का कभी भी अपना कोई आर्थिक कार्यक्रम नहीं रहा। यहाँ तक कि जब उसने जन संघ और फिर भारतीय जनता पार्टी की तरह की राजनीतिक पार्टियाँ भी बनाई, तब इन पार्टियों का भी कोई आर्थिक कार्यक्रम नहीं बन सका। आर्थिक कार्यक्रम के बारे में इनके नेताओं का कैसा विचित्रा रुख रहा है, यह उनके नेता अटल बिहारी वाजपेयी के एक कथन से पता चल जाता है। सन् 1984 के लोकसभा चुनाव के वक्त कुछ संवाददाताओं ने भाजपा के चुनाव घोषणापत्रा के सिलसिले में उनसे यह सवाल किया था कि कांग्रेस के चुनाव घोषणापत्रा में तो विस्तार के साथ आर्थिक कार्यक्रम को रखा गया है, लेकिन आप लोग इस बारे में बिल्कुल मौन दिखाई देते हैं, तो इसके जवाब में उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा कि अरे इसमें क्या रखा है। जब कभी हम सत्ता में आएँगे तो नौकरशाहों की मदद से आपके सामने आर्थिक कार्यक्रम का पूरा पोथा पेश कर देंगे।

करान ने 1951 में ही आर्थिक क्षेत्र में आर एस एस का अपना कोई कार्यक्रम न होना इसकी एक बड़ी कमजोरी बताया था और लिखा था : संघ की बड़ी कमजोरी उनके पास किसी विशेष आर्थिक कार्यक्रम का अभाव है। अन्य राजनीतिक समूह इस मामले में उनसे बेहतर स्थिति में है। आर एस एस के लिए यह एक गम्भीर कमजोरी साबित हो सकती है, यद्यपि संघ के नेतागण इसकी गम्भीरता को महत्त्व नहीं देते। उनका मानना है कि इस प्रकार का कोई कार्यक्रम पेश करना जरूरी नहीं है क्योंकि वे एक खास प्रकार की मानसिकता तैयार कर रहे हैं और अन्य परम्परागत राजनीतिक पार्टियों की तरह सत्ता नहीं चाह रहे हैं। जब हिन्दू सम्प्रदाय उनके दृष्टिकोण को अपना लेगा तब उन्हें प्रभुत्व हासिल हो जाएगा। संघ के नेता इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं कि एक बार यदि आर एस एस के दर्शन की आधारशिला पर हिन्दू समाज का गठन हो जाता है तो अपने आप ही एक उपयुक्त आर्थिक व्यवस्था विकसित हो जाएगी। (जे.ए. करान, वही, पृ. 72)

आर्थिक मामलों पर आर एस एस के दृष्टिकोण की यही सच्चाई है। आज भी यदि किसी संघी से आप राष्ट्र के विकास के उनके भावी कार्यक्रम के बारे में पूछे तो वह यही कहेगा कि एकबार हिन्दू जाग जाएं, अपने-आप विकास के द्वार खुल जाएँगे। दीनदयाल उपायाय का एकात्म मानववाद का दर्शन भी सिर्फ लीपा-पोती ही है, उसमें ठोस कुछ नहीं है। जहाँ तक आर एस एस के मूल दर्शन का प्रश्न है, हमने पहले ही हेडगेवार और गोलवलकर के उद्धरणों से बताया है कि वे वर्णाश्रम ार्म को ही हिन्दू धर्म मानते थे और यह विश्वास करते थे कि आनेवाले समय में भी हिन्दू समाज का पुनर्गठन मनुस्मृति के सिद्धान्तों पर ही होगा। अभी वे अपनी इस उद्देश्य को पूरी तरह खोलकर रखना नहीं चाहते अन्यथा हिन्दुओं का बड़ा तबका, जो अनुसूचित जातियों और पिछड़े हुए वर्गों का है, बिदक कर इनकी गिरफ्त से हमेशा के लिए दूर चला जाएगा।

आर्थिक मामलों में आर एस एस और उसके संघ परिवार की नीतियों की पहचान उनके किसी सकारात्मक आर्थिक कार्यक्रम से नहीं, बल्कि कुछ मामलों में उनकी चरम नकारात्मक प्रतिक्रियाओं से होती है। मसलन वे कम्युनिज्म के कट्टर विरोधी हैं। एक समय में भाजपा ने गांधीवादी समाजवाद का नारा जरूर दिया था, लेकिन सच्चाई यही है कि समाजवाद की तरह की किसी भी समतावादी विचाराारा पर उनका कोई विश्वास नहीं है। गोलवलकर हमेशा प्रकृति के सामंजस्य को असमानता पर टिका हुआ बताते थे और कहते थे कि इसमें समानता लाने की कोशिश प्रकृति के ध्वंस की कोशिश होगी। यही बात उनके अनुसार समाज पर भी लागू होेती है।


आर एस एस का यह कट्टर कम्युनिस्ट विरोध पूँजीपतियों के लिए सबसे बड़े आकर्षण की वस्तु रहा है। जिस प्रकार जर्मनी में उद्योगपतियों का एक हिस्सा कम्युनिस्टों पर हमले करके उन्हें समाप्त करने के उद्देश्य से ही नग्न रूप में हिटलर के तमाम जनतन्त्र विरोधी कामों में सहयोगी बना हुआ था, वही स्थिति कुछ हद तक भारत में आर एस एस के प्रति पूँजीपतियों के रुझान से जाहिर होती है।


आर एस एस के समर्थकों का बड़ा हिस्सा चूँकि मध्यमवर्गीय क्लर्कों एवं दुकानदारों का रहा है, इसलिए बड़े पूँजीपतियों के साथ अपने सम्बन्धों को उसका सर्वोच्च नेतृत्व हमेशा छिपाता रहा है। अन्य लोगों ने इस ओर संकेत अवश्य किए, किन्तु आर एस एस के कार्यकर्ता यही समझते रहे हैं कि उनके संगठन को पूँजीपतियों से कोई धन नहीं मिलता। गंगाधर इन्दूरकर ने अपनी पुस्तक में संघ के स्वयंसेवकों के ऐसे वहम को ही व्यक्त किया है जब उन्होंने लिखा कि आर एस एस पूँजीपतियों से प्राप्त धन पर नहीं चलता।

हेडगेवार ने जब गांधी जी को कहा कि संघ का खर्च स्वयंसेवकों द्वारा स्वेच्छा से दी जानेवाली गुरुदक्षिणा से चलता है, तो गांधी जी को इस कथन में झूठ के सिवाय और कुछ नहीं दिखाई दिया था। इस घटना का हम पहले उल्लेख कर आए हैं। पूँजीपतियों से संघ को दूर माननेवाले इन्दूरकर ने अपनी पुस्तक में ही बाद में भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के चाल-चलन के बारे में गहरा सन्देह व्यक्त किया। उनके शब्दों में : आज भारतीय जनता पार्टी के कई नेता ऐसे हैं, जिनका व्यक्तिगत आलीशान खर्च कैसे चलता है, वह पैसा कहाँ से आता है, आदि प्रश्न रहस्य बने हुए हैं। उसके सम्बन्ध में कोई प्रणाली है क्या ? जनता कार्यकाल में जनसंघ की ओर से मुख्यमंत्री बने ब्रजलाल वर्मा, जो मध्य प्रदेश में काफी समय तक मुख्यमन्त्री पद पर रहे, वीरेन्द्र कुमार सकलेचा, दिल्ली के विजय कुमार मलहोत्रा, केदारनाथ साहनी, मदनलाल खुराना आदि के सम्बन में जो कहा जा रहा है, उसमें चरित्र हनन की दृष्टि से होनेवाली अतिशयोक्ति का अंश हो सकता है, पर साधारण व्यक्ति की भी यह समझ में नहीं आता कि उनकी आय और खर्च का मेल कैसे बैठाया जाएँ। विचारधारा की दृष्टि से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जन संघ और भाजपा के नजदीक जो लोग हैं, ऐसे कई जिम्मेदार लोगों से मैंने बात की है। पर किसी ने भी मुझसे यह नहीं कहा कि यह पूरी तरह झूठ है। (गंगाधर इन्दूरकर, पूर्वोक्त, पृ. 129) 


इन्दूरकर ने यह पुस्तक 1982 में मराठी में लिखी थी जिसका हिन्दी में अनुवाद 1985 में प्रकाशित हुआ था। उसे बाद के 10 वर्षों में तो गंगा में काफी पानी बह गया है। पिछले 5 वषो में विश्व हिन्दू परिषद ने राम जन्मभूमि आन्दोलन के नाम पर पूँजीपतियों से जो करोड़ों, अरबों रुपये बटोरे यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है। और तो और, खुद लाल कृष्ण आडवाणी इसी दौरान 1991 में कलकत्ते में बी एम बिड़ला के व्यक्तिगत मेहमान बनकर गए थे। सन् 1991 के चुनाव के पहले शहर-शहर घूमकर उन्होंने पूँजीपतियों के साथ अलग से बैठकें की और करोड़ों रुपये भाजपा के लिए बटोरे। कई बड़े-बड़े पूँजीपति खुले आम विहिप और भाजपा के नेता बन गए हैं। पूँजीपतियों के एक बड़े तबके के साथ भाजपा के काफी घनिष्ठ सम्बन्ध बन गए हैं। इनमें से एक अम्बानी घराना भी कहा जाता है। स्थिति यह है कि संविधान की मर्यादाओं का खुला उल्लंघन करके बाबरी मस्जिद को ढहाने का अपराा करने के बाद भी जब उत्तर प्रदेश के भाजपा के पूर्व मुख्यमन्त्री कल्याण सिंह इसी फरवरी 1993 को कलकत्ता आए तो उनके स्वागत में यहाँ के पूँजीपतियों के एक हिस्से ने पलक पावड़े बिछा दिये और उन्हें एक दावत भी दी।


इस प्रकार ऐसा जान पड़ता है कि फासिस्ट संगठन के रूप में जैसे-जैसे भाजपा की उग्रता और उसका प्रभाव बढ़ रहा है, पूँजीपतियों का एक बड़ा तबका उसके साथ उतने ही नग्नरूप में जुड़ा हुआ दिखाई दे रहा है। भारत में साम्प्रदायिक फासीवाद के बढ़ाव में यहां का पूंजीपति वर्ग खुलकर योगदान कर रहा है। आज संघ परिवार के साथ भारत के पूँजीपतियों की घनिष्ठता की जो सूरत दिखाई दे रही है वह अनायास ही हिटलर के साथ जर्मनी के पूँजीपतियों के सम्बन्धों की याद को ताजा कर देती है। यहाँ हमारे लिए जर्मनी के इतिहास के उन पृष्ठों को उलटना बहुत ही उपयोगी होगा क्योंकि प्रश्न सिर्फ पूँजीपतियों के साथ फासीवाद के सम्बन्ध को जानने का ही नहीं है, इन सम्बन्धों के चलते मनुष्यता को कौन-कौन से दु:ख उठाने पड़े, और तो और, खुद पूँजीपतियों को ही इससे क्या हासिल हुआ, इतिहास से इसके सबक लेना जरूरी है।

शिरेर की किताब में हिटलर और जर्मनी के पूँजीपतियों के बीच सम्बनों का बहुत सजीव चित्रा मिलता है। हिटलर के पतन के बाद नाजी पार्टी के बचे हुए नेताओं पर युद्ध के जघन्य अपराधों के लिए न्यूरेमबर्ग में मुकदमा चलाया गया था। इतिहास में यह मुकदमा न्यूरेमबर्ग मुकदमे के नाम से प्रसिद्ध है जिसके अन्त में कुछ को मृत्युदण्ड और अनेक लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। इन अपरािायों में एक व्यक्ति था बाल्थर फंक। वह जर्मनी के एक प्रमुख आर्थिक अखबार बर्लिनर बोरसेन जेतुंग का एक समय सम्पादक था। सम्पादन के इस काम को छोड़कर वह नाजी पार्टी में शामिल हो गया तथा नाजी पार्टी और जर्मनी के महत्त्वपूर्ण व्यापारी घरानों के बीच वह सम्पर्क-सूत्रा की तरह काम किया करता था। न्यूरेमबर्ग मुकदमे की सुनवाई के दौरान उसने बताया था कि उसके कई उद्योगपति मित्रों ने, खासतौर पर राइनलैण्ड की बड़ी-बड़ी खदानों की कम्पनियों के मालिकों ने, उससे नाजी आन्दोलन में शामिल होने के लिए कहा था ताकि उस पार्टी को निजी उद्योगों के पक्ष में लाया जा सके।


फंक ने यह बताया कि 1931 तक आते-आते मेरे उद्योगपति मित्रों को तथा मुझे यह पूरा विश्वास हो गया था कि वह दिन दूर नहीं जब नाजी पार्टी सत्ता पर आनेवाली है।


हिटलर को उन दिनों ऐसे ही लोगों की तलाश थी जिनके पास धन हो। शिरेर लिखता है कि उस समय पार्टी को चुनाव अभियान चलाने, व्यापक और सघन प्रचार के खर्च को चुकाने, सैकड़ों पूरा-वक्ती अधिकारियों को वेतन देने तथा अपने तुफानी दस्तों वाली निजी सेना को बनाए रखने के लिए भारी मात्रा में धन की जरूरत थी। उस समय तक उसके तूफानी दस्ते के सैनिकों की संख्या 1 लाख पर पहुँच गई थी। व्यवसायी और बैंकर ही हिटलर के कोष के सबसे बड़े स्रोत थे। (शिरेर, पूर्वोक्त, पृ. 201-202)


युद्ध के बाद न्यूरेमबर्ग जेल में पूछताछ किए जाने पर फंक ने कुछ बड़े-बड़े उद्योगपतियों के नाम बताए थे जिनका हिटलर के साथ सम्बन था। कोयला खानों के शहंशाह इमिल किरदोर्फ ने सभी कोयला खान मालिकों से नियमित वसूली करके हिटलर के लिए रुर ट्रेजरी नाम का एक फंड ही तैयार किया था। उसके साथ हिटलर का सम्बन 1929 में कायम हुआ था। वह यूनियनों से बहुत नफरत करता था और हिटलर ने यूनियनों के विरुद्ध उसे अपने तूफानी दस्ते के जरिये सहायता पहुँचाई थी। किरदोर्फ के भी पहले से हिटलर को नियमित चन्दा देनेवाला व्यक्ति था फ्रिट्ज थाइसेन। स्टील ट्रस्ट के प्रमुख इस व्यक्ति ने बाद में एक पुस्तक लिखी : आई पैड हिटलर, जिसमें उसने अपने इस कृत्य के लिए काफी दु:ख जाहिर किया। उसने 1923 में ही हिटलर को पहला तोहफा 1 लाख मार्क (25 हजार डालर) का दिया था। उसके साथ ही जर्मनी की यूनाइटेड स्टील वक्र्स का मालिक अलबर्ट वोग्लर भी नाजी पार्टी को नियमित रुपये दिया करता था। शिरेर ने बताया है : 1930 से 1933 के काल में सत्ता के मार्ग की अन्तिम बाधाओं को पार करने के लिए हिटलर को मुख्य रूप से उद्योगपतियों से जो कोष मिला उसका मुख्य हिस्सा कोयला और इस्पात उद्योग से आया था। (शिरेर, पूर्वोक्त, पृ. 23)


फंक ने हिटलर को कोष देनेवाले और भी अनेक उद्योगपतियों और उनकी कम्पनियों के नाम बताए थे। कुल मिलाकर यह सूची काफी लम्बी है। इनमें जर्मनी के विशाल रसायन कार्टल आई.जी. फारबेन के प्रमुख डॉयरेक्टर जार्ज वान स्निजलर, पोटेशियम उद्योग के अगस्त रोस्टर्ग, अगस्त दिहन, हम्बर्ग-अमेरिका लाइन के कूनो, शक्तिशाली कोलोन उद्योग के ओटो वुल्फ, डच बैंक, कामर्स एंड प्राइवेट बैंक की तरह ही कई प्रमुख बीमा कम्पनियों और बैंकों के मालिक, जर्मनी की सबसे बड़ी बीमा कम्पनी एलियांज के मालिक शामिल थे जो हिटलर को नियमित कोष जुटाकर दिया करते थे। हिटलर के एक आर्थिक सलाहकार विल्हेल्म केपलर का दक्षिण जर्मनी के उद्योगपतियों से गहरा सम्बन था। उन्होंने व्यवसायियों का एक अलग से संगठन ही बनाया था जो हिटलर के तूफानी दस्ते के प्रमुख हिमलर के प्रति समर्पित था। इस संगठन का उन्होंने नाम रखा था सर्कल ऑफ फ्रेंड्स ऑफ इकोनोमी।


कुछ उद्योगपतियों ने शुरू में हिटलर का साथ नहीं दिया था, किन्तु बाद में उन्होंने भी दबाव में आकर या बहती गंगा में हाथ धोने के इरादे से नाजी पार्टी के साथ खुद को कुछ हद तक जोड़ लिया था। ऐसी कम्पनियों में जर्मनी की सबसे बड़ी बिजली के उपकरण बनानेवाली कम्पनी सीमेंस भी थी।

इस प्रकार जाहिर है कि सत्ता पर आने के हिटलर के अन्तिम अभियान में इसके पास उद्योगपतियों की विशाल धनराशि उपलब थी। यद्यपि हिटलर का प्रचारमन्त्री गोयेबल्स तब भी रुपये की कमी की बात किया करता था, लेकिन सारे तथ्य बताते हैं कि हिटलर को उद्योगपतियों से ही करोड़ों मार्क प्रति महीने मिलते थे।

इन तमाम उद्योगपतियों ने हिटलर को इस प्रकार भारी धन देकर कौन सा महान काम किया था, इसे कुछ ने तो युद्ध के दौरान ही तथा कुछ ने युद्ध के बाद खुलेआम माफियाँ माँग कर स्वीकारा था। सन् 1930 में राइख बैंक के अयक्ष पद से इस्तीफा देकर 1931 में हिटलर से मिलने और अपनी पूरी शक्ति लगाकर हिटलर को बड़े-बड़े उद्योगपतियों, बैंकरों आदि के सम्पर्क में लानेवाले डॉ. स्काख्त, जिनके बारे में कहा जाता है कि हिटलर को सफलता की अन्तिम सीढि़याँ चढ़वानेवालों में वे एक सबसे प्रमुख व्यक्ति थे, ने हिटलर के चांसलर बनने के पहले ही उसे एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने कहा था : मुझे कोई सन्देह नहीं है कि आज की परिस्थितियाँ आपको चांसलर बना देगी।...आपका आन्दोलन अपने अन्दर इतने बड़े सत्य और आवश्यकता को धारण किए हुए है कि विजय ज्यादा दिन तक आपसे दूर नहीं रह सकती...निकट भविष्य में मेरा कार्य मुझे कहाँ ले जाएगा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, यहाँ तक कि आप मुझे किले में बन्दी पड़ा हुआ देख सकते हैं, तब भी आप मुझे हमेशा अपना वफादार समर्थक मान सकते हैं। (शिरेर द्वारा उद्धृत, पृ. 205)

स्काख्त के इस पत्रा पर टिप्पणी करते हुए शिरर ने लिखा है कि नाजी आन्दोलन का एक बड़ा सत्य जिसे हिटलर ने कभी छिपाया नहीं, वह यह था कि यदि वह पार्टी कभी जर्मनी की सत्ता पर आ गई तो वह जर्मनी से व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को, जिसमें डॉ. स्काख्त और उनके व्यवसायी दोस्तों की स्वतन्त्राता भी शामिल है, समाप्त कर देगी। इसे समझने में राइख बैंक के मिलनसार अयक्ष, जिस पद पर हिटलर के काल में वे फिर लौट आए थे, तथा उद्योग और वाणिज्य के क्षेत्र में उनके सहयोगियों को थोड़ा समय लगा। डॉ. स्काख्त हिटलर के चांसलर बनने के बारे में ही एक सही भविष्यवक्ता साबित नहीं हुए, बल्कि फ्यूहरर (हिटलर का लोकप्रिय सम्बोधन -- अ.मा.) द्वारा उन्हें बन्दी बनाए जाने के बारे में भी उनकी भविष्यवाणी सच निकली। किले में नहीं, उन्हें बन्दी बनाकर यातना शिविर में रखा गया था, जो कहीं ज्यादा बदतर था, तथा हिटलर के वफादार समर्थक के रूप में नहीं (इस मामले में वे गलत साबित हुए) बल्कि उसके विरोधी के रूप में। (शिरेर, पृ. 205)


सन् 1933 के जमाने से ही हिटलर ने यातना शिविरों का निर्माण शुरू कर दिया था। कँटीलें तारों से खुले स्थान को घेर कर बनाए गए ऐसे यातना शिविरों की संख्या एक वर्ष के अन्दर ही 50 हो गई थी। हिटलर के तुफानी दस्ते लोगों को डराने, उनसे ब्लैकमेल करने के लिए इन यातना शिविरों का खुलकर प्रयोग करते थे। इन शिविरों में सुनियोजित ढंग से हत्याएँ करायी जाती थी। बन्दियों को भूख और प्यास से तड़पाकर मार दिया जाता था। इनमें एक खासी संख्या व्यवसायी समाज के लोगों की भी थी जिनसे पैसे वसूलने के लिए हिटलर के लोग इन शिविरों का प्रयोग किया करते थे। ऐसे-ऐसे यातना शिविरों का भी गठन किया था जिनमें जिन्दा लोगों को पकड़-पकड़ कर उन पर विभिन्न प्रकार की जहरीली गैस आदि के प्रयोग किए जाते थे।

सन् 1936 तक आते-आते ही जर्मनी की अर्थव्यवस्था अस्त-व्यस्त होने लगी थी। युद्ध की तैयारियों के लिए हिटलर ने वित्तमन्त्रालय से स्काख्त को हटाकर अपने विश्वासपात्र गोरिंग को आर्थिक क्षेत्रा का तानाशाह बना दिया था। स्काख्त को 1939 में राइख बैंक की अयक्षता से भी हटाकर उसकी जगह फंक को बैठा दिया गया। उद्योगों पर उद्योगपतियों का नियन्त्रण नहीं के बराबर रह गया। नाजी पार्टी ने उनका सिर्फ दुधारू गाय की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। जिन तमाम व्यवसायियों ने हिटलर के शासन का उत्साह के साथ स्वागत किया था और उसकी स्थापना में भरपूर योगदान किया था उनका मोहभंग होने में देर नहीं लगी। नाजी पार्टी की ओर से रोजाना उनके पास सिर्फ चन्दे की दरख्वास्ते आया करती थी। हिटलर के जरिए ट्रेड युनियनों को नष्ट करने तथा मजदूरों को सबक सिखाने की इच्छा रखनेवाले उद्योगपति अब स्वयं हिटलर की पार्टी के गुलाम बनकर रह गए थे। नाजी पार्टी को बिल्कुल शुरू से सबसे ज्यादा चन्दा देनेवाला फ्रिट्ज थाइसेन युद्ध शुरू होने के पहले ही जर्मनी छोड़कर भाग गया था। उसने उन्हीं दिनों लिखा कि नाजी शासन ने जर्मन उद्योग का नाश कर दिया है। वह जिनसे भी मिलता था, कहा करता था कि मैं कितना बड़ा मूर्ख था। (शिरेर, पूर्वोक्त, पृ. 360)


न्यूरेमबर्ग मुकदमे के बाद उद्योगपतियों से हिटलर के सम्पर्क स्थापित करनेवाले प्रमुख व्यक्ति फंक को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी।


शिरेर ने हिटलर के काल में छोटे-छोटे व्यावसायियों की दुर्गति का भी एक चित्र पेश किया है। छोटे व्यवसायी, जो पार्टी के समर्थकों में प्रमुख थे तथा चांसलर हिटलर से बहुत कुछ की आशा रखते थे, उनमें से अनेक बहुत जल्द ही पूरी तरह नष्ट हो गए तथा उन्हें वेतन भोगी मजदूरों की श्रेणी में देखा जाने लगा। (वही, पृ. 361)

जहाँ तक मजदूरों-कर्मचारियों का प्रश्न है, उन्हें तो हिटलर के काल में तमाम अधिकारों से शून्य हुक्म का गुलाम बनाकर छोड़ दिया गया था। उनकी जिन्दगी हमेशा तूफानी दस्तों के आतंककारी साये में बीतती थी।

आर्थिक क्षेत्रा में हिटलर की चरम तानाशाही से कुछ उद्योगों ने एक काल में अनाप-शनाप मुनाफा बंटोरा, लेकिन हिटलर के शासन का अन्त जर्मनी के तमाम उद्योग-धंधों को विध्वस्त खंडहरों में बदलने के रूप में ही हुआ था।


हिटलर के काल में जर्मन उद्योगों की दुर्दशा के इस लम्बे बयान से हमारा तात्पर्य यही है कि आज भारत में फासिस्ट तानाशाही की शक्तियों में व्यवसायियों का जो तबका अपनी भलाई के स्वप्न देख रहा है, वह इतिहास-बोध से पूरी तरह शुन्य एक बहुत ही अदूरदर्शी और तात्कालिक स्वार्थों तक सीमित तबका है। राजनीतिक तानाशाही का अन्तिम परिणाम अर्थव्यवस्था के क्षेत्रा में भी चरम अराजकता के अलावा और कुछ नहीं होता क्योंकि आर्थिक क्षेत्र में यह तानाशाही शक्तिशाली और सत्ता के निकट रहनेवाले व्यवसायियों के हितों में पूरी अर्थव्यवस्था के अन्य तमाम संघटकों का बुरी तरह नुकसान पहुँचाती है। परिणामत: सिर्फ असंतुलन और अराजकता ही पैदा होते हैं।


भारत में आर एस एस ने अपनी तानाशाही को स्थापित करने के लिए साम्प्रदायिकता का जो ताण्डव शुरू किया है उसके घातक परिणाम अभी से सामने आने लगे हैं। बम्बई आज पूरी तरह क्षत-विक्षत है। उत्तर प्रदेश में थोड़े से दिनों के भाजपाई शासन ने हालत यह पैदा कर दी थी कि उस प्रदेश के छोटे व्यवसायियों को भाजपा सरकार के खिलाफ ही हड़ताल करने के लिए मजबूर होना पड़ा था। अभी तो आर एस एस के लोग सिर्फ अपने राजनीतिक विरोधियों तथा स्वतन्त्रचेता बुद्धिजीवियों को ही धमकी भरे पत्रों आदि से डराया-धमकाया करते हैं। यदि इनकी कुछ और शक्ति बढ़ी तो वे ऐसे तमाम लोगों को भी डराया-धमकाया करेंगे जो उनके आदेश के अनुसार उनके अभियानों के लिए चन्दा देने से इन्कार करेंगे।

भारतीय उद्योग का हित भी अन्ततोगत्वा भारत की एकता और अखण्डता में ही है। आर एस एस का रास्ता इस एकता और अखण्डता के बिल्कुल विपरीत है। इसलिए अपने अन्तिम निष्कर्षों में यह रास्ता कभी भी भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए किसी भी रूप में हितकारी नहीं हो सकता। हिटलर के काल के जर्मनी के अनुभवों से यही सबक मिलता है।

(सुविधा के लिये यहां उन सभी संदर्भ ग्रंथों की सूची हम नीचे दे रहे हैं, जिनकी मदद से यह पूरी किताब लिखी गयी थी। उपरोक्त लेख में भी इन्हीं ग्रंथों में से कुछ का उल्लेख आया है।)
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Courtesy- अरुण माहेश्वरी जी के फेसबुक वाल से साभार 

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