कामरेड इशहाक मोहम्मद गामा

संदीप नाईक

Courtesy- fineartamerica.com 

बीस फीट के बंद अँधेरे गलियारे को पार करते हुए जब हम उस बंद घर के बीच में पहुंचे तो कुछ बर्तन और बिखरा सामान पडा था. जब आवाज दी तो उन्होंने कहा थोड़ा ठहरो फारिग हो लूं.........हम इंतज़ार करते रहे और उस अँधेरे गलियारे में आती सूरज की मद्धम किरणों को देख रहे थे कि वो कहाँ से दुस्साहस करती होंगी कि घूस जाए और अपने उजियारे से किसी का जीवन उजास से भर दें, कहाँ से हवाएं आती होंगी ऐसे उद्दाम वेग से कि साँसें अपने आप चलने लगे और जीवन का पहिया अपनी गति से चले और ऐसी तान छेड़े कि सब कुछ सहज हो जाए.

थोड़ी देर इंतज़ार करने के बाद जब हम उस कमरे में घुसे तो पाया कि एक टाण्ड था जिस पर लोहे की पेटियां थी, कुछ अखबार पड़े थे बेतरतीब से, एक टेबल जिस पर मार्क्स का पूंजीवाद, कामरेड पी सुन्दररैया की जीवनी, विधान सभा में वोट देने की अपील और भाजपा और कांग्रेस दोनों पार्टियों को हराने की गुजारिश करते आलेख, खिड़की में रखा भड-भड करता बहुत पुराना सा टेबल फेन, लंबा चौड़ा पलंग जिस पर अपनी कृशकाय काया के साथ कामरेड इशहाक मोहम्मद गामा पड़े थे. ये वो शख्स है जिसने अपनी पुरी जिन्दगी कम्युनिस्ट पार्टी के लिए लगा दी - मजदूरों के बीच, किसानों के बीच, शहरी गरीबों के बीच, चौराहों पर मजदूरों के साथ लड़ते- खपते जीवन बीत गया. अब इन दिनों बेहद अकेले पड़े है, अपनी एक बहू और एक बेटी के भरोसे - कहते है कि अपना काम करवाते हुए शर्म आती है पर शरीर से मजबूर हूँ, कुछ कर नहीं सकता.

पुराने दिनों को याद करते है तो चलते पंखे के शोर में आवाज दब जाती है और साँसों की आवाजाही इतनी तेज है कि ठीक से बोल भी नहीं पाते. बहादुर पंखा बंद करता है और एकाएक मच्छर पुरी ताकत से उस सीलन भरे कमरे में हम सब पर हमला कर देते है. अस्थमा के शिकार हो चुके कामरेड गामा आज बेहद मजबूर है. सामाजिक-आर्थिक परेशानियाँ मुंह बाए खडी है, कहते कुछ नहीं पर बात बोलती है, कमरे का हर जर्रा कहता है कि हालात ठीक नहीं है. एक अकेला आदमी एक छोटे से सामंती शहर में जहां कांग्रेस और भाजपा का हमेशा से वर्चस्व रहा, कम्युनिस्ट तो कभी हो ही नहीं सकता था और लोग आज भी कम्युनिस्ट का अर्थ भली भाँती ना जानते हो वहाँ और ऐसे सामंती शहर में जहां लोग आज भी पूर्व राजा और विधायक के पाँव सत्तर साल के उम्र दराज लोग पडा करते थे, वहाँ इस कामरेड गामा ने प्रतिरोध किया और शहर में एक पीढी को कम्युनिस्ट क्या होता है - सिखाया, पर्चे लिखे, रूसी साहित्य बांटा, हर प्रगतिशील गोष्ठी में शामिल रहे और शिरकत की वो भी पुरी शिद्दत से और दुनिया जहां में हो रहे परिवर्तनों के बारे में बताते रहे.

आज जब बहुत दर्द के साथ कह रहे थे तो कहना शुरू किया कि यहाँ के डाक्टर ने इंदौर ले जाने और दिखाने को कहा है फिर कहने लगे कैसे जाऊं, मेरे पास तो सायकिल भी नहीं है रूपया तो दूर की बात है. जिदंगी में बहुत लड़ाईयां बहुत लोगों के लिए लड़ी, आज मेरे इस कठिन समय में साथ देने वाला कोई है नहीं, हाँ कुछ दोस्त है जिनकी मदद से ये अस्थमा के इलाज के लिए थोड़ी दवाई, सांस लेने का पम्प, नेबुलाईजर और सामान आ गया है, पर एक आदमी कितनी मदद करेगा, उसका भी तो घर परिवार है. मै सोच रहा था कि तमाम जगहों पर वृद्ध लोगों के लिए सुविधाएं होती है, कल सुनील भाई कह रहे थे कि संघ में और कम्युनिस्टों में बुढापा बड़ा खतरनाक होता है, ख़ासा करके उनका जो फुल टाईमर होते है पार्टी के या काडर के, बल्कि यूँ कहें कि हर काडर बेस में काम करने वालों के लिए कोई ऐसी जगह नहीं जहां वे चैन से मर सकें. मैंने कईं ईसाई संस्थान देखें है जहां बूढ़ी नन और बूढ़े फ़ादर आराम से कान्वेंट में अपना जीवन प्रभु भक्ति करते हुए हंसी खुशी बिताते है, पर काडर आधारित काम करने वालों के लिए क्या कोई जगह कोई भी पार्टी बना पाई है आज तक यहाँ तक कि वामपंथी भी नहीं.

हाँ निराश नहीं थे कामरेड गामा, कहने लगे आप लोग जो कर रहे हो करते रहो, नौकरियों में हो तो खुलकर सामने आ भी नहीं पाओगे, परन्तु लड़ते रहो, जहां हो वहाँ से लड़ते रहो.......अंग्रेजो से लड़ने में हमें नब्बे साल लगे थे और फिर ये भाजपा और कांग्रेस तो अपने ही लोग है, समझ लेंगे देर-सबेर, थोड़ा समय ही लगेगा, काम करते रहो. मेरा तो बस ये सांस की बीमारी का चक्कर है यह ठीक हो जाए, जो शाम के धुंधलके में घबराहट होती है वह कम हो जाए तो काम बन जाए....... बाकी भले ही शरीर में कैसी भी तकलीफ हो, सब सह लूंगा........कामरेड बडबड़ा रहे थे. हम दोनों दोस्त सोच रहे थे कि क्या किया जा सकता है, कैसे इंसान को तकलीफ से मुक्ति दिलाएं, फिर मैंने धीरे से हिम्मत करके कहा कामरेड मच्छरों से बचो वरना मलेरिया हो गया तो और दिक्कत हो जायेगी तो बोले अरे वो उस आले में आलआउट है ना, लगा दो.............बस हम और नहीं बैठ पाए, बहुत संकोच से विदा ली, सोचते हुए बाहर आ गए कि कैसे इनके इलाज का प्लान किया जाए. 


फिर शाम को कुमार अम्बुज जी की कहानी "एक दिन मन्ना डे के साथ" युनुस खान भाई की आवाज में सुन ली तो दिल दहशत से भर गया है, नींद आ नहीं रही और डर लग रहा है..............

मै भी अकेला हूँ और आधे से ज्यादा जीवन बीत गया है और शेष सामने है. सृंजय की कहानी "कामरेड का कोट" भी याद आती है, कामरेड इशहाक मोहम्मद गामा की खुली किताब कुछ कहती है............आवाजें गूंजती है और एक साया अपने आस पास लगातार महसूस करता हूँ यह डर है या हकीकत पता नहीं पर कामरेड गामा के जीवन की आती-जाती साँसें जो अब बहुत मुश्किल हो चली है, सच में हकीकत है.

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