"माँ" : एक संक्रामक प्रत्यय


रितेश मिश्रा 



माँ ...
मैं क्यों कह दूँ तुम्हें देवी ?
क्यों ?
कि तुम मेरे पहले गुरू थे ?
जबकि मैं तुमसे उन सब के लिए लड़ा
जिनके लिए मैं अब भी लड़ पड़ता हूँ
तुम पहली और आखिरी थी
जिसने जोर से पकड़ी थी
मेरी लगाम
और तुम्हारे साथ ही पहली बार हुआ था
सत्ता के विरुध्द संघर्ष

माँ तुम्हे याद हैं
ये जो शब्दों की लड़ाई है न ये तुमसे ही शुरू हुई थी
जिसे तुम 'जुबान लड़ाना' कहती थी

मैं ये नहीं कहता
कि तुमने मुझे प्रेम नहीं किया
अथाह किया !
न ये -
कि मैं तुमसे प्रेम नहीं करता
बस मैं ये कहना चाहता हूँ
कि तुम मेरे प्रथम गुरू नहीं थे

गुरू कि मेरी अपनी परिभाषा है माँ !
तभी तो तुम्हारे कई सिध्दांतों
कई उपदेशों
पर मैं लड़ पड़ता हूँ , अब भी
और तुम भी तो मुझपर अब तक
अपना थोपना चाहती हो !

मैं ये भी जानता हूँ
कि जितना तुमने इस समाज से एक्सट्रेक्ट (extract) किया
उतना ही इंजेक्ट किया
उसी समाज की
जिससे मेरे कुछ शील
लेकिन गंभीर विरोध हैं
इसलिए ही तुम सामाजिक देवी होगी
पर मैं तुम्हें देवी नहीं मानता !!

और प्रेम _?
कसम से माँ..
जब भी तुम्हे याद करता हूँ
एक अदम्य स्फूर्ति आती है
धमनियों का रक्त नृत्य करने लगता है
स्वाध्याय का सूत्र खोजने लगता हूँ
स्वीकार्य की चेतना जागृत हो जाती है

तुम्हारे चश्में की पीछे वाली
आँखों ने
कितनी बार
मुझमें कितनी बार
सत्य की भूख जागृत की

ये तुम्हारा प्रेम ही तो है माँ
कि मैं कह सकता हूँ 
कि तुम देवी नहीं हो

ये तुम्हारा मेरा भीतर होना ही है
कि मैं ये भी कह सकता हूँ
कि तुम मेरे प्रथम गुरू नहीं थे

क्यों _मानती हो न ?

मै अक्सर सोचता हूँ
सार्वभौमिकता के बारे में
वो जो कहतें हैं कि तुम
सार्वभौमिक देवी हो
तब कैसे बन गया वो अपशब्द
जिसमें तुम आते हो ?

माँ ये तुम्हारे नाम की
अँधेरी खोह
बना दी गयी है
ये मर्दों ने बनायी 
ये स्त्री की पूर्णता का भुतहा घर है
जिसमें कुछ आदि मंत्रो के द्वारा ही घुसा जा सकता है
 मैं वो मंत्र कभी नहीं पढूंगा माँ !
किसी के कहने पर नहीं |||

Courtesy - http://www.teenink.com/


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