एन.जी.ओ. कामगार -: अधिकारों के लिए लड़ते अधिकारविहीन
मजदूर दिवस विशेष
जावेद अनीस
पिछले दो-तीन दशकों के दौरान भारत के एन.जी.ओ.(
स्वंसेवी संस्थाऐं ) सेक्टर में उल्लेखनीय बढ़ोतरी दर्ज हुई है। 1990 के दशक में सरकार की खुली आर्थिक नीतियॉ लागू
होने के बाद से एन.जी.ओ. की भूमिका और कार्यप्रणाली में भी परिर्वतन देखने को
मिलता है। इस दौरान एन.जी.ओ. की कार्यप्रणाली बदली है। वह ज्यादा ‘प्रोफेशनल’ हुए है साथ ही साथ इनमें नौकरशाही
कार्यप्रणाली का भी विकास हुआ है। दूसरा परिर्वतन यह देखने को मिलता है कि सरकारें
अपनी बहुत सारी कल्याणकारी योजनाऐं एन.जी.ओ. द्वारा संचालित करने लगी है। जिनमें
शिक्षा , स्वास्थ, सेनिटेशन, वाटर शेड जैसे महत्वपूर्ण और बुनियादी
क्षेत्र की योजनाऐं शामिल हैं।
सम्भवतः दुनिया में सबसे ज्यादा सक्रिय एन.जी.ओ. भारत में ही है। इस साल के शुरुवात में सीबीआई द्वारा सुप्रीमकोर्ट में
एक रिपोर्ट पेश की गयी थी जिसके मुताबिक देश में सक्रिय एन.जी.ओ. की संख्या 20 लाख से भी अधिक है जिसका मतलब है कि लगभग हर 600 भारतीय पर एक एन.जी.ओ. हैं। जबकि इसके बरअक्स देश में 943 व्यक्तियों पर एक
ही पुलिसकर्मी उपलब्ध है । राज्यों की बात करें तो सबसे से ज्यादा साढ़े पांच लाख एन.जी.ओ.
उत्तरप्रदेश में है जबकि केरल तीन लाख सत्तर हज़ार के साथ दुसरे तथा मध्य प्रदेश एक लाख चालीस हजार एन.जी.ओ. के
साथ तीसरे नंबर पर है, इनके बाद महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्य है ।
इस दौरान एन.जी.ओ सेक्टर को विभिन्न श्रोतों से मिलने वाली “फंडिंग” में काफी बृद्धि हुई है। 2002 से 2009 के दौरान केंद्र और राज्य
सरकारों की तरफ से करीब 650 हजार करोड़ दिए जाने का अनुमान है
जी प्रतिवर्ष 950 करोड़ के आसपास बेठता है । इसी तरह से संस्थाओं को मिलने देशी -विदेशी फंडिग
में भी उल्लेखनीय बृद्धि हुई है। वर्ष 2007-2008 में एन.जी.ओ. को प्राप्त होने वाला विदेशी
अनुदान 9700 करोड़ रुपये था। जबकि वर्ष 2010-11 के दौरान करीब
दो लाख अरब डालर का विदेशी अनुदान मिला
है । उपरोक्त आंकड़ों पर नजर डालने से यह बाद यह अंदाजा लगाया जा सकता है की किस
तरह से भारत में स्वमं-सेविता का पुराना क्षेत्र एक विशाल “सेक्टर” के रूप में आकर ले चूका
है।
एन.जी.ओ. कार्यकर्ता संस्था की रीढ़ होते हैं। इस दौरान एन.जी.ओ.
की संख्या, दायरे, कार्यप्रणाली, फंडिंग, के साथ इस सेक्टर में काम कर रहे कामगारों
(कार्यकर्ताओं ) की संख्या में भी भारी बढ़ोतरी हुई है। मोटे तौर पर हम एन.जी.ओ. के
इन कार्यकत्ताओं को तीन प्रकार से श्रेणीबध किया जा सकता है -पहले प्रकार के कार्यकर्ता या कर्मचारी ऐसे
होते हैं जो इस क्षेत्र में कैरियर के हिसाब से आते हैं। फिलहाल अनेक शिक्षण संस्थानों द्वारा “समाजकार्य” के विभिन्न कोर्सस चलाये जाने के कारण इस क्षेत्र
में ऐसे लोगों की संख्या काफी बढ़ रही है। दूसरे में ऐसे कर्मचारी आते हैं जो समाज
के लिए कुछ करना चाहते हैं इसलिए एन.जी.ओ. सेक्टर में आते है। हालांकि हाल के
दिनों मैं ऐसे लोगों की संख्या कम होती जा रही है। तीसरी प्रकार के ऐसे
कर्मचारी है जो ज्यादा शिक्षित नहीं है और एन.जी.ओ.में जमीनी स्तर पर
काम करते है, ऐसे कार्यकर्ताओं या कामगारों की संख्या सबसे ज्यादा है।
एन.जी.ओ. सेक्टर के अधिकांश कामगारों की स्थिति अच्छी नहीं है और
इनमें भी सबसे बुरी स्थिति जमीनी स्तर पर काम कर रहे कार्यकर्ताओं की ही है। इन
कार्यकर्ताओं को अपने सेवा के बदले मिनिमम वेजेस (न्यूनतम मजदूरी दर) भी नहीं
मिलती है। अपवाद स्वरुप कुछ एक एन.जी.ओ. ऐसे जरुर है जिनकी एच. आर. पालीसी है।
परन्तु ज्यादातर एन.जी.ओ. के कामगारों की कोई सामाजिक सुरक्षा- जैसे बीमा, स्वास्थ, पी.एफ. आदि नहीं होती है। पद भी
सुरक्षित नहीं है और कभी भी नौकरी से निकाल बाहर करने का खतरा मडराता रहता है।
छुटटीयॉ भी बहुत कम दी जाती हैं। काम करने के घन्टे भी तय नही होते है और औसतन कम
से कम 8 से 10 घन्टे
काम करना पड़ता है। कभी-कभी तो साप्ताहिक छुट्टी के दिन भी काम करना पड़ता है और ज्यादतर
मामलों में इसके बदले कोई अतिरिक्त मेंहनताना भी नहीं मिलता है ।
दूसरी तरफ बड़ी एन.जी.ओ. या वित्तपोषक ऐजेन्सीयों में
कार्यरत कामगारों की स्थिति भी वेतन के मामले को छोड़कर बाकि सारे मामलों में
बदद्तर ही कही जायेगी । और इनकी स्थिति कमोबेश मल्टीनेशनल कम्पनीयों या आई.टी.
सेक्टर में काम कर रहे मजदूरों जैसी है। जो अपनी मोटी तनख्वाओं की वजह से खुद को
मजदूर नही मानते लेकिन काम के घन्टों, ओवर टाइम आदि मामलों में उनकी स्थिति
दयनीय है।
उदारीकरण की प्रक्रिया ने एन.जी.ओ. सेक्टर की दिशा और
दशा दोनों बदली है। एन.जी.ओ. के दायरे, संख्या, कामगारों
आदि में तो व्यापकता आयी है परन्तु इनके ढ़ाचे में अन्दरुनी लोकतंत्र, कामगारों की स्थिति और पारदर्शिता में कमी ही देखने को मिलती है। कुछ
अपवादों को छोड़कर ज्यादातर एन.जी.ओ. किसी व्यक्ति द्वारा निजी सम्पति की तरह
संचालित किया जाता है। बात-बात पर लोकतंत्र की दुहाई देने वाले एन.जी.ओ. खुद अपने
ढ़ाचे में गैर-लोकतांत्रिक बने हुए है।
यह
बात सही है कि एन.जी.ओ. सेक्टर की तुलना अन्य मुनाफे वाली सेक्टर से सीधे तौर पर
नहीं की जा सकती है क्योकिं यह क्षेत्र गैर व्यवसायिकता और स्वंयसेविता की भावना
से जुड़ी हुई है। परन्तु इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि है कि एन.जी.ओ.
सेक्टर को अपने खुद के ढ़ॉचे में लोकतंत्रिक प्रक्रिया, पारदर्शिता,कामगारों की सामाजिक सुरक्षा, कामगारों के अधिकारों को लेकर
बहस-मुहाबसे और सकारात्मक बदलावों की जरुरत है।
देश के सरकारों की नीतियों और रवैयों से यह स्पष्ट है कि भविष्य
में एन.जी.ओ. की भूमिका, संख्या में व्यापकता आयेगी। सरकारें
जिस तरह से पब्लिक-प्रायवेट पाट्नरशिप दुहाई देते हुए मूलभूत सुविधाओं को अपने
नागरिकों को मुहैय्या कराने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी से अपनी पीछा छुडाना चाह रही
है, उससे स्पष्ट है कि भविष्य में सरकारें
अपने आप को केवल धन उपलब्ध कराने तक सीमित करेंगीं और सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों का संचालन
निजी क्षेत्र एवं एन.जी.ओ. के हाथों में और बड़े पैमाने पर सौपा जाने वाला है। इससे
सरकारें जनता के प्रति अपनी सीधी जवाबदेही से बच जायेगी दूसरी तरफ एन.जी.ओ. सेक्टर और निजी क्षेत्र की कोई
जवाबदेही जनता से होती ही नहीं है। भविष्य में एन.जी.ओ. की संख्या बृद्धि तय है ,ऐसे में जरूरत इस बात की है कि वे
एन.जी.ओ. जो खुद को समाज परिर्वतन के आलम्बरदार और जनता के पक्ष में, जनता के लिए खड़ा बताते हैं वे अपनी
भूमिका सुनिष्चत करें। “सेक्टर” यह तय करना पड़ेगा कि क्या वे सरकार द्वारा निजीकरण
को बढ़ाने के उपकरण बनेंगे या फिर वास्तव में लोगों के जनतांत्रिक अधिकारों के साथ
खड़े होंगे?
वर्तमान में समाज सेवा एक व्यवसायिक रुप में स्थापित हो
चुका है। ऐसे में सवाल बड़ी संख्या में काम कर रहे एन.जी.ओ. कामगारों का है जो जनता के “मानव अधिकारों” और हक-हकुक की
लड़ाई के काम में लगे है, पर वे खुद ही अधिकार विहीनता की
स्थिति में दिखाई दे रहे है।
इस
स्थिति एक प्रमुख कारण इन संगठनों में काम करने वाले कामगारों को रोजगार, की नियुक्ति ठेका पद्वति (संविदा) के आधार पर किया
जाना है। प्रतिस्पर्धा और रोजगार की कमी के
इस दौर में कामगारों को संस्था के शर्तो के हिसाब से काम स्वीकार करना पड़ता है।
ऐसी
स्थिति में जरूरी हो जाता है कि एन.जी.ओ. सेक्टर में काम कर रहे कामगारों संगठीत
हो कर अपने अधिकारों व सामाजिक सुरक्षा जैसे मसलों गभीरता से विचार करें । एन.जी.ओ. संचालोकों / मैनेजमेंट और दानदाता
एजेंसियों को भी कामगारों के मसलों को लेकर गंभीरता दिखानी होगी । नहीं तो अधिकारों की बात करने वाले एन.जी.ओ. कामगार खुद ही अधिकार विहीन बने रहेंगें
No comments: