प्रेम विरोधी समज में प्रेम का पर्व
स्वदेश कुमार सिन्हा
यह महज संयोग ही है कि इस वर्ष बसंत का पर्व और वेलेन्टाइन डे करीब-करीब एक ही
साथ पड़ रहे हैं । प्राचीन ’संस्कृत साहित्य’ में बसंत के समय ’महोत्सव पर्व’ मनाने की प्रथा का वर्णन आता है ,यह महोत्सव भी एक प्रकार का प्रेम पर्व ही था। गलिब
का एक शेर है-
’’ये इश्क नही आसां, बस इतना समझ लीजे,
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है। ’’
’गालिब’ने यह शेर न जाने किस मनःस्थिति में लिखा होगा पर इस बात में कोई मतभेद नही है
कि भारत में आज भी एक बड़ी आबादी में स्त्री-पुरूषो के बीच का प्रेम आग के दरिया
में डूबने के समान ही है। हमारे यहाँ सूफी
भक्त कवियों ने ईश्वर या खुदा को प्रेमी या प्रेमिका मानकर प्रेम की जो लौ जलाई थी
वह शुद्ध अध्यात्मिक थी, उसमें शरीर की उपस्थिति नही थी , भारतीय समाज में प्रेम में शरीर की उपस्थिति या अनुपस्थिति हमेशा
विवादो में रही है। सूफी सन्त प्रेम में सम्पूर्ण समर्पण मानते थे , जिसके अभाव में प्रेम संभव ही नही है।
प्रेम गली अति सांकरी ,
यामें दुई न समाय,
जब मै था तब हरि नही ,
अब हरि है मै नाय।।
भक्त कवियित्री ’’मीरा’’ के लिए प्रेम एक सहता-सहता एक अन सहयता सा दर्द है।
जो मै ऐसा जानती, प्रीति किय दुख होय,
नगर ढि़ंढ़ोरा पीटती,
प्रीति न करियों काये ।
हमारे यहाँ धार्मिक मिथको में हमेशा दो धुर्वों का प्रेम मोैजूद रहा है। एक ओर
’राम-सीता’ का मर्यादित दाम्पत्य प्रेम है , दूसरी ओर राधाकृष्ण का प्रेमी -प्र्रेमिका का
शिव-पार्वती का अर्द्धनारीश्वर होकर किया गया ’महारास’ यद्यपि ये सभी रूप लोकमनस में समान रूप से पूज्य
है। एक ओर शिव पार्वती के साथ महारास करते हैं , दूसरी ओर तप में बाधा डालने पर ’काम’ और ’प्रेम के देवता’ ’कामदेव’ को तीसरा नेत्र खोलकर भस्म भी कर देते हैं । ’लैला-मंजनू , ’शीरी -फरहाद’ ’सोहनी-महिवाल’ ’हीर-राॅझा ’ ’रोमियो-जूलियट’ जैसी प्रेम गाथाओ में ज्यादातर ने
अपने प्रेम के लिए प्राणोत्सर्ग कर दिया। त्याग ,बलिदान और प्राण देने की यह
अवधारणा ,सामंती समाज में जहाँ सभी तरह का
स्त्री-पुरूषो के बीच का प्रेम निषेध था उस व्यवस्था के खिलाफ आत्मघाती विद्रोह के
रूप में सामने आता है।
प्रेम तथा प्रेम विवाहो को कानूनी औैर राजनैतिक अधिकार अमेरिका तथा सम्पूर्ण
पश्चिमी जगत के देशो में सत्रहवी और अट्ठारहवी शताब्दी में ही मिल गये थे। वहाँ अब
प्रेम के लिए जान देने का रहस्य और
रोंमांच लगभग समाप्त हो गया है ,वहाँ पर आज जाति वर्ण से उपर उठकर शत प्रतिशत विवाह
हो रहे हैं । तथापि: प्रेम तथा विवाहो में ’वर्ग’ जरूर हाबी है , परन्तु यह तो वर्तमान सामाजिक व्यवस्था की
अनिवार्यता है। प्रेम का असली मुद्दा तो भारत सहित अधिकांश पूर्व के मुल्को में
है। यद्यपि हमारे देश का संविधान सभी को प्रेम करने तथा जाति धर्म से उपर उठकर
विवाह करने की अनुमति देता है। एक प्रेम विरोधी समाज में ’वालीवुड’ की प्रेम प्रधान फिल्मो का जादू आज भी लोगो के सिर पर चढ़ कर बोलता है, भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष के इतिहास में नब्बे प्रतिशत फिल्मो का मूल तथ्य
स्त्री पुरूषो के के बीच का प्रेम ही है। अगर सिनेमा से यह निकाल दिया जाये तो
सिनेमा के पास कहने के लिए कुछ नही बचेगा। अन्र्तविरोध यह है कि यह उस समाज में जहाँ
पर गोत्र तथा जाति से विवाह करने वाले
प्रेमी जोड़ो को खाप पंचायतो के हुक्म से फांसी पर लटकाया जाता हो ’’आनर किलिग’’ के नाम पर पिता बेटी की ,भाई बहन की हत्या करता हो ,अन्र्तधार्मिक विवाहो पर दंगे तक हो जाते हैं ।
अनेक अतिवादी धार्मिक संगठन
बम्बई दिल्ली ,बंगलौर जैसे महानगरो तक में बड़े-बड़े शापिंग काम्पलेक्स, पार्को आदि में अतिवादी धार्मिक संगठन प्रेमी जोड़ो से मारपीट तथा पिटाई तक
करते हैं , तथा पुलिस प्रशासन का कानून मूकदर्शक बना रहता है। यह सब उस देश में जहाँ साहित्य में मदनोत्सव मनाने का वर्णन आता हो जहाँ
राधाकृष्ण ,शिवपार्वती पूज्य हो इन्ही
विरोधाभासो को वेलेन्टाईन डे पर बाजार भुना रहा है। जहाँ दमन है वहाँ प्रतिरोध भी है। बाजार इस बात को
भली भांति जानता है। महानगरो तथा छोटे-छोटे शहरो में भी वेलेन्टाईन डे या
वेलेन्टाईन वीक में महंगे- मॅहगे गिफ्ट , शापिंग माल या रेस्टोरेन्ट में दावतें तथा चोरी छिपे या खुलेआम प्रेमी जोड़ो का मिलना
जुलना शायद इसी विद्रोह की परिणति या परिचायक है। जब तक प्रेम विरोधी इन समाजो में
संघर्ष का कोई नया औजार विकसित नही हो जाता है ऐसे उत्सवों का रहस्य व रोमांच बना रहेगा। बाजार गुलजार रहेंगें
,विरोधो की लाख कोशिशो के बावजूद।
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