कैराना:- जहर बुझी राजनीति का नया दौर
जावेद अनीस
भारतीय राजनीति विशेषकर उत्तर भारत में दंगों और वोट का
बहुत गहरा सम्बन्ध रहा है. कवि गोरख पांडे की लाईनें “इस बार दंगा बहुत बड़ा था, खूब हुई थी खून की बारिश,अगले साल अच्छी होगी,फसल मतदान की” आज भी
हकीकत है और हमारे समय में तो यह हकीकत और चुनौतीपूर्ण दिखाई पड़ती है जहाँ इस इस
दलदल में हम और गहरे तक धंस चुके हैं. वैसे तो आपसी रंजिशों की खायी चौड़ी करने, डर
व अफवाह फैलाकर लामबंदी करने के
इस खेल में लगभग सभी पार्टियाँ माहिर हैं लेकिन भाजपा और बाकी सियासी दलों के बीच
एक बुनियादी फर्क है, दूसरे दल यह काम फौरी सियासी फायदे के लिए करते हैं जिससे
जनता का ध्यान उनके असली और मुश्किल सवालों से हटाकर उन्हें ज़ज्बाती मसलों पर तोड़ते
हुए अपना उल्लू सीधा किया जा सके लेकिन भाजपा जिस विचारधारा से संचालित है वो अलग
तरह का हिन्दुस्तान रचना चाहती है इसे वे “हिन्दू राष्ट्र” कहते हैं. अपने इसी
मिशन को ध्यान में रखते हुए भाजपा और उसका पूरा संघ परिवार व्यवस्था और पूरे समाज पर
अपना वैचारिक हिजेमनी कायम करना चाहते हैं. इसके लिए वे स्थायी रूप से लोगों का
दिमाग बदलने की कोशिश करते हैं. इसीलिए दूसरी पार्टियों के मुकाबले जब भाजपा सत्ता
में आती है तो वह वयवस्था व समाज के हर हिस्से पर नियंत्रण और अपने विचारधारा का
वर्चस्व स्थापित करने के लिए बहुत ही सचेत और गंभीर प्रयास करती है.
पूर्व में भी लामबंदियां होती रही है, भाजपा पहले भी केंद्र
में सत्ता में रह चुकी है और कई राज्यों में तो उसकी लम्बे समय से सरकारें हैं, लेकिन
पिछले दो साल से व्यवस्था को अपने हिसाब से ढालने और समाज में ध्रुवीकरण करने का
जो संस्थागत प्रयास किया गया है वैसा पहले नहीं देखा गया है. 2014 में सिर्फ सामान्य
सत्ता परिवर्तन नहीं हुआ था यह एक विचारधारात्मक बदलाव था जिसके बाद तय हो गया कि
भारत 15 अगस्त 1947 को नियति से किये गए अपने वायदे से मुकर कर हिन्दू बहुसंख्यवादी
राष्ट्र बनने की दिशा में आगे बढ़ेगा. आज यह सब कुछ खुले तौर पर हो रहा है और इसमें
सत्ताधारी पार्टी के सांसदों से लेकर केंद्रीय मंत्रियों तक मुखरता से शामिल होते देखे
जा सकते हैं. पिछले दो सालों में इस देश ने बीफ, लव जिहाद, राष्ट्रवाद, योग जैसे
मुद्दों को एक सियासी हथियार के तौर पर उपयोग होते हुए देखा और झेला है. यह एक ऐसा
चलन है जिससे देश की तासीर बदल रही है.
दिल्ली और बिहार के सदमे के बाद भाजपा को असम में ऐतिहासिक
सफलता मिली है. अब उसकी निगाहें उत्तर प्रदेश पर हैं जहाँ अगले साल विधान सभा
चुनाव होने वाले हैं. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह एलान कर चुके है कि यूपी को किसी भी
कीमत पर जीतना है. यूपी में जीत से 2019 का रास्ता तो निकलेगा ही साथ ही राज्यसभा
में भी पार्टी का वर्चस्व हो जाएगा इसलिए भाजपा और मोदी सरकार यूपी के चुनाव को लाइफलाइन
मान कर चल रहे हैं .
इसलिए उत्तर प्रदेश के चुनाव में हर वह दावं आजमाया जाएगा जो
वोट दिला सके भले ही इसकी कीमत पीढ़ियों को चुकानी पड़े. भाजपा द्वारा उत्तर प्रदेश
में एक ओबीसी को पार्टी में राज्य का कमान सौप कर जाति की गोटियाँ फिट की जा चुकी
हैं, मोदी विकास के कसीदे गढ़ने के अपने चिर-परिचित काम में लग गये हैं, “योगी” और “साध्वी”
जैसे लोग जहर उगलने के अपने काम पर लगा दिए गये हैं और अब मीडिया के एक बड़े हिस्से
की मदद से “कैराना” में “कश्मीर” की खोज की
जाने लगी है. यह तो खेल का शुरूआती दौर है आने वाले दिनों में आग में घी की मात्रा
बढ़ती जायेगी.
इस बार भी इस
खेल का ग्राउंड पश्चिमी उत्तर प्रदेश ही है जहाँ मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हिंसा के
आरोपी और बीजेपी के वरिष्ठ नेता हुकुम सिंह ने “खुलासा” किया कि शामली जिले के
कैराना कस्बे में मुस्लिम समुदाय की धमकियों और दहशत की वजह से हिन्दू परिवार पलायन कर रहे हैं. उन्होंने
बाकायदा लिस्ट जारी करके बताया कि 346 हिंदु
परिवार पलायन कर चुके हैं. उस दौरान इलाहबाद में चल
रही राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक से बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह द्वारा इस मुद्दे
को तुरंत आगे बढ़ाते हुए बयान दिया गया कि ‘कैराना को हल्के में नहीं लिया जाना
चाहिए, यह हैरान कर देने वाला मामला है”. इस
खबर को मीडिया द्वारा भी खूब प्रचारित किया गया और नेताओं के भड़काऊ बयान प्रसारित
किये गये. हालांकि बाद
में इस लिस्ट को लेकर कई सवाल खड़े हुए और इसमें कई खामियां पायी गयीं जैसे इसमें लिस्ट
में शामिल कई नाम ऐसे पाये गये जो अवसरों की तलाश और अपराधियों के डर से बाहर चले
गए और कई लोग मर चुके हैं. मीडिया के एक हिस्से और प्रशासन द्वारा विपरीत खुलासे
के बाद हुकुम सिंह थोड़ा बैकफुट पर नजर आये और लिस्ट में कार्यकर्ताओं की चूक बताने लगे. हालांकि इसके बाद उनकी
तरफ से कांधला से पलायन करने वालों की दूसरी सूची भी जारी की गयी. इस सूची
में भी सभी नाम हिन्दू थे. कैराना के इस पूरे घटनाक्रम में अपने आप को
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहने वाले मीडिया की भूमिया भी बहुत निंदनीय है. जिस
मीडिया से इस तरह के समाज को बाटने वाले साजिशों का पर्दाफ़ाश करने की उम्मीद की
जाती है उसका एक हिस्सा अफवाह और नफरत फैलाने वालों का भोपूं बना नजर आया.
कैराना के मसले पर झूठ बेनकाब होने के बाद भाजपा सांसद को भले ही अपनी
बात से पलटने को मजबूर होना पड़ा हो लेकिन इस झूठ को भुनाने की हर मुमकिन कोशिश की
गयी. मुजफ्फरनगर दंगों के आरोपी और भाजपा विधायक संगीत सोम द्वारा 'निर्भय
यात्रा' का ऐलान
करके माहौल को और बिगाड़ने की कोशिश की गयी हालांकि धारा 144 लागू होने
के कारण इस यात्रा
को बीच
में ही रोकना पड़ा
लेकिन संगीत सोम ने अखिलेश सरकार को यह अल्टिमेटम दिया है कि कैराना से गए लोगों को 15 दिन में वापस लाया जाए, नहीं तो बड़े स्तर पर
प्रदर्शन किया जाएगा.
इससे पहले दादरी के मसले को फिर छेड़ा जा चूका है जिसकी शुरुआत
फॉरेंसिक रिपोर्ट आने के
बाद हुई जिसमें अखलाक के फ्रिज में गाय
के मॉस का होना बताया गया, इसके बाद महापंचायतों का आयोजन करके अखलाक के परिवार के खिलाफ कार्रवाई की मांग की जाने लगी और ऐसा ना करने पर अंजाम भुगतने की चेतावनी दी जा रही है.
लेकिन यह ना तो यह शुरुआत थी और ना ही अंत है. 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान भी कुछ इसी तरह का खेल
खेला गया था, तब मुजफ्फरनगर केंद्र में था जहाँ नफरती अफवाहें गढ़ी गयीं थी और परिवारों,व्यक्तियों
की लड़ाईयों को समुदायों की लड़ाई में तब्दील कर दिया गया था. जिसमें
मुसलमानों की दो जगह ’पाकिस्तान या कब्रिस्तान’
और ’बहू बेटी सम्मान बचाओ’ जैसे नारे चलाये गये. मुजफ्फरनगर और आसपास के जिलों से बड़ी संख्या में मुसलामानों के घरों को लूटने और
जलाने का काम किया गया जिसके बाद से वे राहत कैंप को ही अपना स्थायी निवास बनाने
को मजबूर हैं.इस खेल
के केंद्र में तब के भाजपा महासचिव अमित शाह थे जिन्होंने यह बयान दिया था कि "उत्तर प्रदेश और ख़ासकर पश्चिमी उत्तर
प्रदेश के लिए यह चुनाव सम्मान की लड़ाई है,यह चुनाव 'बेइज़्ज़ती'
का बदला लेने के लिए है, यह चुनाव उन लोगों के लिए सबक सिखाने का मौका है जिन्होंने
ज़ुल्म ढाए हैं." जिसके बाद भाजपा को
उत्तरप्रदेश से ही सबसे ज्यादा सीटें आयीं थी. जिसने मोदी को प्रधानमंत्री बाबाने
में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. लेकिन एक ही
झटके में पूरे इलाके का सामाजिक तानाबाना बिखर सा गया जो
खायी बनायी गयी थी उसे पाटने में लम्बा वक्त लग सकता है. “कैराना”
को “मुजफ्फरनगर” से जोड़ने का
सचेत प्रयास भी किया गया है और बाकायदा यह अफवाह फैलाई गयी कि “कैराना” में जो कुछ हो रहा है उसके पीछे मुजफ्फरनगर दंगे के बाद वहां
विस्थापित मुस्लिमों जिम्मेदार हैं.
इसकी कोई वजह नज़र नहीं आती कि इस
खेल को दोहराया नहीं जाये . भाजपा एक बार फिर हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण की कोशिश
में है ताकि अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में फायदा उठाया जा सके.लेकिन
इस खेल में भाजपा अकेली नहीं है,गणित बहुत सीधा सा है अगर हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण
होगा तो मुस्लिम वोटर भी पीछे नहीं रहेंगें. सत्ताधारी सपा इस खेल की दूसरी खिलाड़ी
है. पिछली बार मुज़फ्फरनगर भी में जो हुआ उसमें सपा सरकार का रिस्पोंस बहुत ढीला
था, जिसकी वजह से मामला इतना आगे बढ़ सका था. पिछले कुछ सालों से पश्चिमी उ.प्र में
जो खेल रचा जा रहा है अखिलेश सरकार उस पर रोक लगाने में पूरी तरह नाकाम रही है. इस
बार विधानसभा चुनाव में यह सम्भावना जताई जा रही है कि सपा के मुस्लिम वोट बसपा को
जा सकते हैं. ऐसे में अगर भाजपा हिन्दू वोटरों की लामबंदी करती है तो मुस्लिम वोट
सपा की तरफ आ सकते हैं. दरअसल कैराना में पूरा
मसला राज्य सरकार और प्रशासन की बेपरवाही, निकम्मेपन और गुंडों के राजनीतिक
संरक्षण से जुड़ा हुआ है. इसलिए भाजपा इसे साम्प्रदायिक घटना के तौर पर पेश करने को सपा
अपने फायदे के रूप में देखती है .
अगर सोशल मीडिया को समाज का आईना माना जाए
तो कैराना में फैलाया गया जहर अपना काम कर चूका
है लेकिन धरातल पर हिन्दुओं
और मुसलामानों को डराकर वोट बटोरने की रणनीति कितनी कामयाब होगी यह आने वाला समय
ही बताएगा. लेकिन शायद इस बार उत्तरप्रदेश के चुनाव में भाजपा “पलायन” को एक महत्वपूर्ण मुद्दा बनाने
जा रही है जिसके सहारे वह सम्प्रदायिक लामबंदी का प्रयास करेगी. आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के उस बयान से भी यह सम्भावना मजबूत होती
है जिसमें उन्होंने कहा है कि “आज के समय में विस्थापन की खबरें ‘दुखदायी और परेशान करने वाली’ हैं, लोगों के मन से निराशा दूर होनी चाहिए, हिंदुओं का पलायन रोकना सरकार की जिम्मेदारी है”. अब फ्रंट पर विश्व हिंदू परिषद को ले आया गया है जो यह दावा कर रही है कि कि कैराना ही नहीं बल्कि मुरादाबाद, संभल, आगरा,
बिजनौर, मुरादाबाद, अमरोहा, रामपुर में भी बड़ी संख्या में हिंदू
परिवार पलायन कर रहे हैं.
दरअसल समस्या आपसी भरोसा टूट
जाने का है जिसे यह जहरीली राजनीति और चौड़ी कर रही है. यह केवल कैराना या मुजफ्फरनगर की
बात नहीं है और ना ही एक समुदाय का मसला है आज देश के एक बड़े हिस्से में हिंदू और
मुसलमान दोनों एक-दूसरे के 'इलाकों' को छोड़कर अपने सहधर्मियों के इलाकों में
बस रहे हैं, और नयी बस्तियां धार्मिक आधार पर अलग-अलग बस रही हैं.
मौजूदा
हालात को देखते हुए आज हमारे समाज, व्यवस्था और राजनीती से जो लोग इस खेल में
शामिल नहीं हैं उन्हें कुछ बुनियादी सवालों को लेकर गंभीरतापूर्वक सोचना होगा. चुनाव तो इसलिए कराये जाते हैं ताकि एक लोकतान्त्रिक
प्रक्रिया के तहत जनता अपने राजनीतिक प्रतिनिधियों को चुन सके लेकिन इस पूरी
प्रक्रिया को समुदायों को एक दूसरे के खिलाफ भिड़ा देने का इवेंट बना दिया गया,
कहाँ सियासी जमातों से यह उम्मीद की जाती है कि अगर समाज में वैमनस्य और आपसी
मनमुटाव हो तो उसे दूर करने की दिशा में आगे आयेंगीं लेकिन ज्यदातर इसे हवा देने का
काम किया जाता हैं या चुप्पी ओढ़ ली जाती है और कई बार झूठे मुद्दे गढ़े जाते हैं
ताकि समाज को बांटा जा सके. भाजपा आज सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी है और पूरे बहुमत के
साथ केंद्र में सत्ता में है भविष्य में भी उसकी संभावनायें अच्छी जान पड़ती हैं.
उसे पता होना चाहिए कि समुदायों के बीच अदावत पैदा करके सत्ता भले ही हासिल कर ली
जाए लेकिन स्थायी शासन के लिए समाज में शांति और आपसी सौहार्द का बना रहना बहुत
जरूरी है. समाज को भी मिल बैठ कर सोचना चाहिये, क्योंकि आखिर में वही इस पर लगाम
लगा सकता है. फिलहाल 2017 के चुनाव का दौर उत्तर प्रदेश पर भारी साबित होने जा रहा है वहां 2013 में आपसी रिश्तों के जो धागे
टूटे थे वे अभी तक नहीं जुड़े हैं अब इस
धागे को ही सिरे से गायब करने की साजिश
रची जा रही है.
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