इरोम चानू शर्मिला और अनशन


एल. एस. हरदेनिया



दिनांक 2 नवंबर 2000 को असम रायफल्स के जवान मणिपुर के मलकाम नामक शहर में दस लोगों को गोली से मार डालते हैं। ये दस लोग मलकाम के बस स्टाप पर खड़े हुए थे। उनका कोई कसूर नहीं था। इसके बावजूद उन्हें मार डाला गया। इस घटना से इरोम चानू शर्मिला इतनी आक्रोषित हुईं कि उन्होंने दिनांक 5 नवंबर से अपना अनिष्चितकालीन अनशन प्रारंभ कर दिया। उन्होंने शपथ ली कि मैं न तो कुछ खाउंगी, न कुछ पियूंगी, मैं अपने बालों पर कंघी भी नहीं करूंगी, मैं आईने में अपनी शक्ल भी नहीं देखूंगी और अनषन के दौरान अपनी मां सहित, अपने परिवार के सदस्यों से भी नहीं मिलूंगी।

वर्ष 2000 से प्रारंभ यह अनषन अभी तक जारी है। परंतु दिनांक 26 जुलाई 2016 को शर्मिला ने घोषित किया है कि वे अब अपने अनिष्चितकालीन अनशन को समाप्त कर रही हैं। दिनांक 9 अगस्त को वे विधिवत अपना अनशन समाप्त करेंगी।

इस अभूतपूर्व इच्छाशक्ति की धनी महिला का जन्म 14 मार्च, 1972 को हुआ था। सारी दुनिया में वे मणिपुर की इस्पाती (आयरन) महिला के नाम से जानी जाती हैं। सारी दुनिया में उनका अभूतपूर्व सम्मान है। मानव अधिकारों के लिए संघर्षरत यह महिला कविता भी लिखती हैं। लगातार 500 सप्ताहों तक उन्होंने अनशन किया। दुनिया में किसी ने भी इतने लंबे समय तक भूख हड़ताल नहीं की होगी, महात्मा गांधी ने भी नहीं।

वर्ष 2014 में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर उन्हें दुनिया की सर्वश्रेष्ठ संघर्षरत महिला घोषित किया गया था। दिनांक 19 अगस्त, 2014 को अदालत ने उन्हें रिहा कर दिया था। उन्हें इन 16 वर्षों के दौरान अनेक बार गिरफ्तार किया गया। एम्नेस्टी इंटरनेषनल नाम की एक संस्था ने उन्हें ‘‘विवेक की कैदी’’ घोषित किया। अपने अनिष्चितकालीन अनशन को समाप्त करने की घोषणा के साथ-साथ शर्मिला ने यह भी घोषित किया है कि वे अब चुनाव लड़ेंगी।

मणिपुर उत्तरपूर्वी भारत के सात राज्यों में से एक है। इन सात राज्यों को सात बहनों का राज्य कहा जाता है। उत्तरपूर्व के अन्य राज्यों के समान यहां भी अनेक ऐसे समूह हैं जो स्वयं को विद्रोही निरूपित करते हैं। 2005 से लेकर 2015 तक लगभग 5,500 लोग राजनीतिक हिंसा के शिकार हुए हैं। वर्ष 1958 में भारत सरकार ने एक कानून बनाया। इसे उत्तरपूर्व के सभी राज्यों में लागू किया गया। इस कानून के अंतर्गत सुरक्षा दलों को यह अधिकार दिया गया कि वे बिना किसी वारंट के लोगों के घरों में घुसकर तलाषी ले सकते हैं। किसी को भी गिरफ्तार कर सकते हैं और यदि संदेह हो तो हर प्रकार की शक्ति का उपयोग कर सकते हैं।

उत्तरपूर्व के राज्यों के अतिरिक्त यह कानून जम्मू-कश्मीर में भी लागू है। इस कानून से इन राज्यों में कैसा आतंक रहता है यह मैंने स्वयं अनुभव किया है। आज से दो वर्ष पूर्व पत्रकारों के एक सम्मेलन में मुझे मणिपुर जाने का मौका मिला था। पूरे शहर के हर कोने में फौजी यूनीफार्म पहने हुए लोग सड़कों पर खड़े दिखते थे, उनके हाथों में बंदूकें रहती हैं। एक दिन मणिपुर की सीमा पर स्थित बर्मा के बाजार में हमें ले जाया गया। रास्ते में कदम-कदम पर फौजी खड़े नज़र आए। इस तरह के फौजियों या पुलिस को सड़कों पर उस समय खड़ा किया जाता है जब राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री जैसे प्रमुखजनों का आवागमन होता है। मुझे बताया गया कि ये फौजी 24 घंटे सड़कों पर खड़े रहते हैं, चाहे मौसम सर्दी, गर्मी या बरसात का हो।
रात को जब हम लोग वापिस आ रहे थे तो यकायक हमारी कारों का काफला रूक गया और हमें बताया गया कि कुछ विद्रोही युवकों ने रास्ता रोक लिया है। इन युवकों को यह सूचना मिली थी कि एक मंत्री उस रास्ते से गुज़रने वाला है। वे उस मंत्री से नाराज़ थे। गलतफहमी में इन लोगों ने हमारे काफिले को रोक लिया। परंतु हम देखते हैं कि फौजी वर्दी के लोग वहां से गायब थे। हमारी सहायता करने की बजाए वे वहां से भाग गए। परंतु जब इन युवकों को पता लगा कि हम लोग पत्रकार हैं तो उन्होंने हमको जाने दिया।

इस तरह मणिपुर में स्थिति इतनी गंभीर है कि वहां के निवासी फौज के आतंक से भी नहीं डरते हैं। परंतु जब भी कभी अवसर मिलता है तो ये सुरक्षा दल के लोग बड़े पैमाने पर ज्यादतियां करते हैं। विद्रोही लोगों के अलावा निर्दोष व्यक्तियों पर भी ज्यादतियां करते हैं। सेना की इसी तरह की ज्यादतियों से परेषान होकर एक दिन महिलाओं के एक समूह ने अपने कपड़े उतारकर सेना को चुनौती दी कि यदि तुम में हिम्मत है तो आओ और हमारे साथ बलात्कार करो। इस समूह में शामिल 30 महिलाओं ने असम रायफल्स के मुख्यालय के सामने खड़े होकर अपनी आवाज़ बुलंद की थी। वे एक बैनर लिए हुए थीं जिसमें लिखा था ‘‘भारतीय सैनिकों हिम्मत हो तो हमारे साथ बलात्कार करो’’। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था और तीन महीनों तक जेल में रखा।

मणिपुर के अलावा मेरा एक और अनुभव है। हम लोग गुवाहाटी में एक सम्मेलन में गए हुए थे। एक दिन हमें मेघालय की राजधानी शिलांग में ले जाया गया। वापिस आते हुए हमें देर हो गई। गुवाहाटी की सीमा पर पत्रकारों से भरी हमारी बस को रोक लिया गया और तीन-चार सेना के जवान बस में चढ़ गए। उनने आते से ही कहा कि हम लोग अपने परिचय पत्र दिखाएं और इसका सबूत दें कि हम लोग आतंकवादी नहीं हैं। वे जबरदस्ती हमारे पाॅकिट से परिचय पत्र निकालने लगे। एक सैनिक ने मेरी पाॅकिट में हाथ डाला। वह शराब पिए हुए था उसके मुंह से बदबू आ रही थी। मैंने उससे कहा कि तुम नषे में हो दूर हटो। यह सुनकर वह गुस्से में आ गया। बस में बैठे हुए असम के पत्रकारों ने मुझे सलाह दी कि मैं चुप रहूं और इनके साथ किसी भी प्रकार की छेड़खानी न करूं। यदि ये भड़क जाएंगे तो हमारी बस को सेना के मुख्यालय में ले जाएंगे और वहां हमारी रातभर पिटाई करेंगे। दूसरे दिन पुलिस हमारी रिपोर्ट भी नहीं लिखेगी और हम कुछ भी नहीं कर पाएंगे।
ये दो घटनाएं इस बात को सिद्ध करती हैं कि उत्तरपूर्व के राज्यों में सुरक्षाकर्मियों का कितना आतंक है।

वर्ष 2000 में अपना अनिष्चितकालीन अनशन शुरू करने के पूर्व शर्मिला अनेक आंदोलनों में शामिल रहती थीं। वर्ष 2000 में जब उन्होंने अनषन प्रारंभ किया उस समय उनकी आयु 28 वर्ष की थी। उनकी मांग थी कि जिस विशेष  कानून के सहारे सुरक्षाकर्मी आतंक फैलाते हैं उसे वापिस लिया जाए। आज तक उनकी यह मांग पूरी नहीं हुई है। अनषन प्रारंभ होने के ठीक तीन दिन बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और उनके ऊपर आत्महत्या का प्रयास करने का आरोप लगाया गया।

हमारे कानून में आत्महत्या करना एक गंभीर अपराध माना जाता है। उन्होंने अनषन तोड़ने से इंकार कर दिया और उसके बाद उन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। दिन-प्रतिदिन उनका स्वास्थ्य बिगड़ता रहा और दिनांक 21 नवंबर से उन्हें जबरदस्ती नाक के सहारे ऐसी दवाईयां दी जाने लगीं जिससे वे जिंदा रहें।

हर बार एक वर्ष के भीतर अदालत उन्हें छोड़ देती थी। रिहा होने के तुरंत बाद वे फिर से अपना अनषन प्रारंभ कर देती थीं। वर्ष 2006 में इसी तरह की रिहाई के दौरान वे दिल्ली गईं। दिल्ली जाने का उनका उद्देष्य राजघाट में महात्मा गांधी को अपना श्रद्धासुमन अर्पित करना थे। राजघाट से वे जंतरमंतर के लिए रवाना हुईं जहां पर बड़ी संख्या में छात्र, मानव अधिकार के लिए समर्पित लोग और जागरूक नागरिक उनका इंतजार कर रहे थे। ठीक उसी दिन असम की उन 30 महिलाओं ने जिनका वर्णन ऊपर दिया जा चुका है ने नग्न होकर शर्मिला को अपना समर्थन व्यक्त किया। दिल्ली की पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया उसके बाद उन्हें अस्पताल में भर्ती कर दिया गया जहां से उन्होंने प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और गृहमंत्री को पत्र लिखे। जब वे अस्पताल में थीं तब उन्हें अनेक नोबल पुरस्कार विजेता लोगों ने अपने समर्थन की सूचना दी। दुनिया के अनेक संगठनों ने उन्हें सूचित किया कि वे उनके मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में उठाएंगे।

वर्ष 2011 में मणिपुर की तृणमूल कांग्रेस ने उन्हें अपना समर्थन दिया। माक्र्सवादी, लैनिनवादी, कम्युनिस्ट पार्टी ने भी उन्हें अपना समर्थन दिया। इन सभी संगठनों ने यह मांग की कि आर्मड फोर्सेस कानून रद्द किया जाए। वर्ष 2011 में ही जब उनके अनषन के 11 वर्ष हो चुके थे उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से अपील की कि वे इस काले कानून को वापिस ले लें। इस दौरान अनेक स्थानों पर उनके समर्थन में प्रदर्षन, धरने व आंदोलन होते रहे। वर्ष 2011 में संपूर्ण देश में एक साथ उनके समर्थन में गतिविधियां हुईं। वर्ष 2011 दिसंबर माह में पुणे विष्वविद्यालय ने मणिपुर के 39 छात्राओं के लिए शर्मिला के सम्मान में स्कालरषिप देने की घोषणा की। इस दरम्यान वे एक ही बार अपनी मां से मिलीं। वे कहती थीं कि वे अपनी मां से इसलिए नहीं मिलना चाहती कि कहीं उनकी स्थिति को देखकर मैं अपना अनषन न तोड़ दूं। वे अनेक बार यह घोषणा कर चुकी हैं कि जिस दिन यह काला कानून वापिस लिया जाएगा मैं अपनी मां के द्वारा पका हुआ चावल उन्हीं के हाथ से खाउंगी।

दिनांक 28 मार्च, 2016 को इम्फाल की एक स्थानीय अदालत ने उनके विरूद्ध लगाए गए आरोपों को रद्द करते हुए उन्हें न्यायालयीन हिरासत से आज़ाद कर दिया। इसके बावजूद वे न तो अपने घर गईं और ना ही अपनी मां से मिलीं। उनका कहना था की जब तक यह कानून वापिस नहीं होता है वे अपना अनषन जारी रखेंगीं । आज भी उनका अनशन शहीद मीनार पर चालू है। उन्हें फिर गिरफ्तार किया गया और उन पर आत्महत्या के प्रयास का आरोप लगाया गया।

उन्हें दुनिया के अनेक सम्मानों से सम्मानित किया गया है। अब शर्मिला जी ने यह घोषणा कर दी है कि वे अब अनशन को त्याग रही हैं और राजनीतिक गतिविधियों के माध्यम से अपनी मांग को पूरी करवाने का प्रयास करेंगी। उन्होंने कहा है कि वे चुनाव भी लड़ेंगी और विवाह भी करेंगी।


शर्मिला जी से एक निवेदन यह भी है कि वे जहां एक ओर फौजों की ज्यादतियों का विरोध करती हैं वहीं उन्हें उन राज्यों के निवासियों से भी कहना चाहिए कि वे उन युवकों को समझाएं जो विद्रोह का रास्ता अपनाते हैं और कभी-कभी यह मांग भी करते हैं कि वे भारत से अलग होना चाहते हैं। जनसंघर्ष में बड़ी शक्ति होती है। अभी हाल में तुर्की के लोगों ने यह दिखा दिया है। तुर्की के आक्रोषित लोगों ने अपनी संगठित शक्ति के ज़रिए सेना को मज़बूर कर दिया कि वह अपने टैंकों को वापिस करें और फिर से बैरकों में चले जाएं। इस तरह की स्थिति मिस्र की जनता ने भी कि जब उन्होंने अपने तानाषाह का तख्ता पलट दिया। शर्मिला को चाहिए कि वे आक्रोषित जनता की शक्ति का सहारा लेकर वहां सेना को बैरकों में जाने के लिए मजबूर कर दें वहीं वहां के युवकों को भी हिंसा का रास्ता छोड़ने को प्रेरित करें।

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