महाश्वेता देवी का निधन अपूरणीय क्षति
एल. एस. हरदेनिया
महान साहित्यकार एवं हिंदुस्तान की
गरीब, शोषित, पीड़ित
जनता की हमदर्द पक्षधर और उनके अधिकारों के लिए लड़ने वाली महाश्वेता देवी का
दिनांक 28 जुलाई 2016 को 90 वर्ष की आयु में देहावसान हो गया। उनका जन्म 14 जनवरी, 1926 को ढाका, जो इस समय बांग्लादेश की राजधानी है, में हुआ था। उनके पिता का नाम मनीश घटक
और मां का नाम धरित्री देवी था। वे नौ भाई-बहनों में सबसे बड़ी थीं। उनकी प्रारंभिक
शिक्षा ढाका के इडेन मांटेसरी स्कूल में
हुई। उसके बाद 1939 में कलकत्ता के आषुतोश कालेज से इंटर की परीक्षा पास की। बाद
में वे शांति निकेतन में भी पढ़ीं।
20 जनवरी, 1947 को प्रसिद्ध रंगकर्मी व लेखक विजन
भट्टाचार्य से उनका विवाह हुआ। उनके पति कम्युनिस्ट थे। उनके पति के कम्युनिस्ट
होने के कारण उन्हें अनेक प्रकार की कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। पचास के दशक में
कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े लोगों को संदेह से देखा जाता था। महाश्वेता देवी को एक
सरकारी नौकरी मिल गई परंतु थोड़े दिनों के बाद उन्हें उस नौकरी से निकाल दिया गया
क्योंकि उनके पति कम्युनिस्ट थे।
प्रारंभ से ही उनका लिखने के प्रति
झुकाव रहा। जीवन भर महाश्वेता की चिंता उन लोगों के लिए रही जो असहिष्णु समाज के शिकार
हैं। पीड़ितों, उपेक्षितों और शोषितों के प्रति उनका
लगाव स्थायी और वास्तविक था। शोषितों, विशेषकर आदिवासियों, के लिए उन्होंने अनेक मैदानी संघर्ष भी
किए। उनकी रचनाएं अन्याए के विरूद्ध इंसान के संघर्ष, महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं। उन्होंने
समाज के उन लोगों के दुःख को अपने साहित्य का आधार बनाया। महाश्वेता देवी उन लोगों
में से थीं जो उनके साहित्य के साथ-साथ, आम
लोगों के प्रति उनके मन में जो व्यथा थी उसके लिए भी वह जानी जाएंगी। उनके मन में
निष्चल भोले-भाले सांस्कृतिक तौर पर अत्यंत समृद्ध आदिवासियों के प्रति जो दर्द था
वह हमारे सभ्य समाज को चकित करता है।
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उन्होंने आदिवासी
अंचलों के सुख-दुःख के बारे में समय-समय पर लिखा। वे अमर साहित्यकार के रूप में हमेशा
याद की जाएंगी। पलामू के बंधुआ मज़दूरों के बीच काम करते हुए महाश्वेता देवी ने कई
तथ्य एकत्रित किए थे। उन्हीं तथ्यों के आधार पर एक पुस्तक तैयार हुई जिसका शीर्षक
था ‘भारत के बंधुआ मज़दूर’। महाश्वेता देवी के साहित्य में, सामंती ताकतों के शोषण, उत्पीड़न, छलछद्म के विरूद्ध संघर्ष जारी रहता है। संघर्षरत व्यक्ति मार भी
खाता है, क्रूरता और बबर्रता होने के बावजूद
सीना तानकर खड़ा रहता है। उनकी अनेक कृतियों में झांसी की रानी के ऊपर लिखी एक कृति
भी शामिल है। झांसी की रानी कौन थीं? उनकी
गतिविधियां क्या थीं? क्यों उन्होंने संघर्ष किया? यह उन्होंने इतिहास की पुस्तकों से
जाना। परंतु वे झांसी की रानी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को आत्मसात करने के लिए
झांसी भी गईं। उन्होंने बुंदेलखंड के चप्पे-चप्पे को अपने कदमों से नापा। वहां के
लोकगीतों को कलमबद्ध किया। झांसी की रानी की जीवनी लिखने वाले वृदांवनलाल वर्मा से
मिलीं। न्यूएज़ ने उनकी किताब को छापा और उन्हें 500 रूपए पारिश्रमिक के रूप में
दिए। यह उनकी पहली रचना थी। जिसके बाद उनकी लोकप्रियता में दिन-प्रतिदिन बढ़ोत्तरी
होती रही।
कुछ वर्षों पूर्व वे भोपाल आईं थीं।
भोपाल के प्रवास के दौरान उनके अनेक कार्यक्रम हुए। उनमें से एक कार्यक्रम को आयोजित करने का सौभाग्य मुझे
भी मिला था। उनके भोपाल प्रवास के दौरान स्वर्गीय कमला प्रसाद ने उनका लंबा
इंटरव्यू लिया था। इस लंबे इंटरव्यू में उन्होंने अपनी जीवन यात्रा का विस्तृत
विवरण दिया है। इस लंबे इंटरव्यू में उन्होंने अनेक प्रश्नों के उत्तर दिए थे।
जैसे उनसे पूछा गया कि लेखक को किसी संगठन का सदस्य होना चाहिए या नहीं ? इसका जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि
हां होना चाहिए। उन्होंने कहा कि मेरा जो आदिवासी क्षेत्र है सुबह से आप देखेंगे
कि कितने परेषान आदमी इधर-उधर बिखरे रहते हैं। किसी की ज़मीन हड़प ली जाती है तो
किसी की ज़मीन पर कब्जा कर लिया जाता है। उन्हें कौन सहारा देता है?
कमला प्रसाद जी ने उनसे नक्सलियों की
गतिविधियों के बारे में सवाल पूछे थे। कमला प्रसाद जी ने उनसे पूछा था कि आपकी
नक्सलियों के साथ सहानुभूति है, इसका
क्या कारण है? उन्होंने उत्तर दिया ‘‘क्योंकि नक्सलियों का मूवमेंट मैंने
देखा है। उसके पहले मैंने भारत घूमा था, उसके
बहुत पहले जब 1942 का आंदोलन हुआ तब मैं लेखिका नहीं थी। जब 1943 का बंगाल फेमिन
हुआ, बड़ा अकाल हुआ, मैं लेखिका नहीं थी। भारत भ्रमण किया
तब मैं लेखिका नहीं थी, लेकिन जब मैं बड़ी हुई और चिंतन शुरू
किया तब मैंने नक्सलियों का मूवमेंट देखा, उनमें
सिनसियरिटी थी, वे जनता की आवाज़ उठाते थे। अत्याचार के
खिलाफ लड़ना उनका काम था।’’
फिर उनसे पूछा गया कि उनकी हिंसक
गतिविधियों के बारे में आपका क्या कहना है, तो
उन्होंने जवाब दिया कि पूरे भारतीय समाज में कितनी हिंसा है। नक्सलियों ने कितनों
को मारा और भारत सरकार ने कितनों को मारा। इमरजेंसी हुई कितने मरे, कोई इधर मरा तो कोई उधर मरा। हम भाग
नहीं सकते हैं। कितना बड़ा राजनीतिक परिदृष्य था, उसमें कितने एंटीसोषल लोगों की राजनीति चलती थी। नक्सलवादी आंदोलन
भारत में है, सरकार नक्सलियों के खिलाफ है।
इसी तरह उन्होंने दलित आंदोलनों के
बारे में अपनी सहानुभूति प्रकट की। दलितों के प्रति समाज के रवैये पर उन्होंने
भारी चिंता प्रकट की। आज भी इन दलितों की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।
महिलाओं की स्थिति के बारे में उन्होंने कहा कि अकेली महिला ही शोषित नहीं हैं।
गरीब औरत, मर्द, बच्चे सभी शोषित हैं।
प्रेमचंद के बारे में पूछने पर
उन्होंने कहा कि मैंने प्रेमचंद को खूब पढ़ा है। मैं उनकी रचनाओं का सम्मान करती
हूं। उनसे जब यह पूछा गया कि उनकी भविष्य की योजनाएं क्या हैं, तो उन्होंने कहा कि मैं अभी एक संगठन
बना रही हूं। मेरे साथ बहुत सारे बंधु हैं। उन सबसे मेरा बहुत विचार हुआ है। उनमें
मैं विशेषकर दी-नोटिफाइड लोगों के लिए काम करना चाहती हूं। अभी उन्हें अपराधियों
की कौम समझा जाता है। मेरी यह कोशिश है कि उन्हें भी इंसान का दर्जा दिया जाए।
एक व्यक्तिगत सवाल उनसे पूछा गया कि जब
आप यहां-वहां जाती हैं तो अपने साथ क्या-क्या सामान ले जाती हैं? उन्होंने बताया मेरी बहू भी मौजूद है, मेरे घर के आसपास के लोग कहते हैं कि
जब तुम जाती हो तो ज्यादा कपड़े क्यों नहीं ले जातीं? मेरे पड़ोसी मुझे साड़ी, ब्लाउज
देते हैं। मुझे सबका भरपूर प्यार मिला है। उन्होंने अपने लंबे इंटरव्यू के दौरान
प्रेमचंद को फिर याद किया और कहा कि सबको प्रेमचंद को पढ़ना चाहिए। मैं तो कहूंगी
कि नानक को भी याद करो। जो भी अच्छे हैं उन सबको याद करो।
अपने जीवन के बारे में उन्होंने कहा कि
मेरा जीवन मेरा-तेरा, ये मेरा-तेरा की बात है। इसका पालन आज
के लेखकों को करना चाहिए। भारतीय लेखक को यह समझना चाहिए। मैं तो उस व्यक्ति को
बहुत धनी समझती हूं, जिसके ऊपर छांव है, जिसे दो वक्त का खाना मिलता है। मैं
यदि किसी और को दाल भांत खिला सकूं तो इससे बड़ा वरदान और क्या हो सकता है। देश में
चारों तरफ दुःख है। कहीं पानी नहीं है, कहीं
खाना नहीं हैं। आदिवासियों की हालत तो खस्ता है ही, बाकी लोगों की हालत भी दयनीय है। जब सारे देष की हालत खराब है तो
मुझे क्या अधिकार है कि मैं सिर्फ अपने बारे में सोचूं। सभी को दूसरों के बारे में
सोचना चाहिए। वही इंसान, इंसान है जो दूसरों के बारे में सोचे
और दूसरों के लिए जिए।
इस लेख में महाश्वेता देवी की महानता
की थोड़ी-बहुत चर्चा हुई है वे इससे भी बहुत महान थीं। आने वाली पीढ़ियां उन्हें हमेशा
याद करेंगी।
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