सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना
स्वदेश कुमार
सिन्हा
आखिर इरोम क्या
करें निर्मम सरकारों के सिर पर जूँ तक नहीं रेंगती और समाज का मोथरापन बढ़ता जा
रहा है। सिविल सोसाइटी जल्दी थक जाती है। शहादत तो सुकरात ,ईसामसीह और भगत सिंह की भी बस एक सीमा तक प्रेरणा दे पा रही है।
ऐसे में व्यक्तिगत सत्याग्रह कैसे सामाजिक प्रतिरोध बनें क्या इस पर गम्भीरता से
सोचने और कुछ नया उसमें ढूढने की जरूरत नहीं है
-
लाल बहादूर वर्मा
की फेसबुक वाल से
एक्टिविस्ट
इतिहासकार तथा सामाजिक सरोकारों वाले प्रो. लाल बहादूर वर्मा लम्बे समय तक इम्फाल
मणिपुर विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर रहे हैं। मणिपुर के सामाजिक जीवन और
राजनीति पर उनका लिखा उपन्यास उत्तर पूर्व काफी चर्चित रहा था।
9 अगस्त 2016 को विगत 16 वर्षो सन् 2000 हजार से आर्म्स फोर्स स्पेशल पावर फोर्स एक्ट
(आफ्सा) को मणिपुर से समाप्त करने के लिए लगातार अनशन कर रही मानवाधिकार
कार्यकर्ता इरोम शर्मिला द्वारा अपना अनशन समाप्त करने तथा विधान सभा चुनाव लड़ने
की घोषणा करने के पश्चात देश भर में सामाजिक सरोकारों से जुड़े बौद्धिक वर्ग की
प्रतिक्रिया कुछ इसी तरह की थी। इरोम 16 वर्षों तक लगातार अपनी लक्ष्यों पर डटी रही उन
पर आत्म हत्या करने का मुकदमा दर्ज किया गया। गिरफ्तार करके जबरन नली से खाना
खिलाने की कोशिश की गयी , परन्तु वे अपने निश्चय से डिग्री नहीं। परन्तु
आज जब वे 16 वर्षों के अपने असफल प्रयास
के बाद अनशन समाप्त करने चुनाव लड़ने तथा मुख्यमंत्री बनकर इस काले कानून को
समाप्त करने की बात करती हैं, तब उनके कथन में आशा से ज्यादा निराशा ही झलकती
है। निश्चय ही अनशन के गाँधी वादी तरीके से उनकी आस्था डिगी है और यह स्वाभाविक भी
है।
इन 16 वर्षो में( आफ्सा कानून और कड़ाई से लागू हुआ
तथा इसका दायरा छत्तीस गढ़ तक बढ़ गया है। मणिपुर में सेना द्वारा औरतों के साथ
बलात्कार करने तक की घटना सामने आयी। जिसमें मनोरमा देवी के साथ हुयी घटना की
मीडिया में प्रमुखता से छपी तथा इसके विरोध में मणिपुर में महिलाओं द्वारा नग्न
होकर विरोध करने की घटना भी सुर्खियो में रही थी। निश्चित रूप से इरोम
मानवाधिकारों के संघर्ष की प्रतीक बन गयी थी। उनपर फिल्म तक बनी वे कई दिल्ली तक
आयी,
परन्तु वामपंथी गुटो को यदि छोड़ दिया जाये तो
उन्हें मणिपुर समेत समुचे पूर्वोत्तर भारत के क्षेत्रीय दलों तक का उनकी जायज माँग
पर समर्थन हासिल नहीं हुआ । यहाँ तक कि मणिपुर की किसी राजनीतिक ने उन्हें विधान
सभा का टिकट देने की पेशकश नहीं की । उन्हें निर्दल के तौर पर चुनाव लड़ने की घोषणा
करनी पड़ी । आज समूचे भारतीय शासक वर्ग का मणिपुर सहित समूचे पूवोत्तर भारत का
असन्तोष केवल कानून व्यवस्था का ही मामला नजर आता है । देश की कथित एकता और अखंडता
की रक्षा के नाम पर राजनीतिक दलों के साथ - साथ बौद्धिक वर्ग का बडां तबका प्रायः
चुप्पी साधे रहता है । जो लोग आज संध परिवार के फासीवाद के खिलाफ संघर्ष करने की
रणनीतियां बना रहे है वे भी प्रायः पूर्वोत्तर भारत तथा कश्मीर जैसे मुददों पर
शासक वर्गों के के साथ खड़े नजर आते है सरकारें चाहे जिसकी हो ।
शायद
यह तथ्य बहुत कम लोगों को पता हो की आज से करीब ५० वर्ष पहले पूर्वोत्तर भारत के
एक राज्य मिजोरम की एक राजधानी आइजोल पर भारतीय वायुसेना के विमानों ने वहाँ पर
मिजो नेशनल फंट के कथित विद्रोह को दबाने के नाम पर ५ मार्च १९६६ को बिना किसी
चेतावनी के भयानक बमबारी की थी तथा यह १३ मार्च तक चलती रही ,
जब तक आइजल शहर पूरी तरह नष्ट नहीं हो गया । इस
बमबारी में कितने लोग मरे गये इसका कोई आँकड़ा आज तक उपलबध नहीं है । भारत सरकार
अभी तक इस बात को स्वीकार नहीं करती , कि उसने अपने ही जनता पर बम बरसाये थे । इणिडयन
एक्सप्रेस के पूर्व सम्पादक शेखर गुप्ता ने इस पर एक लेख भी लिखा था । जब उत्तर
पूर्व के पत्रकारों ने तत्कालीन प्रधान मंत्री इन्दिरा गाँधी से इस सन्दर्भ में
सवाल पूछे तो उन्होँने कहा कि विमानों से जनता को फूड पैकेट गिराये गये थे । उस
समय मिजोरम में भयंकर अकाल पड़ा था'' और मिजो नेशनल फंट''
के तात्कालिक विद्रोह का कारण यह अकाल ही था ,
क्योंकि सरकार ने उनकी डेढ करोड़ की मामूली माँग
को भी ठुकरा दिया था । बाद में इन्दिरा गाँधी के इस बयान पर असम विधान सभा में
( तब मिजोरम असम का ही हिस्सा था ) एक विधायक ने
व्यंग किया कि बम के खोखों को दिल्ली भेजा और उनसे पूछा जाये कि कैसे खाया जाता है
। उस वक्त मिजोरम की
कुल आबादी तीन लाख बीस हजार थी । इनमें से करीब दो लाख छत्तीस हजार लोगों को उनके
गाँव जंगलो से जबरजस्ती बेदखल करके सड़ंक किनारे कैम्पो में हॉक दिया गया । उनके
घरों और दूसरी चीजो को आग लगा दी गयी । आज यह घटना सरकारी आँकड़ोमें इस तरह दर्ज है
कि इन लोगों ने अपनी मर्जी से ''मिजो नेशनल फट'' के गोरिल्लाओं से बचने के लिए अपने घरों को जला
कर सरकार द्वारा बनाये गये कैम्पों में रहना स्वीकार किया ।
मिजोरम
की पचास वर्ष पहले की यह घटना बताती है कि समूचे पूर्वोत्तर भारत में भारतीय शासक
वर्ग की वहाँ के विद्रोहों को दबाने का तरीका और नजरिया क्या है ?
भारतीय मीडिया प्रिंटऔर इलेक्ट्रानिक में सम्पूण
पूर्वोत्तर भारत प्रायः ''ब्लैक आउट '' रहता है । वहाँ जब कोई बड़ी आतंकवादी घटना या न्र
संहार होता है तभी कुछ खबरे मीडिया में दिखायी पड़ती है ।
पूर्वोत्तर
भारत में कई हजार जनजातियॉ है तथा उनमें दर्जनों अतिवादी ग्रुप सक्रिय है
। वहाँ पर यह आम चर्चा रहती है कि कई आतंकवादी
संगठन तो सरकार तथा सेना ने खुद बना रखे है तथा सेना का एक मात्र लक्ष्य इन
संगठनों कई बीच आपस में संघर्ष करवाना है । समय -समय वहाँ पर हुए आतंकवादी
घटनाओं तथा नरसंहारों कई बाद सेना का दमन आम जनता पर ही टूटता है । वहाँ की जनता
आजादी के बाद से ही लगातार दो पाटो के बीच पिस रही है । इरोम के अनशन की असफलता ,
निश्चित रूप से उन ताकतों को बल पहुँचेगा जो
हिंसक तरीके से समस्याओं को सुलझाना चाहते हैं तथा यह समूचे क्षेत्र तथा देश कई
लिए खतरे की घंटी हैं ।
neelamswadesh2@gmail.com
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