मुनाफे की तालीम
जावेद अनीस
पिछले
दिनों गुड़गांव में प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाले एक बच्चे के
अभिभावक ने आरोप लगाया कि फीस न देने पर उनके बच्चे को स्कूल में तीन घंटे तक धूप
में खड़ा रखा गया, इस दौरान बच्चे की हालत इतनी बिगड़ गयी कि उसे अस्पताल में भर्ती
करना पड़ा. इससे बच्चा इतना डर गया कि उसने स्कूल जाने से ही मना कर दिया . दूसरी घटना इंदौर की है वहां के पैरेंट्स एसोसिएशन सदस्य
निजी स्कूलों में मनमानी फीस बढ़ोत्तरी की शिकायत लेकर अपने सांसद सुमित्रा महाजन के पास गये तो इसपर सुमित्रा महाजन ने अभिभावकों
की मदद करने के बजाय
उलटे यह नसीहत देती हुई नजर आयीं कि ‘अगर वे निजी
स्कूलों की फीस नहीं भर पा रहे हैं तो अपने बच्चों का एडमिशन सरकारी स्कूल में
करवा दें’. उपरोक्त दोनों घटनाओं को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि हम किस जाल में फंस
चुके हैं . यह त्रासदियां
हमारे मौजूदा शिक्षा व्यवस्था की हकीकत बयान करती है जिसे धंधे और मुनाफेखोरी की
मानसिकता ने यहाँ तक पंहुचा दिया है. आज शिक्षा एक व्यवसाय बन गया है जिसका मूल
मकसद
शिक्षा नहीं बल्कि ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना है.
शिक्षा के बाजारीकरण
का असर लगातार व्यापक हुआ
है,अब शहर ही नहीं दूर दराज के गांव में भी प्राइवेट स्कूल देखने को मिल जायेगें.
पिछले वर्षों के दौरान देश भर के सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या लगातार घटती जा रही है, वहीं प्राइवेट
स्कूलों की संख्या में जबरदस्त इजाफा देखा जा रहा है. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के आंकड़ों के
मुताबिक 2007-08 में 72.6 प्रतिशत छात्र सरकारी प्राथमिक
स्कूलों पढ़ते थे, जबकि 2014 में इनकी संख्या घटकर 62 प्रतिशत हो गई. इसी तरह उच्च प्राथमिक सरकारी
स्कूलों में 2007-08 में
छात्रों का प्रतिशत 69.9 था जो
2014 में घटकर 66 हो गया. यह आंकड़ा निजी स्कूलों की ओर बढ़ते रुझान का
संकेत कर रहा है.
ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि भारतीयों में पढ़ाई के
प्रति पहले से ज्यादा जागरूकता आयी है. अब वे अपने बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा देना चाहते हैं और इसके लिए अपनी
जेब भी ढ़ीली करने को तैयार हैं.आज ना केवल मध्यवर्ग बल्कि सामान्य अभिभावक भी अपने बच्चों की शिक्षा के लिए प्राइवेट स्कूलों को प्राथमिकता देने लगा है और अपने सामर्थ्य अनुसार वह इसका फीस भी चुकाने को
तैयार है. दरअसल
पिछले कुछ दशकों से इस बात को बहुत ही सुनियोजित तरीके से स्थापित करने का प्रयास
किया गया है कि सरकारी स्कूल तो नाकारा है. अगर अच्छी शिक्षा लेनी है तो प्राइवेट
की तरफ जाना होगा. अब जबकि सरकारी स्कूल को मजबूरी के विकल्प बना दिए गये हैं,
उन्हें इस लायक नहीं छोड़ा गया है कि वे उभरते भारत की शैक्षणिक जरूरतों को पूरा कर
सके. इन परिस्थितियों ने भारत
में स्कूल खोलने और चलाने को एक
बड़े उद्योग के रूप
में विकसित किया है और इसका लगातार विस्तार हो रहा है. इसलिए हम देखते हैं कि एक तरफ तो गावं ,गली में एक और दो कमरों में चलने वाले
स्कूल खुल रहे है तो दूसरी तरफ इंटरनेशल स्कूलों के चलन भी तेजी से बढ़ रहा है. एक अनुमान के मुताबिक आज हमारे देश
में 600 से ज्यादा इंटरनेशनल
स्कूल चल रहे हैं. हमारे देश का नवधनाढ़्य तबका इन स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए मुंहमांगी फीस देने को तैयार है.
यह चलन हमारे देश में पहले से ही शिक्षा की खाई को और चौड़ा कर रहा है. बहुत ही बारीकी से शिक्षा जैसे
बुनियादी जरूरत को एक कोमोडिटी बना दिया गया है जहाँ आप अपने सामर्थ्य के अनुसार
बच्चों के शिक्षा खरीद सकते हैं, यह विकल्प हजारों से लेकर लाखों रूपये तक का है.
सरकारी स्कूलों की उपेक्षा और
प्राइवेट स्कूलों की लगातार बढ़ती फीस ने अभिभावकों के लिए इस समस्या को और गंभीर बना दिया है. आज किसी साधारण माता-पिता के लिए अपने
बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाना बहुत मुश्किल
साबित हो रहा है. व्यापारिक संगठन एसोचैम द्वारा जारी एक अध्ययन के अनुसार कि बीते दस वर्षों के दौरान निजी स्कूलों की फीस में लगभग 150 फीसदी बढ़ोतरी हुई है. आज लखनऊ, भोपाल, पटना,
रायपुर जैसे मझोले शहरों में किसी ठीक–ठाक प्राइवेट स्कूल के प्राथमिक कक्षाओं की औसत फीस 1 हजार से लेकर 6 हजार रुपए प्रति माह है. इसके
अलावा अभिभावकों को प्रवेश शुल्क परीक्षा/टेस्ट शुल्क, गतिविधि शुल्क, प्रोसेसिंग फीस, रजिस्ट्रेशन फीस, एलुमिनि फंड, कम्प्यूटर फीस, बिल्डिंग फंड, कॉशन मनी, एनुअल तथा बस फीस जैसे कई तरह के शुल्क हैं
जो वसूले जाते हैं. एक अनुमान के मुताबिक मासिक फीस के अलावा
तमाम तरह के शुल्क के नाम पर अभिभावकों को 30 हजार से लेकर सवा लाख
रुपए तक चुकाना पड़ता है. इसके अतिरिक्त बच्चों की ड्रेस, किताब-कापियाँ और स्टेशनरी पर भी अच्छा-खासा खर्च
करना होता है. निजी स्कूल की मनमानी इस हद तक है कि एडमिशन के समय अभिभावकों को बुक स्टोर्स और यूनिफार्म की दुकान का विजिटिंग
कार्ड देकर वहीँ से किताबें,
यूनिफार्म और स्टेशनरी खरीदने को मजबूर किया जाता है. स्कूलों
की इन दूकानों से कमीशन सेटिंग होती है. ये दूकान अभिभावकों से मनमाना दाम वसूलते
हैं. इसी तरह से सिलेबस को लेकर भी गोरखधंधा चलता है. कई स्कूल संचालक एक ही
क्लास की किताब हर साल बदलते हैं, हालाँकि सिलेबस वही रहता है
लेकिन इस काम में उनकी और प्रकाशकों
की मिलीभगत होती इसलिये एक प्रकाशक किताब में जो चेप्टर आगे
रहता है,
दूसरा
उसे बीच में कर देता है. इन सबके बावजूद ज्यादातर सूबों में निजी स्कूलों में फीस
के निर्धारण के लिए फीस नियामक नहीं बने हैं या सिर्फ कागजों में हैं.
निजी
स्कूलों पर कितनी फीस वृद्धि हो या कितनी फीस रखी जाए, इस संबंध में कोई स्पष्ट
दिशानिर्देश
नहीं हैं और जहाँ हैं वहां भी इसका पालन नहीं किया जा रहा है.
इसलिए कई स्कूल से हर साल अपने फीस में 10 से 20 फीसदी तक की
वृद्धि कर देते हैं.
लम्बे चौड़े दावो के बावजूद जयादातर निजी स्कूल शिक्षा
प्रणाली के मानक नियमों
को ताक पर रख कर चलाये जा रहे हैं. अधिकतर निजी स्कूल ऐसे हैं जो
एक या दो कमरों में संचालित है, यहाँ पढ़ाने वाले शिक्षक पर्याप्त योग्यता
नहीं रखते हैं, शिक्षा का अधिकार (आरटीई) कानून प्राइवेट स्कूलों को अपने यहाँ 25
प्रतिशत गरीब बच्चों को दाखिला देने के लिए बाध्य करता है साथ ही यह शर्त रखता है
कि अगर आपको स्कूल खोलना है तो अधोसंरचना आदि को लेकर कुछ न्यूनतम शर्तों को पूरा
करना होगा जैसे प्राइमरी स्कूल खोलने के लिए 800 मीटर और
मिडिल स्कूल के लिए 1000 मीटर जमीन की
अनिवार्यता रखी गई है. यह नियम ज्यादातर प्राइवेट
स्कूलों को भारी पड़ रही है और अगर इस नियम का कड़ाई से पालन किया जाए तो लाखों की
संख्या में प्राइवेट स्कूल बंद होने के कगार पर पहुँच जायेंगें. इसलिए ‘सेंटर
फॉर सिविल सोसायटी’ जैसे पूंजीवाद के पैरोकार समूहों द्वारा आरटीई के
नियमों में ढील देने की मांग को लेकर अभियान चलाया जा रहा है.
भारत
में शिक्षा की व्यवस्था गंभीर रूप से बीमार है
इसकी जड़ में हितों का टकराव ही है. प्राथमिक
शिक्षा से लेकर कॉलेज शिक्षा तक पढ़ाई के अवसर सीमित और अत्यधिक मंहगें होने के कारण आम आदमी की पहुँच से लगभग दूर होते जा रहे हैं. शिक्षा के इस माफिया
तंत्र से निपटने के लिए साहसिक फैसले लेने की
जरूरत है. हालत अभी भी नियंत्रण से बाहर नहीं हुए है और इसमें सुधार संभव है. करना
बस इतना है कि सरकारें सरकारी
स्कूलों के प्रति अपना रवैया सुधार ले, वहां बुनियादी सुविधायें और पर्याप्त योग्य शिक्षक
उपलब्ध करा दें जिनका मूल काम पढ़ाने का ही हो तो सरकारी
स्कूलों की स्थिति अछूतों जैसी नहीं रह जायेगी
और वे पहले से बेहतर नजर आयेंगें जहाँ बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल सकेगी
और समुदाय का विश्वास भी बनेगा. अगर सरकारी स्कूलों में सुधार होता है तो इससे
शिक्षा के निजीकरण की प्रक्रिया में कमी
आएगी . इसी तरह से बेलगाम व नियंत्रण से बाहर प्राइवेट
स्कूलों पर भी कड़े नियंत्रण की जरूरत है जिस तरह से वे हैं और लगातार अपनी फीस बढ़ाते
जा रहे हैं उससे इस बात का डर है कि कहीं शिक्षा आम लोगों की पहुँच से बाहर न चली जाए. हालत पर काबू पाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को ठोस कदम
उठाने की जरूरत है. लेकिन समस्या यह है कि राजनेता और प्रभावशाली
वर्ग शिक्षा के इस व्यवसाय में संलिप्त है ऐसे
में उनसे किसी बड़े कदम की उम्मीद कैसे की जाए
?
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