अक्टूबर क्रान्ति की विरासत, तथा भारतीय क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन की दिशा और दशा
स्वदेश कुमार सिन्हा
“ यदि गरूड़ नीची उड़ान भरता है तो इससे कौवों के प्रसन्न होने की कोई बात नही, क्योकि सबसे ऊॅची उड़ान तो वही भर सकता है”।
(रोजा लक्जमवर्ग
को लिखा लेनिन का एक वाक्य)
आज से करीब 100 वर्ष पहले 1917 में पहली बार अक्टूबर में और नये कलेण्डर के अनुसार नवम्बर में रूस में महान
समाजवादी क्रान्ति घटित हुयी जिसमें समूची दुनियॉ को हिला दिया। 1789 की महान फ्रांसिसी क्रान्ति सामंतवाद के खिलाफ पहली सचेतन क्रान्ति थी। दबे
कुचले लोगो ने सम्पूर्ण मानव इतिहास में बगावत अनगिनत बार की थी। लेकिन पेरिस
कम्यून ( 1971 में पेरिस के मजदूरो द्वारा पहली सर्वहारा सत्ता की स्थापना थी जिसे 72 दिन बाद फ्रांसिसी पूँजीपतियो ने पूरे यूरोप के प्रतिक्रिया वादियों की मदद
से कुचल दिया) की शुरूआती कोशिश के बाद अक्टूबर क्रान्ति मेहनतकस वर्ग की पहली योजनाबद्ध
सचेतन तौर पर संगठित क्रान्ति थी। जिसके पीछे एक दर्शन था, एक युद्ध नीति थी और ऐसे रास्ते की रूपरेखा थी जिससे आगे बढ़ते हुए एक नये समाज
की रचना करनी थी।
क्रान्तियों का अध्ययन केवल इतिहास के काल प्रवाह में उन्हे व्यवस्थित करके ही
किया जा सकता है, उसमें निहित परिवर्तन और निरंतरता के तत्वों के द्वन्द्वांत्मक अर्न्तसम्बन्धो
को ध्यान में ही रख कर किया जा सकता हे। हर क्रान्ति अपने घटित होने के काल में एक
महान उद्वान्त और क्रान्तिकारी घटना होती है और आगे भी उसकी प्रासंगिगता बनी रहती
हे , पर बाद के दौरो में उसकी अनुकृति नही की जाती। ऐसा करते हुए केवल उस
महाकाब्यात्मक त्रासदी का प्रहसन ही प्रस्तुत किया जा सकता है। यदि ’’विश्व इतिहास महानतम कवि है ’’(मार्क्स को एंगेल्स का पत्र 4 सितम्बर 1870) तो कहा जा सकता है कि क्रान्तियॉ ही उसके द्वारा विरचित कालजयी महाकाब्यात्मक
त्रासदियॉ है। महान रूसी क्रान्ति एक ऐसी ही महाकाब्यात्मक गाथा है , जिसमें नीहित इतिहास की जरूरी महत्वपूर्ण शिक्षाओ का अध्ययन तथा मानव सभ्यता
को जिसके अवदानो का अध्ययन आज भी प्रासंगिक है और आने वाले दिनो में भी रहेगा। यह
भी इतिहास की त्रासदी ही है कि इस महान क्रान्ति का अवसान केवल 70 वर्षो में ही हो गया। परन्तु उसकी शिक्षायें भविष्य में होने वाली किसी भी
क्रान्ति की पथ प्रदर्शक बनी रहेगी।
शायद यह भी इतिहास की त्रासदी कही जायेगी कि भारत जैसे विशाल देश में जहॉ
विश्व के सबसे गरीब ,अशिक्षित बसते है। जो मानव विकास दर में विश्व के निर्धनतम देशो में एक है वहॉ
अपनी तमाम कुर्बानियों ,महान संघर्षो के बावजूद कम्युनिष्ट आन्दोलन मुख्य ताकत कभी नही बन पाया। भारत
तथा चीन में कम्युनिष्ट पार्टी की स्थापना करीब -करीब एक साथ ही हुयी। परन्तु
पार्टी स्थापना के 25 वर्षो के भीतर ही चीनी पार्टी ने सफलता पूर्वक क्रान्ति को अंजाम दिया तथा
समाजवादी निर्माण की ओर आगे बढ़ गयी , परन्तु इसी दौर में भारतीय कम्युनिष्ट अपने को एक
अखिल भारतीय पार्टी के रूप में भी संगठित नही कर सके , तथा निरन्तर टूट-फूट तथा बिखराव के शिकार होते रहे , कमोवेश यह प्रक्रिया आज भी जारी है। इस संबंध में भारतीय वामपंथी आन्दोलन के
एक विचारक तथा इतिहसकार डा0
’’लाल बहादुर वर्मा का कथन हैं ’’ वैचारिक रूप से भारतीय कम्युनिष्टो में स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता का
भारी अभाव रहा है , आजादी से पहले वे वैचारिक रूप से ब्रिटेन की कम्युनिष्ट पार्टी पर निर्भर थे।
बाद में रूस तथा चीन की पार्टियों पर निर्भर हो गये। उनकी यह प्रवृत्ति आज भी जारी
है। एशिया ,लैटिन अमेरिका तथा यूरोप की अनेक कम्युनिष्ट पार्टियों ने विश्व कम्युनिष्ट
आन्दोलन में कुछ न कुछ नया योगदान दिया है। परन्तु भारतीय कम्युनिष्ट अपनी पर
निर्भरता के कारण ऐसा न कर सके’’।
भारत का क्रान्तिकारी कम्युनिष्ट आन्दोलन सम्पूर्ण विश्व मेंआज तात्कालिक रूप से वामपंथी आन्दोलन
का पराभव हुआ है तथा संगठन टूट फूट तथा बिखराव के शिकार है परन्तु इस विषम स्थिति
में भी हमारे देश में सभी धाराओ की कम्युनिष्ट पार्टियॉ तथा संगठन मौजूद है। ’भारत की कम्युनिष्ट पार्टी, भारत की कम्युनिष्ट पार्टी (मार्क्सवादी) भारत की
कम्युनिष्ट पार्टी (मार्क्सवादी -लेनिन वादी ) के अलावा ढ़ेरो छोटे-मोटे वामपंथी
ग्रुप तथा संगठन मौजूद है। 80 के दशक में तो एक शेध छात्र ने इनकी संख्या करीब 300 बतलायी थी , फिलहाल भारी टूट -फूट तथा बिखराव के बावजूद भी इस समय भी तीन से चार दर्जन
ग्रुप देश के विभिन्न भागो में सक्रिय है। इस लेख का मुख्य उद्देश्य इन ग्रुपो की
विचारधारा तथा कार्यक्रम की सम्पूर्ण व्याख्या नही है फिर भी हम लेख की सीमाओ को
ध्यान में रखकर उन ग्रुपो तथा संगठनो की कार्यपद्धति तथा विचारधारा की व्याख्या
करने की कोशिश करेंगे , जो स्थापित कम्युनिष्ट पार्टियो, भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी तथा मार्क्सवादी
कम्युनिष्ट पार्टी से भिन्न है तथा महान अक्टूबर क्रान्ति की विरासत को स्वीकार
करती है। वास्तव में इन संगठनो में निरंतर
टूट -फूट तथा बिखराव की प्रक्रिया ने इस कार्य को बहुत दुरूह तथा जटिल बना दिया
है। 1964 में एकीकृत कम्युनिष्ट पार्टी ’’भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के अन्दर एक बड़ा विभाजन
हुआ माना जाता है कि इसका सबसे बड़ा कारण 1962 में भारत चीन के बीच हुआ युद्ध था। पार्टी के एक
बड़े समूह ने इस मुद्दे पर चीन की आलोचना करने से इन्कार कर दिया। फलस्वरूप पार्टी
विभाजित हो गयी तथा मार्क्सवादी पार्टी का जन्म हुआ। नवगठित मार्क्सवादी
कम्युनिष्ट पार्टी भी अपने क्रान्तिकारी समर्थको की अपेक्षाओ पर खरी नही उतर पायी।
दो तीन साल के अन्दर ही पार्टी में असंतोष सामने आ गया। पश्चिमी बंगाल के
दार्जिलिंग जिले के ’नक्सलबाड़ी’ अंचल की जिला कमेटी के अध्यक्ष ’’चारू मजूमदार’ के नेतृत्व में पार्टी कार्यकर्ताओ के एक छोटे से
समूह ने मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी की नीतियों का विरोध शुरू कर दिया। यह
ग्रुप आरंभ में पार्टी के भीतर ही कार्य करता रहा परन्तु कुछ समय पश्चात ही 1967 में यह ग्रुप जिसमें चारू मजूमदार , कानू सान्याल तथा जंगल संथाल जैसे नेता प्रमुख थे।
पार्टी के विरूद्ध विद्रोह करके संगठन से बाहर निकल गये तथा नक्सलबाड़ी अंचल तथा
इसके आस-पास के इलाको में हथियारबंद संघर्ष
की शुरूआत कर दी। इस इलाके के सूदखोरो तथा जमींदारो की हत्या की जाने लगी किसानो
के कर्जा के दस्तावेज नष्ट कर दिये गये। देखते -देखते यह छापामार संघर्ष देश के बड़े ग्रामीण इलाको तथा कलकत्ता जैसे बड़े
शहरी इलाको में फैल गया। ’’24 अप्रेल 1971 में चारू मजूमदार ने एक नयी पार्टी ’भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी (मार्क्सवादी -लेनिनवादी) का गठन किया। यह पार्टी
चीनी क्रान्ति के रास्ते का अनुसरण करते हुए सशस्त्र क्रान्ति के माध्यम से भारतीय
राजसत्ता पर अधिकार करने का समर्थन करती थी। 1969 के मई दिवस पर कलकत्ते के ’शहीद मीनार मैदान’ में कानु सान्याल ने एक बड़ी रैली को सम्बोधित किया और 22 अप्रैल के लेनिन के जन्म दिवस पर भारत की कम्युनिष्ट पार्टी
(मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के स्थापना की घोषणा की। इसी के साथ दो प्रस्ताव भी पास
किये गये जिसमें एक राजनीतिक प्रस्ताव था , दूसरा पार्टी संगठन के बारे में था। दूसरे प्रस्ताव
में यह साफ कहा गया था कि नयी पार्टी गॉवो पर आधारित होगी तथा भूमिगत रहकर सशस्त्र
संघर्ष चलायेगी। ’ यह इस आन्दोलन की शुरूआती दौर की संक्षिप्त रूप रेखा है। नक्सलवादी किसान
विद्रोह ने भारतीय वामपंथी आन्दोलन पर गहरा असर डाला। पूरा आन्दोलन दो भागो में
बॅट गया। एक वे थे जो संसदीय रास्ते से समाजवाद की स्थापना करना चाहते थे। दूसरे
वे जो हथियारबंद क्रान्ति के समर्थक थे। वास्तव में इस आन्दोलन पर राष्ट्रीय
राजनीति से ज्यादा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का गहरा प्रभाव था। सोवियत संघ में ’निकिता खुश्चेव’ द्वारा सत्ता की बागडोर सम्हालने तथा रूसी कम्युनिष्ट पार्टी की बीसवी
कांग्रेस में ’स्टालिन ’ की नीतियों की आलोचना करने के साथ -साथ ’शान्तिपूर्ण संक्रमण’ शान्तिपूर्ण प्रतियोगिता तथा
शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व के सिद्धान्तो के प्रतिपादन के बाद चीनी तथा रूसी
कम्युनिष्ट पार्टियों में गम्भीर मतभेद पैदा हो गये। बाद में दोनो पार्टियों के
बीच चली बहसों ( जिसे कम्युनिष्ट इतिहास में महान बहस कहकर पुकारा गया) के बाद चीन
ने सोवियत संघ को सामाजिक -साम्राज्यवादी घोषित कर दिया तथा उसे विश्व के लिए
प्रमुख खतरा बताया। इस बीच चीनी कम्युनिष्ट पार्टी में भी सत्ता संघर्ष का दौर चला
पार्टी में धुसे ’’तथाकथित पूँजीवादी तत्वों ’’ के खिलाफ ’सांस्कृतिक क्रान्ति’ की घोषणा की गयी। भारत में
नक्सलवादी किसान विद्रोह के पीछे इन कारको का भी बड़ा योगदान रहा है। 1967 में नक्सलवाड़ी में किसान विद्रोह के तुरंत बाद पीकिंग (चीन) रेडियों ने ’’भारत में वसंत का ब्रजनाद’’ नामक कार्यक्रम में नक्सलवाद का समर्थन किया तथा
चारू मजूमदार जो एक जिला इकाई के अध्यक्ष थे रातो रात विश्वभर में चर्चित हो गयें।
नक्सलवाद का संक्षिप्त मूल्यांकन तथा आज का क्रान्तिकारी माओवादी आन्दोलन -
1967 में नक्सलवाड़ी में शुरू हुए इस आन्दोलन ने बड़े पैमाने पर देश भर में छात्रो नौजवानो
बुद्विजीवियों तथा संस्कृति कर्मियों तक पर गहरा असर डाला। भारतीय साहित्य पर भी
इसके असर को दखा जा सकता है। भारतीय राजसत्ता द्वारा इसका क्रूर दमन किया गया।
हजारो किसान , छात्रो तथा नौजवानो की हत्याये की गयी। ’महाश्वेता देवी के चर्चित उपन्यास’ हजार चौरासी की मॉ’ में उस समय की भयावह स्थिति का बड़ा हृदय विदारक चित्रण है। 1972 में जेल में ’चारू मजूमदार’ की विवादास्पद मौत से पहले ही इस आन्दोलन का निर्मम दमन किया जा चुका था।
अधिकांश बड़े नेता या तो गिरफ्तार कर लिये गये या तो मार दिये गये। जिनकी हत्या की
गयी उनमें बंग्ला के प्रतिभाशाली कवि तथा लेखक सरोजदत्त भी थे। अभयकुमार दूबे , प्रोफेसर मनोरंजन मोहंन्ती तथा विप्लव दास गुप्ता जैसे महत्वपूर्ण लेखको ने इस
आन्दोलन पर महत्वपूर्ण पुस्तके लिखी हैं जिसका अध्ययन करने पर हमें इसके बारे में
विस्तृत जानकारियॉ मिल सकती है।
नक्सलवादी भारत को अर्द्ध सामंती -अर्द्ध औपनिवेशिक समाज, तथां चीन की तरह नवजनवादी क्रान्ति की मंजिल मानते है। वास्तव में चीनी
कम्युनिष्ट पार्टी के विश्लेषण तथा उस पर ज्यादा निर्भरता भी उनकी असफलता का
प्रमुख कारण बनी। भारत की कम्युनिष्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) का गठन जनवाद
के आधार पर न होकर आतंकवाद के आधार पर हुआ। नक्सलवादी आन्दोलन के दौर में इनका एक
प्रतिनिधिमण्डल एक वरिष्ठ नेता ’सुनीति कुमार घोष’ के नेतृतव में चीन गया था तथा वहॉ पर अनेक महत्वपूर्ण नेताओ से
मुलाकाते भी की। चीनी कम्युनिष्ट पार्टी के सभी नेताओ ने उन्हे यह सलाह दी कि
नक्सलवादियों को ’व्यक्तिगत हिंसा’ तथा आतंकवाद का रास्ता छोड़कर ट्रेड यूनियनों तथा किसानो को संगठित करना चाहिए
पर चीनी पार्टी का इससे सम्बन्धित एक दस्तावेज कभी आम कार्यकर्ताओ तक न पहुँच सका।
चारू मजूमदार के निर्देश पर इसे नष्ट कर दिया गया। इस प्रकार ’चारू मजूमदार’ जो इस आन्दोलन के प्रारम्भिक समय में एक क्रान्तिकारी थे आतंकवाद की गलत और
आत्मघाती शैली तथा विचारधारा को निरंतर लागू करने के कारण एक ’’मध्यवर्गीय आतंकवादी लाईन’ के प्रवक्ता बन गये। जिसका पार्टी को भारी नुकसान
उठाना पड़ा तथा यह पार्टी कभी भी सर्व भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी नही बन पाई। इसके
जन्म के साथ जो टूट फूट बिखराव की प्रक्रिया शुरू हुयी थी वह कमोवेश आज भी जरी है।
अगर आज हम इस आन्दोलन पर एक विहंगम दृष्टि डाले तो इस खेमे में आम तोर पर दो
प्रवृत्तियॉ सामने आती है। प्रथम वे है जो आज भी चारू मजूमदार की आतंकवादी लाईन जो
’सामाजिक प्रयोग तथा व्यवहार’ में बुरी
तरह पिट गयी है, उसके पैरोकार बने हुए है। इसकी प्रमुख तथा सबसे बड़ी पार्टी भारत की कम्युनिष्ट
पार्टी (माओवादी) है। इसके अलावा कम से कम दो दर्जन ऐसे सक्रिय संगठन सारे देश में
है जो ’माओ विचारधारा’ को तो मानते हैं परन्तु ’ चारू मजूमदार की आतंकवादी कार्यदिशा को तिलांजलि दे
चुके है। भाकपा ( मा0 ले0) लिबरेशन नामक ग्रुप 80 के दशक तक मध्य विहार में आतंकवादी संघर्ष चलाता रहा परन्तु 1980 के बाद भारी नुकसान उठाने के बाद यह संगठन भी भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी तथा
मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी की तरह एक संसदीय दल में बदल गया है। विहार विधान
सभा में उसके अनेक सदस्य निर्वाचित भी होते रहते है। यद्यपि यह संगठन आज भी किसान
आन्दोलन चलाने का दावा करता है।
भारत की कम्युनिष्ट पार्टी (माओवादी) की विचारधारा तथा भारतीय क्रान्तिकारी
आन्दोलन की दिशा -
प्रतिबन्धित संगठन भारत की कम्युनिष्ट पार्टी (माओवादी) आज देश का सबसे बड़ा
संगठन है जो 1967-68 के नक्सलवाद के उभार के बाद बनी। भाकपा (मा0ले0) की आतंकवादी राजनीति पर आज भी दृढ़ता से खड़ा हुआ है। ’’इन माओवादियों का विश्वास है कि भारतीय समाज में अर्न्तनिहित संरचनागत असमानता
, भारतीय राज्य को मात्र हिंसात्मक विद्रोह द्वारा ध्वस्त करके समाप्त किया जा
सकता है। झारखण्ड और विहार में अपने पूर्व अवतार माओवादी कम्युनिष्ट सेन्टर (एम0सी0सी0) और आन्ध्रप्रदेश में माओवादियों को प्रबल जनसमर्थन हासिल था। ( 2004 में जब कुछ समय के लिए उनपर प्रतिबन्ध हटाया गया था तब वारंगल जिले की एक
रेली में पन्द्रह लाख लोग शामिल हुए थे। ) बाद के दौर में आन्ध्र प्रदेश पुलिस और
माओवादियों के बीच जारी हिंसा और प्रतिहिंसा के दौर के बाद ’पिपुल्स वार ग्रुप’ (पी0डब्लू0जी0) के जो लोग अपनी जान बचाने में सफल रहे वे पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ चले गये , वहॉ घने जंगलो में दशको से काम कर रहे अपने साथिया्रें में शामिल हो गये’’ 3 ’’ ओपेन पत्रिका को दिये गये अपने एक साक्षात्कार में इनके शीर्ष नेताओ में से एक
’गणपति’ उन लोगो की सोच नही बदल पाये जो माओवादियों को एक निर्मम दृढ विचारो वाली किसी भी असहमति को बर्दाश्त न करने वाली
पार्टी के रूप में जानते हैं। कामरेड गणपति ने ऐसा कुछ नही बताया जो लोगो को
आश्वस्त कर सके कि माओवादियो के पास वे कौन से तरीके हैं जिनसे अगर वे सत्ता में
आते हैं तो भारत में जाति अभिशप्त समाज के
मानवीय बॅटवारे को मिटा सकेगे’’ एक अनुमान
के अनुसार हथियारबन्द माओवादियों की संख्या 11,000 से 18000 के बीच है। मध्यभारत में इनकी गुरिल्ला सेना में सभी गरीब आदिवासी हैं जो
लम्बे समय से भुखमरी के ऐसी हालत में जी रहे हैं जिसकी तुलना केवल सब सहारन
अफ्रीका के सुखाड़ से की जा सकती है। दशको से इनका बर्बर शोषण होता रहा है छोटे
मोटे कारोबारी तथा सूदखोर लगातार इन्हे छलते रहे है। ऐसे में इन्हे जो थोड़ा बहुत
आत्म सम्मान हासिल हो सकता है उसका श्रेय माओवादी काडरो को जाता है जो दशको से
इनके साथ ही रहते आये है और काम करते तथा
इनकी ओर से लड़ते आये है। यद्यपि माओवादी आन्दोलन के सिद्धान्तकार भारतीय राज
व्यवस्था को उखाड़ फेकने के लिए लड़ रहे हैं तो वे भी खुद नही जानते हैं कि इस समय
उनकी फटे हाल कुपोषित सेना , जिसके अधिकांश सैनिको ने कभी ट्रेन या बस भी नही
देखी है एक छोटा शहर तक नही देखा है जो मात्र अपना अस्तित्व बचाने के लिए लड़ रहे
है। इस संगठन का उद्देश्य चाहे जितना पवित्र हो परन्तु सच्चाई यह हे कि संगठन जंगल
पहाड़ो तथा आदिवासी बाहुल क्षेत्रो में हथियारबंद संघर्ष की लाईन को इस दावे के साथ
लागू कर रहा है कि भारतीय क्रान्ति अब सशस्त्र संघर्ष के रूप को अपनाने की उच्चतर
मंजिल में प्रविष्ट हो चुकी हे , लेकिन पूरे परिदृश्य पर निगाह डालते हैं तो इस लाईन
का दिवालियापन एकदम उजागर हो जाता है। विगत दो दशको के तीव्र पूँजीवादी विकास के
बाद भारत के गॉवो शहरो की कुल सर्वहारा अर्द्ध सर्वहारा आबादी की जनसंख्या आज लगभग
55 करोड़ से कुछ ऊपर पहुँच चुकी है इस बड़ी आबादी के बीच भाकपा (माओवादी) की पहुँच
न के बराबर है। ’’वामपंथी’’ दुस्साहसवाद की यह लाईन पूपूँजीवादी व्यवस्था के लिए ज्यादा से ज्यादा कानून
व्यवस्था की समस्या पैदा कर सकती है। लेकिन एक अरब पच्चीस करोड़ इस विशाल आबादी
वाले देश की पचपन करोड़ सर्वहारा अर्द्धसर्वहारा आबादी और करीब चालीस करोड़ अन्य
शोषित उत्पीड़ित वर्गो की आबादी को साम्राज्यवाद , पूँजीवाद के विरूद्ध लामबन्द
करके वर्तमान राज्य सत्ता को उखाड़ फेकने के ऐतिहासिक कार्यभार को कत्तई अन्जाम नही
दे सकती है। ’’ पुलिस तथा सी0आर0पी0एफ0 के कैम्पो पर हमला करने ,सूदखोरो तथा सरकारी कर्मचारियों ,राजनीतिक दलो की सदस्यो की हत्याओें से इस व्यवस्था पर कोई खास फर्क नही पड़ता
तथा यह ’आतंकवादी हिंसा’ राज्य की ’संगठित हिंसा’ को ब्यापक रूप से निमंत्रित करती है। आज की बदली हुयी वैश्विक परिस्थितियों
में चीन , क्यूबा तथा लैटिन अमेरिकी देशे में छापामार संघर्षो की विजय भले ही हमें
रोमांचित करती हो परन्तु आज उनका युग बीत गया है। पेरू , फीलीपीन्स जैसे अनेक देशो में चले गोरिल्ला संघर्ष समाप्त हो गये है। अभी हाल
में लैटिन अमेरिकी देश कोलम्बियॉ में 52 वर्षो स ेचल रहा कम्युनिष्ट छापामार संघर्ष एक
समझौते के साथ समाप्त हो गयां। 1964 से शुरू हुए इस संघर्ष में ढ़ाई लाख से ज्यादा लोग
मारे गये और तकरीबन साठ से सत्तर लाख लोग विस्थापित हुए। नेपाल में भी माओवादियों
का लम्बा संघर्ष आज राजतंत्र की समाप्ति के साथ ही एक समझौते के साथ ही समाप्त हो
गया।
दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्रो0 रहे ’अचिन विनायक’ का कहना है कि भारत जैसे मजबूत राज्य में भी अस्तित्वमान रहने का कारण
माओवादियों का समाज के सबसे दलित तबको पर अच्छी पकड़ होना है। समाज के वंचित वर्गो ,आदिवासी, दलित और खेत मजदूरो पर उनका अच्छा आधार है, कि विनायक के अनुसार इनका पार्टी ढ़ॉचा सैन्यीकृत है
, तो उसकी भी ’’मैनुपुलेशन और कंट्रोल’’
सरीखी अपनी गंभीर दुविधाएॅ है। भाकपा (माओवादी) का यह सोचना कि भविष्य में
शहरो तथा कस्बो आदि में भी लोगो को गोलबंद करके भारतीय राज्य को उखाड़ फेकेगा , मुझे नही लगता यह सम्भव होगा। भारतीय राज्य बहुत मजबूत है। ’अरूंधती राय’ जैसी विचारक उनकी राजनीति की सफलता पर तार्किक सन्देह करती हैं उनके लिए सबसे
बड़ी चुनौती यह है कि कि वे जंगल से बाहर कैसे काम करेंगे। अगर वे जंगल के बाहर नही
जा सकते तो हम यह सोचेगे कि यह केवल एक क्षेत्रीय प्रतिरोध है। चाहे जितना हम
समर्थन करें बात यह है कि जंगल के बाहर इतनी बड़ी गरीबी पैदा की गयी (मैनुफैक्चर्ड
पावांर्टी) उसको आप राजनीति कैसे बनाओगे क्योकि लोगो के पास समय नही हे। जगह नही
और वे जंगल के बाहर काम कैसे करेंगे यह बहुत बड़ा प्रश्न है।
भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी (माओवादी) से इतर करीब दो से तीन दर्जन अन्य ऐसे
संगठन सारे देश मेंसक्रिय हैं जो नक्सलवादी आन्दोलन की विरासत को स्वीकार करते है।
इसमें से कुछ संगठन तथा ग्रुपो को छोड़कर अधिकांश कभी न कभी 1970 में गठित भाकपा (मा0 ले0) के हिस्से रहे है। 80 से 90 के दशक के बीच इस संगठनो में भारी पैमाने पर टूट-फूट तथा बिखराव हुए, ज्यादातर संगठन इन बिखरावो का कारण
वैचारिक तथा विचाराधात्मक बतलाते हैं। परन्तु कटु सत्य यह है कि इनके पीछे
संगठनों के नेतृत्व की व्यक्तिगत महत्वकांक्षाये प्रमुख है। ये संगठन नक्सलवादी
आन्दोलन की विरासत का तो स्वीकार करते हैे , परन्तु चारू मजूमदार की आतंकवादी कार्यदिशा को
अस्वीकार भी करते है। वास्तव में ऐसे ढ़ेरो संगठनो ने मजबूरी में इसके कार्यदिशा का
परित्याग किया क्योकि उसको चलाये रखना अब उनके लिए सम्भव नही रह गया था। इस कारण
ये संगठन चारू मजूमदार तथा उनकी कार्यदिशा की खुली आलोचना करने से कतराते हैं।
उनके संगठनिक ढ़ांचों में इस कार्यदिशा का स्पष्ट प्रभाव दिखाई पड़ता है। इसी कारण
इन संगठनों में जोड़-तेड़ तिगड़म ,छल नियोजन की आम प्रवृत्ति दिखलाई पड़ती है। इन
कारणो से ज्यादातर संगठनो की लाईन तथा विचारधारा एक होने के कारण भी व्यक्त्गित
पूर्वा्रग्रहो के कारण आज वे एकताबद्ध नही हो पा रहे है तथा एक सर्व भारतीय
कम्युनिष्ट पार्टी का रास्ता दुरूह और कठिन होता जा रहा है। अधिकांश संगठन आज भी
भारतीय समाज को अर्द्ध सामंती और अर्द्ध औपनिवेशिक मानते है। 1983-84 में एक मार्क्सवादी लेनिनवादी संगठन ने काफी शोध और अन्वेषण के बाद यह सिद्ध
किया कि आज भारतीय समाज मूलतः एक पूँजीवादी समाज है अधिरचना में भले ही सामंती
तत्व विधमान है। परन्तु अर्थवयवस्था मूलतः पूँजीवादी हो चुकी हे। इसलिए यहॉ
क्रान्ति की मंजिल नवजनवादी न होकर पूँजीवादी होगीं इससे प्रभावित होकर अब ढ़ेरो
संगठन अब इस दिशा की ओर सोच रहे है। यद्यपि यह ग्रुप भी आज खुद अपनी एकता बनाये न
रख सका तथा चार भागो में बॅट गया। आज ज्यादातर संगठन अपनी क्षमताओ के अनुसार मजदूर
किसानो ,छात्र , नौजवानों तथा महिलाओ के बीच कार्यवाहियॉ कर रहे है परन्तु सच्चाई यह है कि
ज्यादातर का जनाधार तेजी से धट रहा है बहुतो की सक्रियता, पत्र-पत्रिकाओ तथा पुसतको का प्रकाशन तथा उनको हमदर्दो तक वितरित करने तक ही
सीमित हो गयी है। वैचारिक अपरिपक्वता इन संगठनो को अजीबो गरीब निष्कर्षो तक
पहुॅचाती रही हे। पंजाब में खलिस्तानी आन्दोलन के दौर में पंजाब के एक वामपंथी
संगठन ने इस आधार पर इस आन्दोलन का समर्थन किया कि खालिस्तानी ’’राष्ट्रीयता के आत्म निर्णय’’ के अधिकार के लिए लड़ रहे है। एक बड़ा माओवादी संगठन
अमेरिकी साम्राज्यवाद के विरोध के नाम पर ’अलकायदा’ तथा एल0टी0टी0 जैसे फॉसीवादी संगठनो के समर्थन करने तक पहॅुच
जाता है।
आज वैश्विक परिवर्तन की गति बहुत तीव्र है , ’भूमण्डलीयकरण’ ने मजदूर वर्ग के शोषण तथा दमन को और तीव्र तथा सूक्ष्म कर दिया है। आज मजदूरो
की 80 प्रतिशत आबादी अब संगठित क्षेत्रो में कार्यरत है , ठेके पर मजदूरी प्रथा के चलन के कारण ’कारखाना आारित आन्दोलनो’ को भारी धक्का लगा है। इन असंगठित क्षेत्र के मजदूरो को संगठित करना आज के
भारतीय कम्युनिष्ट क्रान्तिकारियों की बड़ी तथा मुख्य चुनौती बन गयी है। भारतीय
जाति व्यवस्था विशेष रूप से ’दलित प्रश्न’ तथा साम्प्रदायिक फॉसीवाद से भारतीय वामपंथ को सीधे
-सीधे टकराना पड़ रहा है।
पिछले कुछ वर्षो ने अनेक कम्युनिष्ट क्रान्तिकारियों , जिसमें मुख्य रूप से नक्सलवा आन्दोलन के प्रमुख तथा वरिष्ठ नेता ’कानू सान्याल’ तथा माओवादी कम्युनिष्ट पार्टी के नेता तथा लेखक ’सतनाम’ की आत्महत्यायें यह सिद्ध करती हे कि कम्युनिष्ट क्रान्तिकारी खेमें में आज
कितनी हताशा , निराशा तथा पस्त हिम्म्ती ब्याप्त है। वास्तव में सामाजिक सत्य ही सिद्धान्त
का आधार होता है और इसके बदलने के साथ ही सिद्धान्त को बदलना होता है। इसके परस्पर
संम्बन्धो को उत्कट रूपा से प्रकट करते हुए गेटे के प्रसिद्ध नाटक ’फाउस्ट’ का एक पात्र ’मेफिस्टोफीलियस’ करता है, ’’सिद्धान्त ,मेरे दोस्त फीका है और जीवन का चिरंन्तन वृक्ष हरा’’ (Theory my friend is grey and green is the eternal
tree of life.) होता यह है कि अगर सिद्धान्त जीवन की गति के साथ
कदम से कदम मिला कर नही चलता तो केवल यही नही कि वह परिवर्तन के प्रभावशाली उपकरण के रूप में अपनी सार्थकता खो
देता है, बल्कि जड़ सत्र बनकर अवरोधक बन जाता है।
आज के भूमण्डलीयकरण के युग में भारतीय क्रान्तिकारी कम्युनिष्ट आन्दोलन के
सामने यही मुख्य तथा सबसे बड़ी चुनौती है।
सन्दर्भ तथा टिप्पणी-
1-क्रान्ति का आत्म संघर्ष , नक्सलवादी आन्दोलन के बदलते चेहरे का अध्ययन, प्रकाशक विनय प्रकाशन दिल्ली -1951 पृष्ठ -62
2-वही पृष्ठ -90
3-अरूंधती राय लेख ’’आतरिक सुरक्षा या युद्ध ’’ आउट लुक पत्रिका , नवम्बर 2009 में प्रकाशित
4-वही
,5-आतंकवाद के बारे में विभ्रम और यथार्थ ,आलेक रंजन प्रकाशक राहुल फाउण्डेशन ,लखनऊ दिसम्बर 1913 पृष्ठ 23
6-नववाम की संभावना संस्थतर प्रकाशन नई दिल्ली पृष्ठ -72
7-जमीनहीन अस्थायी मजदूर या जो शहरी गरीब हैं वे राजनीतिक विर्मश से बाहर है-
अरूॅधती राय वही पृष्ठ -58
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