भोपाल एनकाउंटर : सवाल दर सवाल
जावेद अनीस
इस देश में एनकाउंटर का स्याह इतिहास है और इसको लेकर हमेशा
से ही विवाद रहा है. आम तौर पर एनकाउंटर के साथ फर्जी शब्द जरूर जुड़ता है. मध्यप्रदेश के 61वें स्थापना दिवस से ठीक एक दिन पहले
यहाँ भी एक ऐसा ही एनकाउंटर हुआ है जो अपने पीछे कई सवाल
छोड़ गया है. आईएसओ प्रमाणित भोपाल सेंट्रल जेल में बंद प्रतिबंधित स्टुडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ इंडिया के आठ संदिग्ध फरार हुए और फिर उनका एनकाउंटर कर दिया गया, उसके बाद से इसको
लेकर मंत्रियों, अधिकारियों के बयान आपस में मेल नहीं खा
रहे हैं और जो वीडियो सामने आये हैं वो भी कई गंभीर सवाल खड़े करते हैं.
एनकाउंटर में मारे गये आठों विचाराधीन कैदियों पर “सिमी” से जुड़े होने सहित देशद्रोह, बम धमाकों में शामिल होने जैसे कई आरोप थे. जेल प्रशासन के मुताबिक ये आठों 31 अक्टूबर की रात जेल की बीस फीट ऊंची दीवार फांद कर भागे
थे. भागने के दौरान उन्होंने एक पुलिस कांस्टेबल की हत्या भी कर दी. इस तरह से इस
घटनाक्रम में कुल नौ लोग मारे गये हैं. मारे गये आठ विचाराधीन कैदियों में से तीन तो 2013 में मध्य प्रदेश के ही खंडवा जेल से भी फरार हो चुके थे.
जिन्हें दोबारा पकड़ कर सेंट्रल जेल में शिफ्ट कर दिया गया था. हालांकि मध्यप्रदेश
सरकार इस एनकाउंटर को अपनी उपलब्धि बताते हुए नहीं
थक रही है. लेकिन कई ऐसे सवाल है जिनका उसे जवाब देना बाकी है.
सवाल दर सवाल
सिमी संदिग्धों के जेल से भागने और उनके एनकाउंटर को
लेकर विपक्ष, मानव अधिकार संघटनों और मीडिया द्वारा कई सवाल खड़े किए गये हैं.घटना की कवरेज करने वाले जी मीडिया के पत्रकार प्रवीण दुबे ने एनकाउंटर पर बहुत ही गंभीर सवाल उठाये
हैं. अपने फेसबुक वॉल पर उन्होंने जो लिखा उसका कुछ
अंश इस तरह से है “शिवराज जी, इस सिमी के कथित आतंकवादियों के
एनकाउंटर पर कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है. मैं खुद मौके पर मौजूद था, सबसे पहले 5 किलोमीटर पैदल चलकर उस पहाड़ी पर पहुंचा, जहां उनकी लाशें थीं. लेकिन सर इनको जिंदा क्यों नहीं पकड़ा गया? मेरी एटीएस चीफ संजीव शमी से वहीं मौके पर बात हुई और मैंने
पूछा कि क्यों सरेंडर कराने के बजाय सीधे मार दिया? उनका जवाब था कि वे भागने की कोशिश कर
रहे थे और काबू में नहीं आ रहे थे, जबकि पहाड़ी के जिस छोर पर उनकी बॉडी मिली, वहां से वो एक कदम भी आगे जाते तो सैकड़ों फीट नीचे गिरकर भी
मर सकते थे. मैंने खुद अपनी एक जोड़ी नंगी आँखों से आपकी फ़ोर्स को इनके मारे जाने
के बाद हवाई फायर करते देखा, ताकि खाली कारतूस के खोखे कहानी के
किरदार बन सकें. उनको जिंदा पकड़ना तो आसान था फिर भी उन्हें सीधा मार दिया और तो
और जिसके शरीर में थोड़ी सी भी जुंबिश दिखी उसे फिर गोली मारी गई एकाध को तो जिंदा
पकड लेते. उनसे मोटिव तो पूछा जाना चाहिए था कि वो जेल से कौन सी बड़ी वारदात को
अंजाम देने के लिए भागे थे”?
इसी तरह वरिष्ठ
पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता अवधेश भार्गव ने तो इस एनकाउंटर को फर्जी बताते हुए जबलपुर
हाईकोर्ट में एक याचिका करते हुए सवाल उठाया है कि आरोपियों के सेल में ही लगे सीसीटीवी कैमरे खराब
क्यों थे? जेल में कैदियों को दो से ज्यादा चादर
नहीं दिए जाते हैं ऐसे में आरोपियों के पास जेल की दीवार कूद कर फरार होने के लिए 35 चादरें कहां से आई और जेल के मेन गेट पर लगे सीसीटीवी कैमरे
को जांच में शामिल क्यों नही किया गया.
रिहाई मंच ने इस पूरे मामले पर सवाल उठाते हुए बयान जारी
किया कि “ठीक इसी तरह अहमदबाद की जेल में थाली, चम्मच, टूथ ब्रश जैसे औजारों से 120 फुट लंबी सुरंग खोदने का दावा किया गया
था.”
सीपीआई के राज्य सचिव बादल सरोज का बयान आया कि
“भोपाल की एक
अति-सुरक्षित जेल से आठ विचाराधीन-अंडरट्रायल-मुजरिमों के फरार हो जाने, उसके बाद उनके एक साथ टहलते हुए अचारपुरा के जंगल में मिलने
और "मुठभेड़" में मारे जाने की घटना एक अत्यंत फूहड़ तरीके से गढी गयी
कहानी प्रतीत होती है. यह जितनी जानकारी देती है उससे अनेक गुना सवाल छोड़कर जाती
है.”पूर्व
मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह से सोशल मीडिया पर एक तस्वीर शेयर करते हुए लिखा कि “मुझे किसी ने यह चित्र भेजा है जिसमें एनकाउंटर में मरने वाला और मारने
वाले के जूते एक समान हैं क्या संयोग है.”सबसे बड़ा सवाल यह है इतने बड़े जेल से गंभीर मामलों के आरोपी जिन्हें “दुर्दांत आतंकवादी” बताया जा रहा था इस तरह आसानी जेल से भागने में सफल कैसे हो गये? बताया जा रहा है कि वहां“35 आतंकवादी” रखे गये थे फिर जेल की सुरक्षा 2 सिपाहियों के भरोसे कैसे छोड़ दी गई?जेल का सीसीटीवी फुटेज कहां है? और जेल के 42 सीसीटीवी कैमरों में से ठीक वही 4 कैमरे कैसे खराब हो गये तो फरार कैदियों के बैरक के सामने लगे थे ? जेल से फरार होने के बाद उनके पास नए
जींस, टी-शर्ट, जूते, जीपीएस वॉच और ड्राई फ्रूट्स कैसे आए ? जेल से फरार होने के बाद आठों कैदी एक
साथ एक ही दिशा में क्यों भागे और सात-आठ घंटे पैदल चलकर जेल से 15 किलोमीटर दूर ईंटखेड़ी की पहाड़ी पर क्यों गये जहाँ से आगे कोई रास्ता ही
नहीं जाता है ? क्या जेल से भागने के बाद वे शहर छोड़ने की बजाए वहां रुककर
पुलिस का इंतजार रहे थे?
इसी तरह से मध्यप्रदेश के गृहमंत्री भूपेन्द्र सिंह ने दावा
किया गया था कि एनकाउंटर के दौरान आरोपी हथियारों से लैस थे. जबकि सूबे के एटीस चीफ का
बयान ठीक इसके उल्टा था जिनका कहना था कि उनके पास कोई हथियार नहीं थे. जो वीडियो
वायरल हुए हैं उसमें भी नजर आ रहा है कि सभी आरोपी निहत्थे हैं.
दूसरा सवाल मुठभेड़ को
लेकर सुनायी गयी अलग-अलग कहानियों पर हैं जिसमें से कई बचकानी हैं. पुलिस के
अनुसार आरोपियों ने जेल से फरार होने के लिए रोटियों का सहारा लिया. वे भोजन में
अतिरिक्त रोटी मांगते थे ऐसा उन्होंने 40 दिनों तक किया. इन रोटियों को वे खाने के
बजाय सूखा कर रख लेते थे इन्हीं रोटियों को जलाकर उन्होंने प्लास्टिक की टूथब्रश
से ऐसी चाभी बना डाली जिससे ताला खोला जा सके. उस रात ताला खोलने के बाद उन्होंने
वहां तैनात सिपाही रमाशंकर यादव की गला रेतकर हत्या की और दूसरे सिपाही चंदन सिंह
के हाथ-पैर बांध दिए, फिर चादरों को रस्सी की तरह इस्तेमाल कर 25 फीट ऊंची दीवार फांद कर भाग गए.
जाहिर है इस कहानी से मुतमइन हो जाना आसान नहीं है. दूसरी तरफ एनकाउंटर को लेकर जो वीडियो
सामने आए हैं वे भी कुछ और ही कहानी बयान करते हैं. सोशल मीडिया पर वायरल एक
वीडियो में दिख रहा है कि फरार आतंकी सरेंडर करना चाहते थे लेकिन पुलिस ने उन्हें
इसका मौका ही नहीं दिया. एक दूसरे वीडियो के मुताबिक एनकाउंटर में
पुलिसवाला एक घायल कैदी को निशाना बनाकर फायरिंग कर रहा है.
एनकाउंटर के बाद जिस तरह से पोस्टमार्टम किया गया है उस
पर भी सवाल उठे हैं बताया जा रहा है कि आठों आरोपियों का पोस्टमार्टम मेडिको लीगल
इंस्टीट्यूट के निदेशक डॉ. अशोक शर्मा द्वारा चार घंटे में अकेले ही पूरा कर लिया
किया गया जबकि विशेषज्ञों का कहना है कि एक सामान्य पोस्टमार्टम करने में भी 45
मिनिट से 1 घंटे लग जाते हैं. पोस्टमार्टम के दौरान ना तो वहा कोई फोरंसिक
विशेषज्ञ मौजूदा था और ना ही अदालत को इसकी सूचना दी गयी. जबकि कैदी न्यायिक अभिरक्षा में थे और प्रावधानों के अनुसार शव परीक्षण से पहले अधिकृत न्यायिक मजिस्टे्ट को सूचना दिया
जाना चाहिए था.
डॉ शर्मा द्वारा बार-बार बयान बदलने की वजह से भी
पोस्टमार्टम रिपोर्ट पर सवाल उठ रहे हैं जैसे कि पहले उन्होंने बताया था कि “आरोपियों ने अपना आखरी
भोजन 10 बजे रात (घटना के 4 घंटे पहले) के करीब लिया था.” लेकिन
बाद में डॉ शर्मा ने अपना बयान बदलते हुए कहा कि “आरोपियों
द्वारा अपना आखरी भोजन शाम 7 लेने की सम्भावना है.” मालूम हो
कि भोपाल सेन्ट्रल जेल में कैदियों को शाम 6.30 बजे भोजन दे दिया जाता है. इसी तरह
से पहले डॉ. शर्मा द्वारा बताया गया था कि चार आरोपियों के शरीर से गोली पायी गयी
है जबकि चार अन्य के शरीर से गोली आर पार निकल गयी है. जिसका मतलब ये है कि इन
चारों को बहुत करीब से गोली मारी गयी है. जब इस पर सवाल उठने लगे तो डॉ. शर्मा ने
पलटते हुए कहा कि कि वे पक्के तौर पर नहीं कह सकते कि उन्हें करीब से गोली मारी
गयी थी या दूर से.
सरकार की तरफ इस मुठभेड़ में तीन पुलिसकर्मियों के घायल होने की बात भी कही गई
थी और बताया गया था कि मुठभेड़ के दौरान इन तीनों पुलिसकर्मियों
को धारदार हथियार से हुए हमले में हाथों और पैरों पर चोटें आई हैं. लेकिन 11
नवम्बर 2016 को अंग्रेजी अखबार हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित एक खबर के अनुसार
अनुसार उन तीनों में कोई भी पुलिसकर्मी गंभीर रूप से घायल नहीं हुआ था. एक
पुलिसकर्मी की पत्नी ने बताया है कि “कैदियों का पीछा करते हुए चोटिल हो गए थे
उनकी कोहनी छिल गई थी जिसका कारण जमीन उबड़-खाबड़ होना था.” इसी
तरह से एक दूसरे पुलिसकर्मी के भाई द्वारा बताया गया है कि “उनके
भाई को हथेलियों में चोट लगी है लेकिन यह गंभीर नहीं है.” उन्होंने
चोट लगने के कारणों के बारे में जानकारी होने से भी इनकार किया. अखबार के मुताबिक
एक पुलिसकर्मी तो 31 अक्टूबर को हुई उस मुठभेड़ के बाद से
लगातार ड्यूटी पर जा रहा है.
सारे सबूत मिटा दो ?
भोपाल से लगे
मनीखेड़ी पहाड़ी पर एनकाउंटर के बाद वहां सबूतों को सुरक्षित रखने में
कोई रूचि नहीं दिखाई गयी और ऐसा लगता है इस मामले में पुलिस और प्रशासन द्वारा
जानबूझ कर लापरवाही की गयी है. एनकाउंटर के बाद घटना स्थल को पूरी तरह से खुला छोड़
दिया गया जहाँ लोग पिकनिक स्पॉट की तरह घूमते और फोटो खिंचवाते नजर आ रहे थे. वहां
सबूतों की हिफाजत के लिए कोई भी सुरक्षाकर्मी नजर नहीं आया. जबकि इतने सवाल उठने
के बाद यह सुनिश्चित करना जरूरी था कि घटना स्थल पर सभी सबूत महफूज रहे. जिससे आगे
जांच करने वालों को आसानी हो सके.
जाँच से पहले इनाम की घोषणा
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने घटना के
अगले दिन एक नवंबर को प्रदेश के स्थापना दिवस समारोह में पूरे घटनाक्रम में अहम
भूमिका निभाने वाले पुलिस के अधिकारियों, सिपाहियों को सम्मानित किया और आननफानन
में इस मुठभेड़ में भाग लेने वाले प्रत्येक जवान
को दो लाख रूपये, सर्चिंग में शामिल जवान को एक लाख रूपये
और पुलिस का सहयोग करने वाले नागरिकों को भी 40 लाख रूपये देने की घोषणा कर दी. जबकि मामले की जांच शुरू भी नहीं हुई थी. यह
एक तरह से इस विवादित एनकाउंटर पर उनकी मोहर थी. बाद में सरकार
को अपने इस फैसले पर रोक लगाना पड़ा क्योंकि खुद शिवराज सरकार इस मामले की जांच
करवा रही है और जांच पूरी होने तक सरकार द्वारा इस
मामले में किसी को पुरस्कार नहीं दिया जा सकता है.
इस पूरे प्रकरण से सवाल उठता है कि जिस सरकार का मुखिया मुठभेड़ को पहले से ही सही मान कर इसमें शामिल
लोगों को इनाम देने की घोषणायें कर रहा हो वह इसकी जांच किस तरह से कराएगी ?
कोर्ट की फटकारा
भोपाल मुठभेड़ को लेकर कोर्ट ने मध्यप्रदेश सरकार को
फटकार लगायी है. भोपाल कोर्ट का कहना था कि सरकार द्वारा नौ दिन बाद उसे आधिकारिक
तौर पर इस एनकाउंटर की जानकारी दी गयी, जबकि इसमें मारे गए लोग न्यायिक हिरासत
में थे और क़ानूनन इसके बारे में कोर्ट को तुरन्त बताया जाना चाहिए था. कोर्ट का यह
भी कहना था कि आरोपियों का पोस्टमार्टम भी न्यायिक मजिस्ट्रेट के
समक्ष नहीं कराया जो कानूनी प्रावधानों को उल्लंघन है. इसी
तरह से कोर्ट ने एनकाउंटर के स्थान को सील नहीं करने पर
भी सवाल उठाये.
हालांकि मप्र हाईकोर्ट ने पत्रकार अवधेश भार्गव द्वारा
भोपाल में मुठभेड़ में मारे गये 8 आरोपियों की उच्च स्तरीय जांच कराए जाने
की जनहित याचिका को खारिज करते हुए राज्य सरकार द्वारा जांच को लेकर की गई
कार्रवाई को उचित बताया है और इस मामले में कोई भी निर्देश जारी करने से इंकार कर
दिया है.
शिवराज का मेकओवर ?
मध्यप्रदेश स्थापना दिवस समारोह के एक कार्यक्रम में
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भीड़ से पूछते हैं कि “पुलिस ने आतंकियों को मारकर सही किया या
गलत ?” जवाब में वहां मौजूद भीड़ हाथ उठाकर कहती है “सही किया.” यह शिवराज सिंह का स्टाइल नहीं है. वे
भाजपा के नर्म चेहरे माने जाते रहे हैं और संघ के हिन्दुत्वादी ऐजेंडे को लागू
करने में बहुत बारीकी बरतते है.
लेकिन शिवराज यहीं नहीं रुके इसके बाद उनका बयान आता है कि "कई साल तक वे जेल में बैठकर चिकन बिरयानी खाते हैं. फिर
फरार हो जाते हैं." हालांकि कई सालों से मध्यप्रदेश की जेलों
में बंद कैदियों को शाकाहारी खाना ही उपलब्ध कराया जाता है और यहाँ प्रतिदिन एक कैदी के भोजन पर 50 रूपये खर्च किया जाता है.
जाहिर सी बात है एक दिन के इस बजट में बिरयानी नहीं खिलाया जा सकता है. भयानक कुपोषण का मार झेल रहे जिस सूबे की सरकार आंगनवाडी
केन्द्रों में कुपोषित बच्चों को अंडे नहीं खिला सकती तो वह जेलों में बंद कैदियों
को चिकन बिरयानी कैसे खिला सकती है.
दरअसल बिरयानी का जिक्र करके शिवराज सिंह चौहान बहुत ही आक्रमकता के साथ एनकाउंटर को सही
ठहराने की कोशिश कर रहे थे. इस कोशिश में खुद को अपनी नर्म छवि से बाहर निकालने की
कवायद भी शामिल है. आखिरकार शिवराजसिंह छवि बदल कर क्या क्या हासिल करना चाहते हैं? क्या अगले विधानसभा
चुनाव के लिए वे अपनी स्थिति मजबूत कर रहे हैं या उनकी निगाहें कहीं
और है ?
पुराना है सिमी का भूत
1977 में गठित 'स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट आफ इंडिया' (सिमी) पर वर्ष 2001 में प्रतिबंध लगा दिया गया था. जिसके बाद
से मध्यप्रदेश में बड़ी संख्या में मुस्लिम नौजवानों को सिमी से जुड़े होने के आरोप
में गिरफ्तार किया जा चूका है. जामिया टीचर्स सॉलिडेरिटी एसोसिएशन द्वारा 2013 में “गिल्ट बाय एसोसिएशन” नाम से एक रिपोर्ट जारी की गयी थी जिसमें बताया गया था कि मध्यप्रदेश में साल 2001 और 2012 के बीच “अनधिकृत गतिविधि अधिनियम” (UAPA) के तहत कायम किये गए करीब 75 मुक़दमों की पड़ताल की गयी है जिसके तहत 200 से ज्यादा मुस्लिम नौजवान आतंकवाद के
इल्जाम में मध्यप्रदेश के विभिन्न जेलों में बंद हैं. इनमें से 85 के खिलाफ अनधिकृत गतिविधि अधिनियम”
(UAPA) के तहत मामले दर्ज किये गये हैं. इन पर आरोप है कि ये सिमी के
कार्यकता हैं. रिपोर्ट के अनुसार इन आरोपियों पर किसी भी तरह के आतंकवादी हमले का
इल्जाम नहीं है और ज्यादातर एफ.आई.आर. में जो आरोप लगाये गये हैं
उसमें काफी समानता है जैसे पुलिस की छापे मारी के दौरान आरोपियों के पास से सिमी
का साहित्य,पोस्टर, पम्पलेट बरामद हुए
हैं (लेकिन जिस लिटरेचर की बात की गयी है वो सिमी के पाबन्दी से पहले की है) या मुल्ज़िम चौक-चौराहे और दूसरे सार्वजनिक स्थानों पर खड़े
होकर प्रतिबंधित संगठन सिमी के पक्ष में नारे लगा रहे थे और बयानबाज़ी करते हुए यह
प्रण ले रहे थे कि वो संगठन के उद्देश्य को आगे बढ़ायेंगे. यहाँ तक कि कई मामलों
में तो अखबारों में प्रकाशित सिमी से जुड़ी ख़बरों को भी आधार बनाया गया है जैसे अगर सिमी से सम्बंधित अखबारों में प्रकाशित खबरें किसी
आरोपी के यहाँ मिली है तो उसे भी सबूत के तौर पर रखा गया है. जाहिर हैं रिपोर्ट तथ्यों के साथ बताती है कि कैसे इन मामलों में
हल्के सबूतों और कानूनी प्रक्रियाओं के घोर उलंघन किया गया है.
सुप्रीम कोर्ट ने 3 फरवरी 2011 को दिए गए अपने लैंडमार्क आदेश में कहा
था कि “केवल प्रतिबंधित संगठन की सदस्यता किसी व्यक्ति
को अपराधी नहीं साबित करती.” मध्यप्रदेश में सिमी
से जुड़े होने के करीब दो दर्जन आरोपी इसी आधार पर बरी किये जा चुके हैं. भोपाल मुठभेड़ में मारे गए आरोपियों में से कई के मामलों में
भी अदालत ने सबूतों को अविश्वसनीय बताया था और इनके जल्द ही बरी होने की सम्भावना
थी.
फैसला सुनाने की जल्दी
हमारे देश में अंडरट्रायल कैदी को आतंकवादी बता देना बहुत
आम है और अगर मामला अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों से जुड़ा हो तो कोई इंतजार नहीं करता कि अपराध सिद्ध हुआ है कि नहीं हर कोई जज बन कर फैसला देने लगता. इस मामले में मीडिया सबसे आगे हैं. ऐसे कई मामले सामने आये
हैं जहाँ मुस्लिम नौजवान कई सालों तक जेल की “सजा” काटने के बाद निर्दोष साबित हुए है लेकिन
इस दौरान उन्हें आतंकी ही बताया जाता रहा. मारे गये आठ लोगों पर भी सिमी से जुड़े होने का आरोप था जिसे साबित किया जाना बाकी
था. लेकिन मुठभेड़ के बाद भी हमारा मीडिया इन्हें आतंकवादी लिखता और
दिखाता रहा. भोपाल लाल परेड ग्राउंड पर मुख्यमंत्री ने भी इन्हें आतंकवादी बताया था.जबकि
मध्यप्रदेश सरकार द्वारा न्यायिक जांच का जो लिखित आदेश दिया है उसमें आतंकवादी शब्द की जगह अंडरट्रायल का उपयोग किया गया है. जाहिर
हैं यहाँ मामला कोर्ट और कानून से जुड़ा हुआ था इसलिए यहाँ वही लोग अंडरट्रायल हो गये जिन्हें सरकार के मुखिया से लेकर तमाम
मीडिया वाले आतंकवादी बता रहे थे.
सवाल करना है मना है
इन दिनों देश की आबो-हवा बदली सी है, सरकार के हर फैसले को देशभक्ति और सवालों या आलोचना को
देशद्रोह करार दिया जा रहा है.हालत यह है कि भगवा खेमे के पत्रकार औरदैनिक 'नयाइंडिया' के सम्पादक हरि शंकर व्यास जैसे
लोगों तक को कहना पड़ रहा है कि“मैं हिन्दू राष्ट्रवादी हूँ, फिर भी कहता हूँ कि मोदी राम की नहीं रावण की दिशा में चल
रहे हैं.” उन्हें भी लोगों के जुबान बंद और हवा में
पसरा हुआ भय दिखाई पड़ रहा है.
भोपाल एनकाउंटर को लेकर इतने सारे सवाल है और यह एक तरह से
इन्साफ के लिए कानूनी प्रक्रियाओं और नागिरकों के जीने के अधिकार से जुड़ा हुआ है.
इसके बावजूद भी हुक्मरानों ने सवाल उठाने वालों को नसीहतें दी हैं. सबसे खुला फरमान
केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरेन रिजिजू का है जिसमें उन्होंने कहा है कि “पुलिस पर सवाल उठाना और संदेह करना बंद होना चाहिए”. मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की नसीहत थी
कि कि “जो लोग इस एनकाउंटर पर सवाल खड़े कर रहे हैं उन्हेंमारे गए पुलिसकर्मी के लिए
भी दो शब्द बोलने चाहिए.
मामला फरमान और नसीहत तक ही नहीं सीमित रहा बल्कि सवाल
उठाने वालों को सबक भी सिखाया गया. लखनऊ में मुठभेड़ के खिलाफ रिहाई मंच के धरने के
दौरान मंच के महासचिव और अन्य कार्यकर्ताओं की पुलिस द्वारा जमकर पिटाई की गयी.इंदौर
में भी एनकाउंटर के खिलाफ विरोध जताने और अपनी मांग रखने वाले नागरिक समूह को
कार्यक्रम करने नहीं दिया गया और कार्यक्रम से पहले नजरबन्द कर दिया गया.
जांच जारी है
इस मामले की जांच पहले एनआईए द्वारा कराये जाने की बात की
गयी थी लेकिन बाद में सरकार इससे पीछे हट गई और अब न्यायिक जांच के आदेश देते हुए एक-सदस्यीय जाँच आयोग गठित कर दी गयी है
जिसकी अध्यक्षता उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश श्री एस.के. पाण्डे कर
रहे हैं. जाँच आयोग को 3 माह के भीतर जाँच पूरी करके अपनी रिपोर्ट
राज्य सरकार को प्रस्तुत करनी है. आयोग की जांच के तीन प्रमुख बिंदु हैं.
· विचाराधीन बंदी किन परिस्थितियों एवं
घटनाक्रम में जेल से फरार हुए? उक्त घटना के लिये कौन अधिकारी एवं
कर्मचारी उत्तरदायी हैं?
· पुलिस मुठभेड़ और विचाराधीन कैदियों की
मृत्यु किन परिस्थितियों एवं घटनाक्रम में हुई?
· क्या मुठभेड़ में पुलिस द्वारा की गयी
कार्यवाही उन परिस्थितियों में सही थी ?
लेकिन आरोपियों के वकील ने इस एनकाउंटर की
न्यायिक जाँच रिटायर से कराए जाने के सरकार के फैसले पर सवाल उठाते हुए कहा है कि “आरोप राज्य सरकार पर है
और वो हाई कोर्ट के मुख्य न्यायधीश से परामर्श लिए बिना एक रिटायर्ड जज से न्यायिक
जाँच कराने की घोषणा कैसे कर सकती है?”. उन्होंने इस मामले
की जांच एक सिटिंग जज से करने की मांग थी. इस सम्बन्ध में मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में
एक जनहित याचिका भी दायर की गयी थी जिसमें मांग की गई थी कि राज्य सरकार द्वारा
हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज की अध्यक्षता में बनाई गई एक सदस्यीय जांच सीमित से कराने
के बजाए एनकाउंटर की जांच हाईकोर्ट की सिंटिंग जज द्वारा कराई जाए. लेकिन हाईकोर्ट
द्वारा इस याचिका ख़ारिज कर दिया गया.
हर एनकाउंटर एक सवाल है और भोपाल एनकाउंटर का पूरा मामला ही
सवालों का ढेर है. यह एक गंभीर मामला है जहाँ नागिरकों को सुरक्षा देने के लिए
जवाबदेह सरकार और पुलिस-प्रशासन ही सवालों के घेरे में हैं. सरकार और मीडिया
द्वारा जिस तरह से इस एनकाउंटर का उत्सव मनाया गया था उससे इस बात की उम्मीद बहुत कम है कि इन
सवालों के जवाब कभी बाहर आ पायेंगें. क्योंकि जिन्हें जवाब देना था वे अपना फैसला
पहले ही सुना चुके हैं अब वही जांच भी करा रहे हैं .
......................
(समकालीन तीसरी दुनिया (अक्टूबर-दिसंबर 2016) में
प्रकाशित)
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