मध्यप्रदेश अभी भी बीमारू राज्य है


एल.एस. हरदेनिया



पिछले कई दिनों से यह दावा किया जा रहा है कि मध्यप्रदेश अब बीमारू राज्य नहीं रहा है। सर्वप्रथम यह दावा वर्ष 2013 में संपन्न चुनाव के पहले किया गया था। उस समय इस बात की पूरी तरह से संभावना पूरी तरह से नज़र आ रही थी कि नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री पद के लिए भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार होंगे। यह संभावना लालकृष्ण आडवाणी जी को पसंद नहीं आई। नरेन्द्र मोदी का नाम इसलिए बढ़ाया जाता था क्योंकि उन्होंने गुजरात में अद्भुत विकास किया है। आडवाणी इस बात को नहीं मानते थे। उनका कहना था कि गुजरात तो पहले से ही विकसित राज्य था, परंतु असली विकास तो मध्यप्रदेश में हुआ है और उसका संपूर्ण श्रेय वे शिवराज सिंह चैहान को देते थे। आडवाणी लगभग यह दावा करते थे कि शिवराज सिंह चैहान के अद्भुत प्रयासों के कारण मध्यप्रदेश अब बीमारू राज्य नहीं रहा है। इसलिए नरेन्द्र मोदी के अतिरिक्त शिवराज सिंह चैहान भी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हो सकते हैं। मध्यप्रदेश के अलावा बिहार, राजस्थान, उत्तरप्रदेश को भी बीमारू राज्य समझा जाता है।

रंतु पिछले अनेक दिनों से प्रदेश में कई ऐसी घटनाएं हुई हैं जिनसे यह दावा पूरी तरह गलत सिद्ध हो गया है कि मध्यप्रदेश अब बीमारू राज्य नहीं रहा। शायद ही ऐसा कोई क्षेत्र है जिसके बारे में भाजपा नेतृत्व का यह दावा कि मध्यप्रदेश अब बीमारू राज्य नहीं रहा है सही साबित हो सकता हो। मामला चाहे कुपोषण के कारण बच्चों की मृत्यु का हो, गर्भवती माताओं की मौत का प्रतिशत जो देश की तुलना में ज्यादा है, महिलाओं के साथ हिंसक घटनाओं का प्रतिशत भी देश के प्रतिशत से ज्यादा है, शिक्षा के क्षेत्र में अच्छी स्थितियां कतई नज़र नहीं आती हैं। व्यापमं ने तो पूरे प्रदेश को दर्जनों वर्ष पीछे छोड़ दिया है। व्यापमं के कारण मध्यप्रदेश के शिक्षा क्षेत्र की पूरी विश्वसनीयता खोखली हो गई है। सड़कों पर गंभीर दुर्घटनाएं हो रही हैं। बिना लायसेंस के वाहन चलाए जा रहे हैं। अभी हाल में ऐसे ही एक वाहन से टकराकर अनेक लोगों की मृत्यु हो गई।

र्मदा नदी में इतना प्रदूषण है कि मुख्यमंत्री को उसके लिए विशेष अभियान चलाना पड़ रहा है।अभी हाल में भोपाल में एक ऐसी घटना घटी जिससे यह सिद्ध हुआ कि सरकारी स्वास्थ्य विभाग का स्वास्थ्य अत्यधिक खराब है। भोपाल स्थित हमीदिया अस्पताल में अत्यधिक दुःखद परिस्थितियों में एक महिला की मृत्यु हो गई। उसे सही इलाज तो उपलब्ध हुआ नहीं वरन उसकी लाश के आंख समेत अन्य अंगों को चूहों ने कुतर दिया। भारी संख्या में गंभीर रूप से ग्रस्त रोगियों को भर्ती नहीं किया जाता है। यह दावा है कि अस्पताल में भर्ती सभी रोगियों को निशुल्क दवाईयां दी जाती हैं परंतु मैदानी तथ्य इसके बिल्कुल विपरीत हैं। जिन दुःखद परिस्थितियों में इस महिला की मृत्यु हुई और बाद में उसकी लाश का जो अपमान हुआ उसे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने बहुत ही गंभीरता से लिया और स्वयं अस्पताल गए, वहां तीन-चार घंटे रूके और लगभग सभी संबंधित अधिकारियों को दंडित कर दिया। जिनको दंडित किया उनमें अतिरिक्त मुख्य सचिव, मेडिकल कॉलेज की डीन, वहां के अधीक्षक और अन्य अधिकारी शामिल हैं। दंड के आदेश भी सिर्फ टेलिफोन से दिए गए और बिना यह तय किए कि असली जिम्मेदार कौन है और किस तरह की जिम्मेदारी इस तरह की घटनाओं के लिए उत्तरदायी है या व्यवस्था में ही कोई कमी है। फिर यह भी चिंतन की बात है कि अकेले एक अस्पताल की व्यवस्था सुधारने के लिए स्वयं मुख्यमंत्री को जाना पड़ा। स्वास्थ्य मंत्री क्या कर रहे थे? क्या उनकी सीधी जिम्मेदारी नहीं है। फिर उस विभाग के उच्च अधिकारी के रहते हुए भी अस्पताल की व्यवस्थाएं क्यों गड़बड़ाईं। वैसे तो राज्य के सभी सरकारी अस्पतालों की व्यवस्थाएं चरमराई हुई हैं। क्या इस बात की आवश्यकता नहीं है कि उन कारणों को व्यवस्थित और गहराई से खोजा जाए जिनके चलते अस्पतालों की स्थिति खस्ता है।

हां तक कि गर्भवती महिलाओं को अस्पताल पहुंचाने के लिए जो जननी एक्सप्रेस प्रारंभ की गई है, वह भी समय पर नहीं पहुंचती है। 108 वाहन, जो अत्यधिक गंभीर रोगियों को पहुंचाने के काम आता है, उसके बारे में भी तरह-तरह की शंकाएं प्रकट की जाती हैं। उसमें आपातकालीन इलाज के लिए उचित व्यवस्था नहीं है। क्या स्वास्थ्य विभाग में सुधार के लिए नियमों में परिवर्तन करने की आवश्यकता है? इस समय अस्पतालों के अनेक काम प्रायवेट ठेकेदारों को सौंपे जाते हैं। हमीदिया अस्पताल के बारे में बताया गया है कि यहां का सफाई का ठेका भारतीय जनता पार्टी के एक प्रभावशाली नेता को दिया गया है, जिससे किसी प्रकार के स्पष्टीकरण पूछने का साहस अस्पताल के अधिकारी नहीं कर पाते हैं।

क और समस्या है जिसके कारण मेडिकल कालेज से जुड़े अस्पतालों की व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाती है, वह है जूनियर डॉक्टरों का रवैय्या। आए दिन जूनियर डॅक्टरों का रोगियों के परिजनों से विवाद हो जाता है, जो कभी-कभी हिंसक मोड़ ले लेता है, जिसके चलते जूनियर डॉक्टर हड़ताल पर चले जाते हैं। रोगियों के परिजन भी धैर्य से काम नहीं लेते हैं और रोगी की मृत्यु होने पर सारा गुस्सा डॉक्टरों पर उतारते हैं। डोक्टरों की प्रतिक्रिया भी हिंसक हो जाती है। यह अक्सर उस समय होता है जब वरिष्ठ डॉक्टर अस्पताल में नहीं होते हैं या इस तरह का घटनाक्रम होने पर गायब हो जाते हैं। पिछला अनुभव यह बताता है कि अस्पतालों का प्रशासन अकेले डोक्टरों को सौंपना शायद उतना उपयोगी नहीं है, इसलिए अस्पतालों के प्रबंध के लिए एक पृथक कार्डर निर्मित करना आवश्यक प्रतीत होता है। किसी भी बड़े अस्पताल में दो प्रकार के अधिकारी रहने से शायद स्थिति बेहतर हो सकती है। एक अधिकारी मेडिकल क्षेत्र का हो और दूसरा प्रशासनिक क्षेत्र का। पूर्व में जब कभी प्रशासनिक अधिकारियों को अस्पताल के प्रशासन की जिम्मेदारी सौंपी गई थी तो उसके नतीजे सुखद रहे हैं।

जूनियर डॉक्टर वे होते हैं जो मेडिकल शिक्षा पूरी करके इनटर्नशिप का आवश्यक समय उन्हें पूरा करना पड़ता है। इस दरम्यान उनके काम करने के घंटे भी बहुत होते हैं। कभी-कभी उन्हें 24 घंटे लगातार काम करना पड़ता है। इस तरह की व्यवस्था में भी सुधार आवश्यक है।

कुल मिलाकर उन कारणों को देखा ही नहीं गया है जिनसे व्यवस्था में सुधार हो सकता है। सत्ता के राजनैतिक अधिकारी अन्य कामों में इतने व्यस्त रहते हैं कि उन्हें व्यवस्था में सुधार करने के लिए जो चिंतन-मनन की आवश्यकता होती है वह हो ही नहीं पाती है। मेडिकल क्षेत्र में सुविधाओं के अभाव का मुख्य कारण उचित बजट का अभाव भी है। परंतु हमारे यहां जिस प्रकार की व्यवस्था है उसमें अनावश्यक चीजों पर खर्च किया जाता है। जैसे निःशुल्क तीर्थयात्रा कराना। अनावश्यक रूप से इसमें बजट खर्च किया जाता है। बिना सोच-समझे मुख्यमंत्री अनेक ऐसी घोषणाएं कर देते हैं जिनसे वित्तीय भार बढ़ता है। जैसे अभी कुछ दिन पहले उन्होंने यह घोषणा की कि सैनिकों की विधवाओं को पांच हजार रूपए महीना राज्य सरकार की ओर से दिया  जाएगा। सैनिकों के परिवारों की देखभाल के लिए केन्द्र सरकार पूरी मुस्तैदी से कर्तव्य निर्वहन करती है, यहां तक कि ऐसे सैनिकों के परिवारों का भी ध्यान रखा जाता है जो नेपाल के रहने वाले हैं। अनेक स्थानों पर सैनिक विश्रामगृह बने हुए हैं। उनके कल्याण के लिए समितियां भी हैं। इसलिए राज्य सरकार को इस क्षेत्र में अपने बजट से किसी भी प्रकार का व्यय करना आवश्यक नहीं है। यदि किसी दूसरे राज्य का खिलाड़ी ओलंपिक में या किसी अन्य विधा में असाधारण सफलता हासिल करता है तो हमारे मुख्यमंत्री उसे 50 लाख रूपए अनावश्यक इनाम देते हैं। इस तरह के खिलाड़ियों को संबंधित राज्य और केन्द्र की तरफ से पहले ही बहुत कुछ मिल जाता है। सिंहस्थ में हजारों करोड़ खर्च किए गए। पहले राज्य सरकार की दिलचस्पी सिर्फ सिंहस्थ के प्रबंधन तक सीमित रहती थी। वहां आयोजित कार्यक्रमों से राज्य शासन का कोई संबंध नहीं रहता था। राज्य सरकार का मुख्य काम प्रदेश के निवासियों को शिक्षा, स्वास्थ्य और आवागमन की सुविधाओं प्रदान करना है। कानून और व्यवस्था तो उसकी ज़िम्मेदारी है ही।

पिछले अनेक वर्षों से प्रदेश में भ्रष्टाचार की जड़ें और गहरी हुई हैं। छापों में पकड़ाया जाने वाला पैसा सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों में घपले कर के ही तो आता है। भ्रष्टाचार की इस प्रवृत्ति पर तनिक भी अंकुश नहीं लग पाया है। व्यापमं ने यह सिद्ध कर दिया है कि जितना बड़ा भ्रष्ट तंत्र हमारे मध्यप्रदेश में है उतना शायद अन्य राज्यों में नहीं है। इस वास्तिवकता के बावजूद पिछले दिनों एक कार्यक्रम में मुख्यमंत्री ने यह कह डाला कि मध्यप्रदेश की ब्यूरोक्रेसी देश में सर्वश्रेष्ठ है। यदि यह वास्तविकता होती तो मध्यप्रदेश के माथे से कभी का बीमारू राज्य होने का कलंक हट गया होता।

प्रदेश में इस समय सबसे बड़ी आवश्यकता गरीबों तक स्वास्थ्य की सुविधाओं को पहुंचाना है। परंतु यह नहीं हो पा रहा है और बड़े पैमाने पर आम आदमी को भी प्रायवेट इलाज पर निर्भर रहना पड़ता है और प्रायवेट इलाज का अर्थ होता है आर्थिक रूप से एक परिवार का पूरी तरह से टूट जाना।

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 (लेखक वरिष्ठ पत्रकार व धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्ध कार्यकर्ता हैं)  


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