मिशन 2018 :- कौन कहाँ खड़ा है ?
जावेद अनीस
मध्यप्रदेश में भाजपा बीते 14 सालों
से सत्ता पर काबिज है, इस दौरान यहाँ
उसने अपनी गहरी पैठ बना ली है. उधर लम्बे
समय तक सत्ता की धुरी रही कांग्रेस वहीँ के वहीँ कदमताल करते हुए नजर आ रही है, ना तो उसने अपनी
लगातार हुई हारों से कोई सबक सीखा है और ना ही कभी-कभार मिली छुट-पुट मिली जीतों
से ही उसमें कोई उत्साह देखने को मिला है, उसका जनता
से जुड़ाव लगातार कमजोर हुआ है. 2018 का विधानसभा चुनाव ज्यादा दूर
नहीं है लेकिन ऐसा लगता है कि पार्टी बिना किसी विजन और लक्ष्य
के एक बार फिर चुनाव में उतरने जा रही है. अगर कोई चर्चा है तो बस यही कि इस बार
कांग्रेस की तरफ से चेहरा कौन होगा. पार्टी में तीन कोण बन चुके हैं एक तरफ ज्योतिरादित्य
सिंधिया हैं तो दूसरी तरफ कमलनाथ, तीसरे कोण पर अरुण यादव और अजय सिंह की ताजा जोड़ी है, पेंच
बहुत बुरी तरह से फंसा हुआ है. वहीँ दूसरी तरफ देखें तो हालत
बिलकुल विपरीत नजर आ रहे हैं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान
की अगुआई में भाजपा की मिशन-2018 की तैयारियां लगभग
पूरी हो चुकी हैं, चेहरा,भूमिकायें,मुद्दे,नारे सभी कुछ तय हो चुके हैं.
कांग्रेस जो कभी मध्यप्रदेश चुनौती-विहीन
थी पिछले3 चुनावों से लगातार
सत्ता से बाहर है और वर्तमान में राज्य के कुल 230 विधानसभा सीटों में से 58 पर सिमटकर रह गयी है. साल 2008 में कांग्रेस के पास 71 सीटें थीं हालाकिं 2003 के चुनाव में कांग्रेस मात्र 38 सीटों पर सिमट गयी थी. 2003 में कांग्रेस को
भाजपा की तुलना में 10.89 प्रतिशत कम मत मिले थे, जबकि 2008 में यह अंतर
कम होकर 5.24 हो गया था जबकि 2013 के चुनाव में कांग्रेस को भाजपा के मुकाबले 8.41
प्रतिशत काम वोट मिले थे. वर्ष 2003 में उमा भारती
को दिग्विजय सिंह के
सरकार को उखाड़ फेकने का श्रेय दिया जाता है तब उन्होंने कुशासन, बिजली, पानी
और सड़क को मुद्दा बना कर चुनाव लड़ा था
और भारी बहुमत के साथ जीती थीं.
भाजपा का बेलगाम रथ
अब
एक बार फिर भाजपा 2018 लगातार चौथी बार सरकार बनाने की कवायद में जुट गई है, इसके
लिए उसने बहुत पहले से मैदानी स्तर पर तैयारियां शुरू कर दी थीं और मंत्रियों व
विधायकों की सक्रियता बढ़ा दी गयीं थीं. पिछले साल सितम्बर में भाजपा की पचमढ़ी में
दो दिनों की चिंतन बैठक हो चुकी है जिसमें मिशन 2018 के लिये रणनीतियां बनायीं जा
चुकी हैं. इस बैठक में बूथ स्तर तक का रोड मैप तैयार किया जा चूका है साथ ही इस
बात पर भी चर्चा की गयी थी कि 2018 के चुनाव में कैसे संघ के अनुशांगिक संगठनों का
सहयोग लिया जाये.
हाल ही में सरकारी खर्चे पर हुई 'नर्मदा सेवा यात्रा' संपन्न हो चुकी है. इस दौरान भाजपा नेताओं ने सीधे तौर पर 100 विधानसभा सीटों अपनी पहुँच बनायीं है. इस यात्रा को भाजपा के लिए फायदेमंद माना जा रहा है. अब शिवराज सरकार सूबे के 47 आदिवासी सीटों पर 'आदिवासी अधिकार यात्रा' निकालने जा रही है जो कि जुलाई माह में शुरू हो सकती है, एक महीने तक चलने वाली इस यात्रा में खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान आदिवासियों से सीधे रूबरू होगें.
भाजपा
के पक्ष में सबसे बड़ी बात यह है कि अपने एक नेतृत्व फार्मूले पर चलते हुए उसने अपने
भीतर के सभी गुटबाजियों को किनारे लगा दिया है. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को
पूरा नियंत्रण दिया गया है और वे मध्यप्रदेश को लेकर हर छोटे बड़े फैसले लेने को
स्वतंत्रत हैं, फिर वो चाहे सत्ता और संगठन में नियुक्तियों का मामला हो या टिकट
वितरण का. प्रदेश के पार्टी अध्यक्ष भी एक तरह से मुख्यमंत्री के अधीन होकर ही काम
कर रहे हैं, भाजपा के लिये वन लीडरशिप फार्मूला बहुत कारगर साबित हुआ है. इधर
भाजपा के लिये अनिल दवे की आकस्मिक मौत एक बड़े धक्के की तरह है जिनकी कमी उसे आने
वाले चुनाव में खल सकती है क्योंकि पिछले तीनों विधानसभा चुनावों में भाजपा को जो जीत मिली है उसमें अनिल दवे के असरदार और सफल रणनीति का बड़ा योग्यदान रहा है.
मिथक
तोड़ते शिवराज
मध्यप्रदेश
में अगर उमा भारती ने कांग्रेस को उखाड़ फेका था तो शिवराज सिंह चौहान लगातार 11 सालों
से इसे बचाने और बढाने का काम कर रहे हैं.
वे एक के बाद एक मिथक तोड़ रहे हैं, पहले उन्होंने इस मिथक को तोड़ा कि मप्र में कोई
भी गैर-कांग्रेसी सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकती, फिर यह मिथक भी टूट गया
कि हर दस साल में होने वाले सिंहस्थ के बाद मुख्यमंत्री बदलता है. 29 नवंबर 2016 को शिवराज सिंह चौहान ने बतौर मुख्यमंत्री 11 साल पूरे कर लिए हैं जिसे आने
वाले समय में किसी दूसरे मुख्यमंत्री के लिए दोहरा पाना आसान नहीं होगा. मध्यप्रदेश
की राजनीति में ऐसा करने वाले वे इकलौते राजनेता हैं. शिवराज के राजनीति की शैली टकराव की नहीं बल्कि लोप्रोफाईल, समन्वयकारी और मिलनसार रही है. वे एक
ऐसे नेता है जो अपना काम बहुत नरमी और शांतिभाव से करते हैं लेकिन नियंत्रण ढीला
नहीं होने देते. आज मध्यप्रदेश की सरकार और संगठन दोनों में उन्हीं का दबदबा है.
जो विरोधी थे उन्हें शांत कर दिया गया है या फिर उन्हें सूबे से बाहर निर्वासन पर
भेज दिया गया है. भाजपा के पास शिवराज एक ऐसे मंत्र की तरह हैं जिसका कांग्रेस के
पास अभी तक कोई तोड़ नहीं है तभी तो वे तमाम घोटालों
से घिरे होने के बावजूद अपना सफर जारी रखते हैं और जनता भी उसके
साथ खड़ी नजर आती है. शिवराज के मुकाबले कांग्रेस के पास सिर्फ चेहरे दिखाई पड़ रहे
हैं जो जमीन पर कुछ खास फर्क नहीं डाल पा रहे हैं.
कशमश
में कांग्रेस
कांग्रेस
अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है अगले साल कर्नाटक, मध्य
प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. इन चारों राज्यों में कांग्रेस ताकत
रखती है और उसका मुकाबला सीधे तौर पर बीजीपी से है, यहाँ क्षेत्रीय पार्टियां नहीं
हैं या कमजोर हैं. मध्यप्रदेश की बात करें तो ऐसा लगता है कि कांग्रेस
हाईकमान की प्राथमिकताओं में मध्यप्रदेश गायब हो गया है तभी तो दिग्विजयसिंह के
बाद यहाँ अमूमन असमंजस और संशय की स्थिति रही है और करीब आधा दर्जन क्षत्रप ‘अपनी
ढपली अपना राग’
बजाते हुए ही नजर आये हैं. अब 2018 का विधानसभा
चुनाव सर पर है लेकिन कांग्रेस में भ्रम, असमंजस और अनिर्णय
की स्थिति बनी हुई है, किसी को पता नहीं कि किसके नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाएगा. कार्यकर्ता दिशाहीन हैं और नेता अपनी
अपनी गोटियाँ फिट करने में मशगूल हैं.
कांग्रेस के अंदरूनी सर्वे रिपोर्ट बताते हैं कि
सूबे में पहली बार भाजपा सरकार के खिलाफ एंटी इनकम्बैंसी दिखाई पड़ रही है लेकिन
समस्या यह है कि पार्टी यही तय नहीं कर पा रही है कि 2018 के लिए पार्टी का
नेतृत्व कौन करेगा. दिग्गज नेताओं में मध्यप्रदेश की कमान संभालने को लेकर सीधी
रस्साकशी की स्थिति बन गई है जिसमें सिंधिया, कमलनाथ और अजय सिंह व अरुण यादव की जोड़ी शामिल है.
इधर आलाकमान की तरफ से एकजुटता की कोशिशें भी हुई हैं. केंद्रीय नेतृत्व
के निर्देश
पर ही प्रदेश कांग्रेस द्वारा
बीते 22 फरवरी को विधानसभा घेराव का कार्यक्रम रखा गया
था जिसमें सभी दिग्गज
नेताओं कमलनाथ,
दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया,
सुरेश पचौरी, कांतिलाल भूरिया, अरूण यादव, अजय सिंह शामिल हुए. लेकिन यह कदम भी कारगर साबित नहीं हुआ, मंच पर भले ही सभी नेता एक
साथ बैठे लेकिन उनके समर्थक अपने-अपने नेताओं
के नारे लगाते हुए दिखाई पड़े. नतीजे के तौर पर इस शक्ति प्रदर्शन के बाद भी संशय कि स्थिति बनी हुई है. कोई भी पक्के तौर पर यह बताने की स्थिति में नहीं है कि
कांग्रेस के मिशन 2018 के लिए
चुनावी कमान किसके हाथ आएगी? जून माह
के अंतिम दिनों में राहुल गांधी का मध्यप्रदेश दौरा तय है कांग्रेसी उम्मीद कर रहे
हैं इस दौरान फैसला हो सकता है.
अजय-अरुण
की जोड़ी
अरुण यादव को खुद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी
ने राज्य में पार्टी का नेतृत्व करने के लिए चुना था.लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी
वे कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाए हैं, हालांकि उन्होंने इसके लिये प्रयास बहुत किये
हैं, कभी पदयात्रा तो कभी 'पोल खोल अभियान'
चलाया लेकिन कुछ अपनी सीमाओं और कांग्रेस
के अंदरूनी बिखराव के कारण वे कामयाब नहीं हो पाये और ना
ही जनता के दिलो-दिमाग पर कोई छाप छोड़ पाये.
2008 में चुनावों से करीब डेढ़ साल पहले उनके पिता मरहूम सुभाष यादव को जिस तरह हटाया
गया था आज ठीक वैसी
ही तलवार अरुण यादव के सिर पर लटक रही है.
अरुण यादव भले ही राहुल गांधी से मुलाकात कर खुद को ना हटाये जाने के आश्वासन
मिलने का दावा कर रहे हों लेकिन हालत उनके विपरीत नजर आ रहे हैं, कमलनाथ और
ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे दो दिग्गज उनके पीछे हाथ धोकर पड़े हैं. उनके साथ
अकेले अजय सिंह ही नजर आ रहे हैं जिन्हें सत्यदेव
कटारे की असामयिक मौत के बाद विधानसभा में कांग्रेस की कमान सौंपी
गयी है, इससे पहले जमुनादेवी के निधन के बाद भी अजय सिंह नेता प्रतिपक्ष बने
थे. तब उन्हें
ढाई साल का
मौका मिला था लेकिन
कांग्रेस की सत्ता में वापसी नहीं हो पाई थी.इस बार अजय सिंह का मिजाज बदला हुआ नजर आ रहा है. विधानसभा
में अपना पदभार ग्रहण करने के पूर्व पीसीसी में आयोजित स्वागत कार्यक्रम में
उन्होंने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव के साथ 2018 में
प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनाने का संकल्प लिया था,
पिछले दिनों जब उनसे कांग्रेस की तरफ से सीएम
के चेहरे का सवाल किया गया तो उन्होंने हंसते हुए जवाब दिया था कि ‘मेरे चेहरे में
क्या खराबी है?’
“सिंधिया” बनाम “नाथ”
पिछले कुछ समय से ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने संसदीय
क्षेत्र में सक्रिय होने के साथ भोपाल में भी मेल-मुलाकात बढ़ाते हुए नजर आ रहे हैं. मध्यप्रदेश विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष सत्यदेव
कटारे के निधन के बाद से खाली हुई अटेर सीट पर हुए उपचुनाव में जिस तरह से उनके
बेटे हेमंत कटारे की जीत हुई है उसमें
ज्योतिरादित्य सिंधिया की बड़ी भूमिका रही है. एक तरह से अटेर विधानसभा सीट जीतने
के लिये भाजपा ने सत्ता एवं संगठन के सारे संसाधन पूरी ताकत के साथ झोंक दिए थे लेकिन
उसके बाद भी कांग्रेस को मिली जीत ने सिंधिया की दावेदारी को और मजबूत किया है.उन्होंने
अपने प्रबंधन में सबको साथ लेकर आगे बढ़ने की क्षमता को दिखाया है.
सिंधिया खुले तौर पर इस बात को कह भी चुके हैं कि प्रदेश
में कांग्रेस को सीएम का चेहरा प्रोजेक्ट करना चाहिए. खुद को सीएम प्रोजेक्ट करने के सवाल पर उन्होंने कहा
था कि ‘पार्टी उन्हें जो जिम्मेदारी सौंपेगी, पूरी निष्ठा के साथ निभाऊंगा.’ वे मुख्यमंत्री शिवराज
सिंधिया को निशाने बना रहे हैं जिससे उनकी दावेदारी को और बल मिला है.
यह
पहली बार है कि कमलनाथ सूबे की राजनीति में इतना जोर लगा रहे हैं, वे भी मप्र के
सीएम बनने का सपना देख रहे है और इसी के लिये अपनी बिसात बिछाने में जुटे हैं. अपने पक्ष में उनकी
ओर से दलीलें दी जा रहीं हैं कि यह कमलनाथ के लिए आखिरी अवसर है जबकि सिंधिया के
लिए काफी वक्त बाकी है वो मप्र में फ्रीहेंड चाहते हैं. आर्थिक संकट से जूझ रही
कांग्रेस के लिए अनुभवी और कुबेर के धनी कमलनाथ के अहमियत का अंदाजा लगाया जा सकता
है. पिछले दिनों राजधानी के अखबारों में ख़बरें छपी थीं कि भोपाल में कमलनाथ के
बंगले को रंगरोगन करके तैयार किया जा रहा है. वे हर तरह से दबाव बनाने की पूरी कोशिश कर रहे
हैं यहाँ तक कि कमलनाथ की बीजेपी में जाने की अफवाहें भी उड़ाई गयीं थीं.
2018
का एजेंडा
मुख्यमंत्री
हर मंच से यह दावा करना नहीं भूलते कि उन्होंने मध्यप्रदेश को बीमारू राज्य के टैग
से छुटकारा दिलवा दिया है लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही तस्वीर पेश करती है.
सांख्यिकी मंत्रालय की हालिया आंकड़े बताते हैं कि सूबे के प्रति व्यक्ति आय अभी भी
राष्ट्रीय औसत से आधी है और इसके बढ़ने की रफ्तार बहुत धीमी है. सूबे के अधिकाशं
लोग आज भी खेती पर ही निर्भर हैं. शिवराज सिंह चौहान दावा करना नहीं भूलते कि उनकी
सरकार ने खेती को फायदे का धंधा बना दिया है और आगामी पांच वर्षो में किसानों की
आय दोगुना हो जायेगी. लेकिन विधानसभा में खुद उनके गृह मंत्री ने स्वीकार किया है
कि प्रदेश में प्रतिदिन 3 किसान या खेतिहर मजदूर आत्महत्या कर रहे हैं. इसी तरह से
पिछले साल के मुकाबले इस साल सिंचाई क्षेत्र में 3.12 प्रतिशत की कमी हुई है.
प्रदेश में औद्योगिक विकास की गति बहुत धीमी है और इसके लिए आज भी जरूरत के अनुसार
अधोसंरचना नहीं बनायीं जा सकी है. मानव विकास के क्षेत्र में भी सूबे की तस्वीर बहुत बदरंग है. राष्ट्रीय
स्तर पर जहाँ शिशु मृत्यु दर 39 हैं,वहीँ
मध्यप्रदेश में यह दर 52 हैं. प्रदेश के ग्रामीण में तो
शिशु मृत्यु की दर 57 हैं. मातृ मृत्यु दर के मामले में भी सूबे की तस्वीर बहुत स्याह हैं जहाँ
राष्ट्रीय स्तर पर यह दर 167 हैं वही
मध्यप्रदेश इससे 32.33 फीसदी अधिक 221 पर खड़ा है. इसी तरह से राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 4 (2015-16) के अनुसार
राज्य में 40 प्रतिशत बच्चे आज भी कुपोषित हैं, रिर्पोट के अनुसार 5 साल से
कम उम्र के हर 100 बच्चों में से लगभग 40 बच्चों का विकास ठीक से नही हो पाता है, इसी
तरह से 5 साल से कम उम्र के लगभग 60 प्रतिशत बच्चे खून की कमी के शिकार हैं और
केवल 55 प्रतिशत बच्चों का ही सम्पूर्ण टीकाकरण हो पाता है.
उपरोक्त
परिस्थितयां 2018 में होने वाले चुनाव के लिये मुददे हो सकते थे, इन्हें एजेंडे पर लाने का काम
विपक्षी कांग्रेस का था. लेकिन वह आम जन जीवन से जुड़े उन ज्वलंत विषयों पर धार
नहीं चढ़ा पाई. नतीजे के तौर कांग्रेस के चुनावी एजेंडा सेट करने क काम शिवराज सिंह
चौहान ने कर दिया है. भाजपा इस बार आस्था के सवालों को एजेंडा बना रही है पहले सिंहस्थ फिर नर्मदा सेवा यात्रा और आदि
शंकराचार्य की जयंती पर व्यापक आयोजन. मिशन 2018 के केन्द्र में आस्था ही रहने
वाली है.
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