उदारपंथियों की हताशा और राहुल गांधी



जावेद अनीस

28 May 2018, Janwani 


भारत के लिबरल-उदारपंथियों के लिये यह एक निराशा भरा दौर है, आज दक्षिणपंथी पूरे देश, समाज और राजव्यवस्था में उथल पुथल मचाये हुए हैं और अब उनका इरादा उदारवादी खेमे के बौद्धिक किले को भी ध्वस्त करके वहां अपने तरीके की बौद्धिकता को स्थापित करने का है. लिबरल-उदारपंथियों को इस आपात स्थिति से निपटने के लिये कोई रास्ता सूझ नहीं रहा है, सामने कोई सामाजिक राजनीतिक ताकत भी नहीं दिखाई पड़ रही है जो दक्षिणपंथ के काफिले को ललकार सके. कुछ समय पहले तक अरविंद केजरीवाल और नितीश कुमार से उम्मीदें बनी हुयी थीं लेकिन आज अरविन्द केजरीवाल अपने ही महत्वाकांक्षाओं के भार तले दबे पड़े है और नितीश कुमार ने तो दुश्मनों की ही फौज ज्वाइन कर ली है. इसके बाद ले दे कर एक राहुल गाँधी ही बचते हैं जिन पर उम्मीदों का सारा बोझ डाल दिया गया है. उम्मीदों की इस भारी भरकम कार्यसूची में संघ की ताकत, मोदी/शाह के नंगई भरी राजनीति और हर चुनाव में उनकी बेलगाम चुनावी मशीन का मुकाबला करने, उन्हें रोकने के लिये विपक्ष की अगुवाई करने, वेंटिलेटर पर पड़ी कांग्रेस पार्टी को पुनर्जीवित करने और धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र व भारतीय संविधान की रक्षा करने जैसे भारी भरकम काम हैं.

लेकिन राहुल गांधी हैं कि पराजयों और इससे उपजे निराशाओं के प्रतीक बनते जा रहे हैं. सोते जागते दक्षिण सेना उनके पीछे हाथ धोकर पड़ी ही रहती है साथ ही हर पराजय के बाद राहुल लिबरल और उदारपंथी खेमे के निशाने पर भी आ जाते हैं उन्हें दूसरे काबिल लोगों के लिये जगह छोड़ने का सुझाव दिया जाने लगता है. कर्नाटक नतीजे आने के बाद रस्साकशी के पहले दौर में यही दोहराया गया. लिबरल-उदारपंथियों के इस फ्रस्टेशन से लगता है मानो इन सबके के लिये अकेले राहुल गांधी ही जिम्मेदार है और उनके पीछे हटने से सारी समस्यायें हल हो जायेंगीं और इसी वजह से राहुल का निष्पक्ष आकलन नहीं हो पाता है.

भारतीय राजनीति में राहुल गांधी की छवि अनिक्षुक, अगंभीर, बेपरवाह, कमअक्ल और पार्ट टाइम पॉलीटिशियन राजनेता की बन गयी है जो यहां सिर्फ हारने के लिए ही टिका है, उनके बारे में मजाक चलता है कि राहुल कांग्रेस को भंग करने के महात्मा गांधी के सपने को अंजाम दे रहे हैं. उनके जितना मजाक शायद ही किसी और राजनेता का बनाया जाता हो, वे ट्रोल सेना के फेवरेट है, सोशल मीडिया और उससे बाहर भी सबसे ज्यादा चुटकले उन्हीं के नाम से बनाये और सुनाये जाते हैं.राहुल गाँधी की यह छवि ऐसे ही नहीं बनी है इसके लिये एक पूरी फ़ौज और उनके सरगना लगे हैं जिन्होंने इस पर काफी मेहनत की है.

राहुल गांधी पर सबसे बड़ा आरोप यह लगाया जाता है कि उन्हें सबकुछ अपनी परिवारिक पृष्ठभूमि के कारण मिल गया है लेकिन असल में उन्हें विरासत में मिला क्या है? परिवार, पार्टी और इसकी वजह से खुद के खिलाफ लोगों का जबरदस्त गुस्सा,असंतोष या फिर मरणासन्न कांग्रेस पार्टी को दोबारा पटरी पर लाने का पहाड़ सा कार्यभार?

ये सही है कि 2014 में मोदी उभार के बाद से कांग्रेस पार्टी अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिये जूझ रही है. इस दौरान एक के बाद एक राज्य उसके हाथ से निकलते जा रहे हैं. और सिर्फ पंजाब, पुडुचेरी और मिजोरम में ही उसकी सरकारें बची है और अब कर्नाटक में बड़ी मुश्किल से जेडीएस की अगुवाई में सरकार बचा पाने में कामयाब हो पायी है. लेकिन क्या कांग्रेस के इस दयनीय हालत में पहुंचने के लिए अकेले राहुल गाँधी ही जिम्मेदार हैं या फिर राहुल को उस समय कांग्रेस की कमान मिली है जब कांग्रेस की अपने पुराने कुकर्मों और गलत रणनीतियों की वजह से यह हालत होनी ही थी और अब इसका ठीकरा फोड़ने के लिये सामने राहुल गांधी का ही सर बचा है.

भी हाशिये पर रहे दक्षिणपंथी आज मुख्यधारा बन चुके हैं और अब लिबरल उदारवादी खेमे के हाशिये पर चले जाने का खतरा बहुत बढ़ गया हैं. भारत के बौद्विक धरातल पर पहले जहां वामपंथ और समाजवादी-गांधीवादी विचारधारा का वर्चस्व था जो बड़े दिलचस्प तरीके से कांग्रेस के दौर में ही फलने-फूलने के बावजूद अपनी मूल में कांग्रेस विरोधी थी, लेकिन अब इसमें बदलाव आ चुका है. दक्षिणपंथी हर स्तर पर अपना वर्चस्व बनाने में कामयाब हो चुका है जिसे वो नये तरह के राष्ट्रवाद, देशभक्ति और हिंदुत्व के रूप में अभिव्यक्ति करता है.
दरअसल कांग्रेस या किसी दूसरे चुनावी दल की तरह भाजपा कोई सामान्य पार्टी नहीं है. उसके पीछे संघ और उसकी पूरी धारा खड़ी है जिसका भारतीय राज्य और समाज व्यवस्था के लिये अपना एक एक दीर्घकालीन मिशन है.

ह सिर्फ चुनावी मुकाबला नहीं है ऐसे में कांग्रेस या इसकी तरह के किसी और दल से यह उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वो संघ की राजनीति को वैचारिक रूप से चुनौती दें. जिन ताकतों को यह काम करना था उनमें वामपंथी भ्रम और जड़ता के शिकार हैं और समाजवादी-बहुजन राजनीति जातिगत या परिवारिक खेमों में ही सिमट कर रह गयी है.

राहुल गांधी की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उन्हें प्रतिद्वंदी के रूप में असाधारण प्रतिद्वंदी मिले है जिनके राजनीति का तरीका बड़ा बेशर्मी भरा निष्ठुर और असामान्य है. मोदी दौर में राजनीति की भाषा-मिजाज़ और मुहावरे सभी कुछ बदल चुके हैं जिसके साथ राहुल क्या सभी को ही तालमेल बताने में मुश्किल पेश आ रही है.
राहुल गांधी नरेंद्र मोदी के बिलकुल विपरीत है, यह उनकी ताकत है और सीमा भी. ताकत इसलिए कि इससे उनमें मोदी के विकल्प के रूप में उभरने की संभावना बनती है, मोदी के विपरीत वे पड़ोस के किसी लड़के की तरह लगते हैं जिस की उम्र बढ़ती जा रही है लेकिन ना तो अभी तक उसकी शादी हुयी है और ना ही नौकरी पक्की है, वे लोगों से बहुत आसानी से घुल मिल जाते हैं और उनसें सामन्य तरीके से बात-चीत कर लेते हैं और सीमा इसलिये कि इससे उनके मोदी के बरक्स एक कमजोर,लचर और अनिर्णय की स्थिति में फंसे नेता की छवि उभरती है जो मोदी की तरह मजबूत और दबंग नहीं है.

ज एक ऐसे समय में जब लगता है कि दक्षिणपंथ को छोड़ कर बाकी बची दूसरी विचारधारायें लम्बी छुट्टी पर चली गयीं हो, ये राहुल गाँधी ही हैं जो आज मुख्यधारा की राजनीति में भाजपा, मोदी और संघ के खिलाफ सबसे मुखर आवाज बने हुये हैं. कर्नाटक की तिकड़म में बाजी मारने के बाद किये गये प्रेस कांफ्रेंस में जिस तरह से उन्होंने नरेंद्र मोदी को स्वयं में भ्रष्टाचार और अमित शाह को हत्या का अभियुक्त [मर्डर एक्यूज़्ड] कहा वो इस बात की तस्दीक है. हालाँकि वे नर्म हिन्दुतत्व” के सहारे संतुलन साधने की कोशिश भी कर रहे हैं लेकिन ये भी उनके अकेले की गलती नहीं है इसके लिये मुख्य रूप से धर्मनिरपेक्षता के तथाकथित योद्धाओं की अवसरवादी राजनीति जिम्मेदार है जिसकी वजह से दक्षिणपंथियों ने चुनावी राजनीति में अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के इल्जाम को इतना तीक्ष्ण बना दिया है कि आप उनकी बात ही नहीं कर सकते हैं. आप को उन्हीं के दिये गये पिच पर ही खेलना है.

जाहिर है कि परिस्थितियां पूरी तरह से बदल चुकी हैं, आज दक्षिणपंथी खेमे का मुकाबला पुराने तरीकों से नहीं किया जा सकता है और यह काम अकेले राहुल गांधी के बस का भी नहीं है. इसके लिये खुद को वैचारिक संगठन कहने वाले संगठनों को अपनी जड़ता और पुरानी लकीर से आगे बढ़ते हुये नये विमर्श गढ़ने होंगें जिसमें बौद्धिक वर्ग को अगुवाई लेनी होगी .

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