अच्छे दिनों के फीके नतीजे
(सन्दर्भ- मोदी सरकार के चार साल)
जावेद अनीस
मोदी सरकार ने अपने
चार साल पूरे कर लिये है इस दौरान सत्ताधारी भाजपा लगातार अपने आपको मजबूत करती
गयी है. उसने पूरे विपक्ष को रौंद डाला है और
एक के बाद एक राज्यों को जीतकर या गठबंधन में भागीदारी करके उसने भारतीय राजनीति में वो
मुकाम हासिल कर लिया है जो कभी कांग्रेस का हुआ
करता था. भारतीय
राजनीति के इतिहास में विपक्ष शायद ही कभी इतना बिखरा,
हताश और दिशाहीन दिखाई पड़ा हो. पीछे चार साल का दौर भारतीय राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था
के लिये काफी उठा-पठक वाला दौर साबित हुआ है. आप इससे सहमत हों या ना हों लेकिन इन
बदलाओं से इनकार नहीं किया जा सकता. आज चार साल बाद पूरा नेरेटिव बदल चुका है.
2014 में नरेंद्र मोदी
की आसमानी जीत ने सभी को अचंभित कर दिया था. यह कोई मामूली जीत नहीं थी. ऐसी मिसालें भारतीय राजनीति के इतिहास में
बहुत कम मिलती हैं. 2014 के चुनाव में भारत
को एक ऐसी सरकार मिली थी जो आर्थिक नीतियों के साथ साथ सामाजिक मसलों में भी पूरी
तरह से दक्षिणपंथी है. आर्थिक मामलों में कांग्रेस भी
एक दक्षिणपंथी है लेकिन दोनों में एक फर्क
है, भाजपा के जिम्मे संघ के सामाजिक-सांस्कृतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने का काम भी है इसलिए
हम देखते हैं कि सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर तो भाजपा का रास्ता अलग है पर आर्थिक
मुद्दों पर वो कांग्रेस का ही अनुसरण करती है लेकिन कई आर्थिक जानकार मानते हैं कि
भाजपा आर्थिक रूप से खुद को उतना दक्षिणपंथी साबित नहीं कर पायी है जितना की
कांग्रेस है. शायद तभी अंतरराष्ट्रीय कारोबारी पत्रिका ‘द इकोनॉमिस्ट’ ने भी लिखा था कि दरअसल
नरेंद्र मोदी “आर्थिक सुधारक के भेष में हिंदू कट्टरपंथी हैं.”
नरेंद्र
मोदी बदलाव के नारे के साथ सत्ता में आये थे. उन्होंने मनमोहन सिंह सरकार की नीतियों,आक्रमक
पूँजीवाद से उपजी निराशाओं और गुस्से को भुनाते हुए अपने आप को एक विकल्प के रूप
में पेश किया था, देश की जनता ने भी उन्हें हाथोंहाथ लिया था. जनता को भी
उनसे बड़ी उम्मीदें थीं. वोट देने वालों ने भी
उन्हें एक विकल्प के रूप इस आशा के साथ चुना था कि आने वाले दिनों में नयी सरकार
ऐसा कुछ काम करेगी जिससे उनके जीवन में सकारात्मक बदलाव हो होंगें, उनकी परेशानियाँ कुछ कम होगी और पुरानी सरकार
के बरअक्स ऐसा कुछ नया प्रस्तुत किया जाएगा. वायदे भी कम नहीं किये गये थे,पलक
झपकते ही सुशासन, विकास, महंगाई कम करने, भ्रष्टाचार के खात्मे, काला धन वापस
लाने, सबको साथ लेकर विकास करने, नवजवानों को रोजगार दिलाने जैसे भारी भरकम वायदे
किये गये थे.
लेकिन ऐसा कुछ होता नहीं दिख रहा है. इन चार
वर्षों में मोदी सरकार कोई नयी लकीर खीचने में नाकाम रही है, मोटे तौर पर वह पिछली सरकार के नीतियों का ही अनुसरण करते हुए दिखाई पड़
रही है. हालांकि इसके साथ उनकी यह कोशिश भी है कि पुराने लकीर को पीटने में नयापन
दिखाई दे.
दरअसल
मोदी सरकार पर उम्मीदों का बोझ भी कम नहीं है, यह एक तरह से तिहरे उम्मीदों का भार
है जहाँ एक तरफ संघ और उससे जुड़े कैडरों
की उम्मीदें है जिसने संघ दर्शन पर आधारित भारत निर्माण के लिए
लोक सभा चुनाव के दौरान अपनी पूरी ताकत झोक दी थी तो दूसरी तरफ बहुसंख्या में उन युवाओं और मध्यवर्ग की उम्मीदें हैं जिन्होंने मोदी
को विकास, सुशासन और अच्छे दिन आने के आस में वोट देकर निर्णायक स्थान तक पहुँचाया
है, इन सब के बीच देश–विदेशी कॉर्पोरेट्स के आसमान छूती उम्मीदें तो हैं ही,
जाहिर सी बात है मोदी सरकार के लिए इन सब के बीच ताल मेल बैठाना मुश्किल हो रहा
है, उसे इन समूहों को लम्बे समय तक एक साथ साधे रख सकने में
काफी मशक्कत करनी पड़ रही है और इसके लिये उसे दोहरा रवैया अपनाना पड़ रहा है.
अर्थव्यवस्था और रोजगार
2014 के चुनाव के
दौरान नरेंद्र मोदी ने लोगों से 60 महीने का वक्त मांगा था और कहा था कि वह कांग्रेस के 60
साल के नेतृत्व से बेहतर कार्य करेंगे लेकिन क्या मनमोहन और मोदी सरकार के आर्थिक नीतियों में कोई फर्क है
या दोनों के माडल एक है बस चेहरे बदल गये हैं? निश्चित रूप से कुछ बाहरी फर्क तो दिखाई
ही पड़ रहे हैं, जहाँ पहले पी.एम.ओ. में बैठे केंद्रीय शख्स को छोड़ कर पूरा
मंत्रिमंडल सत्ता को एन्जॉय करता हुआ दिखाई पड़ता था अब अकेले केंद्रीय शख्स ही
सत्ता को एन्जॉय करता हुआ नजर आ रहा है, हमारे पहले के प्रधानमंत्री यदा-कदा ही
तकरीर करते हुए दिखाई पड़ते थे, जबकि अब के प्रधानमंत्री हमेशा भाषण के मोड में
रहते हैं और कोई मौका हाथ से जाने नहीं देते हैं, दोनों सरकारों के मुखियाओं के
फैशन सेन्स और सूट-बूट में भी खासा फर्क है. हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री एक
बेहतरीन सेल्समैन हैं जो दुनिया भर में घूम-घूम कर मेक इन इंडिया का नारा बुलंद कर
रहे हैं. एक और फर्क ब्रांडिंग का भी है,
मोदी प्रधानमंत्री के साथ एक “ब्रांड” भी
हैं, सारा जोर इसी ब्रांड को बचाए और बनाये रखने में लगाया जा रहा है, मनमोहनसिंह के मामले में ऐसा
नहीं था.
पिछले दिनों भारत
के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि “भाजपा सरकार ने अर्थव्यवस्था को
बर्बाद कर दिया है, और उसकी नोटबंदी
और जीएसटी से कई नौकरियां गई.” मनमोहन सिंह एक आर्थिक ब्रांड है जो कभी कभार ही इस
तरह से बोलते हैं इसलिये आर्थिक मामलों पर उनके कहे की खास अहमियत होती है. आंकड़े भी मनमोहन
सिंह के इस बात की तस्दीक करते हैं कि हमारी अर्थव्यवस्था में सबकुछ ठीक नहीं चल
रहा. 2014-15 की पहली तिमाही में हमारी जीडीपी 7.5 फीसदी थी जोकि 2017-18 की पहली
तिमाही में 5.7 फीसदी पर पहुँच गई है, निर्यात भी
पिछले डेढ़ दशक के अपने न्यूनतम स्तर पर है. बैंकों की हालत
खस्ताहाल तो है ही, मोदी सरकार बैंकों की एनपीए की समस्या सुलझाने में पूरी तरह से नाकाम रही है. मार्च 2014 में बैंकों की एनपीए (नॉन परफॉर्मिंग एसेट) 4 % थी जो अब बढ़कर 9.5% तक पहुँच गयी है. उपरोक्त स्थितियां भारत
जैसी उभरती हुयी अर्थव्यवस्था के लिये किसी भी हिसाब से सही नहीं कही जा सकती है.
मोदी सरकार जीएसटी और नोटबंदी
को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धियों के तौर पर पेश करती रही है और इसको लेकर बार-बार यह
दावा किया गया कि इससे अर्थव्यवस्था बिगर, क्लीनर और रियल हो जायेगी लेकिन इन दावों के हकीकत में बदलने का इंतजार पूरे देश
को है.
रोजगार के मोर्चे पर भी मोदी
सरकार अपने वादे को पूरा करने में पूरी तरह से विफल रही है. मोदी सरकार ने हर साल 2.5
करोड़ नौकरियों के सृजन का वादा किया था, लेकिन यह वादा अभी भी हकीकत नहीं बन पाया
है. 2004-05
से 2011-12 के बीच भारत में सालाना एक फीसदी की दर से नये रोजगार पैदा हो रहे थे
लेकिन 2012-13 के बाद इसमें लगातार कमी आ रही है.
भारत आबादी के हिसाब
से दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है और देश की जनसंख्या में 65 प्रतिशत युवा आबादी है जिनकी उम्र 35 से कम हैं. इतनी बड़ी
युवा आबादी हमारी ताकत बन सकती थी लेकिन देश में पर्याप्त रोजगार का सृजन नहीं होने
के कारण बड़ी संख्या में युवा बेरोजगार हैं. आर्थिक सहयोग और विकास संगठन के अनुसार
आज देश की करीब 30 प्रतिशत से अधिक युवा बेरोजगारी के गिरफ्त में हैं, इससे समाज
में असंतोष की भावना उभर रही है.
मोदी
सरकार द्वारा साल 2014
में
कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय का गठन किया गया था जिसके
बाद 2015 में प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना शुरू की गयी जिसका
मकसद था युवाओं के कौशल को विकसित करके उन्हें स्वरोजगार शुरू करने के काबिल बनाना
लेकिन
इस योजना का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है और इसमें कई तरह की रुकावटें देखने को मिल
रही हैं जैसे योजना शुरू करने से पहले रोजगार मुहैया कराने एवं उद्योगों की कौशल
जरूरतों का आकलन ना करना और इसके
तहत दी जाने वाली प्रशिक्षण का स्तर गुणवत्तापूर्ण ना होना जैसी प्रमुख कमियां रही हैं.
कल्याणकारी योजनायें
मोदी सरकार के इस
चार साल के सफ़र को दो भागों में बांटा जा सकता है, शुरूआती सालों में मोदी सरकार
की छवि कारपोरेट परस्त की थी और खुद नरेंद्र मोदी को बड़े
व्यवसायियों का हितैषी माना जाता था. लेकिन राहुल गाँधी के 'सूट-बूट की सरकार' के तंज के बाद इसमें बदलाव देखने
को मिला और इसके बाद मोदी सरकार का पूरा जोर ऊपरी तौर से ही सही खुद को गरीब हितैषी
साबित करने का हो गया.
बहरहाल मोदी सरकार द्वारा सोशल सेक्टर
में लगातार कटौती की गयी है, गरीबों को दी जाने वाली सब्सिडी को बोझ बताया गया और खुद
प्रधानमंत्री मनरेगा जैसी योजनाओं का मजाक उड़ाते हुये नजर आये. इस दौरान बच्चों और
महिलाओं से सम्बंधित योजनाओं के आवंटन में तो 50 प्रतिशत तक की कमी देखने को मिली
है.
पिछले चार सालों में कई परियोजनाओं का
उद्घाटन मोदी जी द्वारा किया है जो यूपीए के कार्यकाल के दौरान तय की गई थी, लेकिन कई नयी परियोजना
भी शुरू की गयीं हैं जैसे जन धन योजना, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ
योजना, प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना, स्वच्छ
भारत अभियान, डिजिटल इंडिया, मेक इन
इंडिया, कौशल विकास योजना. इनमें से कई योजनाओं का प्रभाव
देखने को मिला है जैसे ग्रामीण इलाकों में बिजली पहुँचाने का काम बहुत तेजी से हुआ
है, तेज गति से सड़क निर्माण का काम जहां यूपीए सरकार के दौरान प्रतिदिन लगभग 17
किमी सड़कों का निर्माण होता था लेकिन वर्तमान में लगभग 40 किमी प्रतिदिन की दर से
सड़कों का निर्माण हो रहा है इसी तरह से ग्रामीण क्षेत्रों में
खाना पकाने के लिए लकड़ी और उपले जैसे प्रदूषण
फैलाने वाले ईंधन के उपयोग में कमी लाने और एलपीजी के उपयोग को बढ़ावा देने
के उद्देश्य से उज्ज्वला योजना के शुरू होने के बाद बड़ी संख्या में गैस कनेक्शन बंटे हैं. लेकिन कुछ योजनायों को लेकर सवाल भी
उठ रहे हैं खासकर डिजिटल इंडिया और मेक इन इंडिया. बेटी
बचाओ बेटी पढ़ाओ जैसी योजनाओं का अपना प्रभाव छोड़ने में नाकाम रही हैं .
समाज और सौहार्द
भारत विविधताओं
से भरा देश है और यही इसे खास बनाती है किसी भी हुकुमत के लिए इसे नजरंदाज करना
समस्या खड़ी कर सकता है, शायद इसीलिये
हमने संघीय ढ़ांचे को अपनाया है लेकिन दुर्भाग्य से पिछले चार सालों के दौरान इसे
नजरअंदाज करने को पूरी कोशिश की गयी है, मौजूदा हुकूमत केंद्रीकृत व्यवस्था और
काम-काज की ऐसे प्रणाली के तहत काम कर रही है जिसका यह देश आदी नहीं है. सत्ता के केन्द्र
में केवल दो ही व्यक्ति दिखाई दे रहे हैं और एक देश एक कर, एक चुनाव जैसे अभियान
बहुत जोरदार तरीके से चलाया जा रहा है.
इसी
तरह से भारतीय समाज की सबसे बड़ी खासियत विविधतापूर्ण एकता है, सहनशीलता, एक दूसरे के धर्म का आदर करना
और साथ रहना असली भारतीयता है और हम यह सदियों से करते आये हैं. आजादी और बंटवारे के जख्म के बाद इन विविधताओं को साधने
के लिए सेकुलरिज्म को एक ऐसे जीवन शैली के रुप में स्वीकार किया गया जहाँ विभिन्न पंथों
के लोग समानता, स्वतंत्रता, सहिष्णुता और सहअस्तित्व जैसे मूल्यों के आधार पर एक
साथ रह सकें. हमारे संविधान के अनुसार राज्य
का कोई धर्म नहीं है, हम कम से कम राज्य व्यवस्था में धर्मनिरपेक्षता की जड़ें काफी हद तक जमाने
में कामयाब तो हो गये थे लेकिन इसपर इन चार सालों के दौरान बहुत ही संगठित तरीके
से बहु आयामी हमले हुये हैं.
इस
दौरान लगातार ऐसी
घटनायें और
कोशिशें
हुई
हैं जो
ध्यान
खीचती हैं, इस
दौरान
धार्मिक अल्पसंख्यकों और
दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा बढ़ी है और उनके बीच असुरक्षा की भावना मजबूत हुई है. भारतीय संविधान
के
उस
मूल
भावना
का
लगातार
उल्लंघन
हुआ
है जिसमें देश
के
सभी
नागरिकों
को
सुरक्षा, गरिमा
और
पूरी
आजादी
के
साथ
अपने-अपने
धर्मों
का
पालन
करने
की
गारंटी
दी
गयी
है. संघ परिवार के नेताओं से लेकर केंद्र सरकार और भाजपा शासित राज्यों के मंत्रियों तक हिन्दू राष्ट्रवाद का राग अलापते हुए भडकाऊ भाषण दिए जा रहे हैं, नफरत भरे बयानों की बाढ़ सी आ गयी है, इस स्थिति को लेकर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गंभीर चिंतायें सामने आई है.
लोकतंत्र और लोकतान्त्रिक संस्थायें
पिछले चार सालों के
दौरान हमारे न्यायपालिका,
चुनाव आयोग और
मीडिया लोकतंत्र के स्तंभ कमजोर हुये हैं. भारत में न्यायपालिका की साख और इज्जत
सबसे ज्यादा रही है. जहाँ चारों तरफ से नाउम्मीद होने के बाद लोग इस उम्मीद के साथ
अदालत का दरवाज़ा खटखटाते हैं कि भले ही समय लग जाए लेकिन न्याय मिलेगा जरूर,
लेकिन पिछले कुछ समय से सुप्रीम कोर्ट लगातार गलत वजहों से सुर्ख़ियों में है. जजों
की नियुक्ति के तौर-तरीकों को लेकर मौजूदा सरकार और न्यायपालिका में खींचतान की
स्थिति शुरू से ही रही है,
लेकिन इसका अंदाजा
किसी को नहीं था कि संकट इतना गहरा है. 12 जनवरी 2018 को सुप्रीम कोर्ट के चार
सिटिंग जज न्यायपालिका की खामियों की शिकायत लेकर पहली बार मीडिया के सामने आए तो
यह अभूतपूर्व घटना थी जिसने बता दिया कि न्यायपालिका का संकट कितना गहरा है और
न्यायपालिका की निष्पक्षता व स्वतंत्रता दावं पर है. इस प्रेस कांफ्रेंस के बाद से
स्थिति जस की तस बनी हुई है और हालत सुधरते हुये दिखाई नहीं पड़ते हैं. अभी हाल ही
में सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जज कुरियन जोसफ ने मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर कहा
है कि ‘सुप्रीम कोर्ट का
वजूद खतरे में है और अगर कोर्ट ने कुछ नहीं किया तो इतिहास उन्हें (जजों को) कभी
माफ नहीं करेगा.
इसी तरह से चुनाव
आयोग की विश्वसनीयता और निष्पक्षता पर भी गंभीर सवाल हैं. कर्नाटक विधानसभा चुनाव
2018 की घोषणा के दौरान ऐसा पहली बार हुआ है कि चुनावों की तारीखों की घोषणा चुनाव
आयोग से पहले किसी पार्टी द्वारा किया जाए. दरअसल चुनाव आयोग की प्रेस कॉन्फ्रेंस
चल रही थी और मुख्य चुनाव आयुक्त चुनाव की तारीखों का ऐलान करने ही वाले थे लेकिन उनसे
पहले ही भाजपा आईटी सेल प्रमुख अमित मालवीय ने ट्वीट के जरिये इसकी घोषणा कर दी.
इससे पहले गुजरात विधानसभा चुनाव की तारीख़ तय करने में हुई देरी को लेकर मुख्य
चुनाव आयुक्त की नीयत पर सवाल उठे थे.
भारतीय रिज़र्व
बैंक सरकार की पहचान स्वतंत्र संस्था के तौर रही है जो देश की मौद्रिक नीति और
बैंकिंग व्यवस्था का संचालन-नियंत्रण करता है लेकिन नोटबंदी के दौरान इसकी साख को
काफी नुकसान पहुँचाया गया है और नोटबंदी के दौरान आरबीआई अपने अथॉरिटी को खोती
हुयी नजर आयी है.
मीडिया जिसे
लोकतंत्र का चौथा खम्भा भी कहा जाता है आज अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. भारत
की मीडिया अपने आप को दुनिया की सबसे घटिया मीडिया साबित कर चुकी है. रविश कुमार
ने इसे “गोदी मीडिया” का नाम दिया है, इसने अपनी विश्वसनीयता पूरी तरह से खो दी है और इसका व्यवहार सरकारी
भोंपू की तरह हो गया है. सत्ता और कॉरपोरेट की जी हजूरी में इसने सारे हदों को तोड़
दिया है.
आगे क्या ?
पिछले दिनों लेखक चेतन भगत ने ट्विटर पर मोदी सरकार
की परफॉमर्मेंस को लेकर एक सर्वे कराया था जिसमें
पूछा गया था कि 2014 में आपकी
जो उम्मीदें मोदी सरकार से थीं, क्या वो
पूरी हुईं, उनके इस पोल में 38 हजार से
ज्यादा लोंगों ने हिस्सा लिया जिसमें 39 फीसदी लोगों का मानना है कि मोदी सरकार का प्रदर्शन उनकी
उम्मीदों से बहुत नीचे रहा है जबकि 19 फीसदी ने
बताया कि मोदी सरकार के कामकाज उनकी उम्मीदों से कम है.
दरअसल उम्मीदों के साथ दिक्कत ये है कि इसका उफान जितनी तेजी से ऊपर उठता है उतने ही तेजी से नीचे भी आ सकता है. 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने मोदी को एकमात्र ऐसे विकल्प के तौर पर प्रस्तुत किया था जो पलक झपकते ही सारी समस्याओं का हरण कर लेगा, यह एक अभूतपूर्व चुनाव प्रचार था जिसमें किसी पार्टी और उसके भावी कार्यक्रम से ज्यादा एक व्यक्ति को प्रस्तुत किया गया था, एक ऐसा व्यक्ति जो बहुत मजबूत है और जिसके पास हर मर्ज की दवा उपलब्ध है.
आज चार साल बाद उम्मीदें टूटती हुयी नजर आ रहीं है
लेकिन इसी के साथ ही इसके बरक्स दूसरा कोई विकल्प भी नजर नहीं आ रहा है. फिलहाल नरेंद्र
मोदी और विपक्ष के पास एक साल का समय है जिसमें वे उम्मीदों को बनाये रखने या फिर
खुद को नये विकल्प के तौर पर प्रस्तुत करने का काम कर सकते हैं.
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