पैटर्न बदलती मध्यप्रदेश की राजनीति
जावेद अनीस
Chauthi Duniya (24 to 30 September 2018) |
मध्यप्रदेश में इन
दिनों अगड़े बनाम पिछड़े की बहस हावी है, इससे सियासी जमातें उलझन में है. चुनावी
साल में होने वाली इस उठापठक से प्रदेश के सियासी मिजाज में बदलाव देखने को मिल
रहा है. यहां राजनीति में कभी भी उत्तरप्रदेश और बिहार की तरह जातिगत मुद्दे हावी
नहीं रहे हैं लेकिन कुछ परिस्थितियों के चलते इस बार इसमें बदलाव देखने को मिल रहा
है. दरअसल एससी-एसटी संशोधन विधेयक पारित होने का सबसे तीखा विरोध मध्यप्रेश में
ही देखने को मिल रहा है जिसके घेरे में कांग्रेस और भाजपा दोनों हैं. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर चप्पल फेंके जाने और उनके जनआशीर्वाद रथ पर पथराव जैसी घटनायें तेजी से बदलते
हुये माहौल को दर्शाती हैं.
कानून पर टकराव
इस साल 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने एसटी अत्याचार
निरोधक कानून को लेकर दिये गये अपने फैसले में कहा था कि ‘इसमें शिकायत मिलने के
बाद तुरंत मामला दर्ज नहीं होगा और ना ही एफआईआर दर्ज होने के बाद अभियुक्त को
तुरंत गिरफ्तार किया जाएगा, बल्कि इस एक्ट के तहत शिकायत दर्ज होने के बाद करवाई करने से पहले प्रारंभिक
जांच करके पता लगाया जाएगा कि मामला झूठा या दुर्भावना से प्रेरित तो नहीं है.’
सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले का दलित संगठनों द्वारा तीखा विरोध किया गया था. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ दलित संगठनों ने 2 अप्रैल को 'भारत बंद' किया था, इस दौरान सबसे ज्यादा हिंसा मध्य प्रदेश के
ग्वालियर और चंबल संभाग में हुई थी जिसमें हिंसक झड़पों के दौरान करीब आधे दर्जन
से अधिक लोगों की मौत हो गयी थी.
दलित संगठनों की
प्रतिक्रिया और आगामी चुनावों को देखते हुये केंद्र सरकार द्वारा कानून को पूर्ववत
रूप में लाने के लिए एससी-एसटी संशोधन बिल संसद में पेश किया था जिसे दोनों सदनों
द्वारा पारित कर दिया गया. इसके बाद से लगातार स्वर्ण संगठनों की प्रतिक्रिया
सामने आ रही है. 6 सितम्बर को सवर्ण संगठनों द्वार सरकार के
इस फैसले के खिलाफ भारत बंद का आयोजन किया गया जिसका मध्यप्रदेश में अच्छा-ख़ासा
असर देखने को मिला.
सवर्णों की
प्रतिक्रिया
चुनाव के मुहाने
पर खड़े मध्यप्रदेश में सवर्ण संगठनों की तीखी प्रतिक्रिया से सियासी
दल हैरान हैं. सवर्णों द्वारा भाजपा-कांग्रेस दोनों ही दलों के नेताओं को जगह-जगह
विरोध का सामना करना पड़ रहा है. जन आशीर्वाद यात्रा के दौरान शिवराज सिंह चौहान
की बस पर पथराव और एक सभा के दौरान उन पर जूता फेंकने जैसी घटनायें हो चुकी हैं.
भाजपा द्वारा इसको लेकर पहले कांग्रेस पर आरोप लगाया था
कि ये हमला कांग्रेस ने कराया था, खुद शिवराज सिंह चौहान ने कहा था कि ‘कांग्रेस मेरे ख़ून की
प्यासी हो गई है.’ लेकिन बाद में करणी सेना द्वारा ऐलान किया है कि सीधी की सभा में सीएम
शिवराज सिंह पर जो जूता फेंका गया वो किसी कांग्रेसी ने नहीं बल्कि 'माई के लाल' ने फेंका था. दरअसल मध्यप्रदेश में सवर्ण आंदोलकारियों ने
शिवराज के ‘माई का लाल” आरक्षण खत्म नहीं कर सकता” वाले बयान के जवाब में खुद को 'माई का लाल' घोषित किया हुआ है. इसी तरह से मुरैना में भाजपा नेता
प्रभात झा का घेराव किया और उनके ऊपर चूड़ियां फेंकी गईं. टीकमगढ़ में भाजपा की
बैठक में घुसकर हंगामा किया और वहां मौजूद भाजपा नेता प्रह्लाद पटेल को काले
झंडे दिखाए गये. कांग्रेस को भी इस विरोध और गुस्से का सामना करना पड़ रहा है. मुरैना में कमलनाथ को काले झंडे दिखाए जा चुके हैं, रतलाम
में ज्योतिरादित्य सिंधिया के काफिले का घेराव किया जा
चुका है.
प्रदेश के
ग्वालियर और चंबल व मालवा जिले के कई गावों में लोगों ने पोस्टर लगाए हैं
जिसमें लिखा है 'ये सामान्य वर्ग
का गांव है कृपया वोट मांगकर शर्मिदा ना करें. हम नोटा को वोट देंगे.' “अपना सिक्का निकला खोटा, वोट फॉर नोटा” का नारा भी काफी चलन में
है.
सवर्ण आन्दोलन
के दौरान कई धर्म गुरु भी खुलकर सामने आये हैं, कथावाचक देवकीनंदन ठाकुर इसमें बढ़ चढ़कर
हिस्सा ले रहे हैं. पिछले दिनों वे अपने एक विवादित बयान को लेकर काफी चर्चा में
रहे जिसमें उन्होंने कहा था कि “दो महीने का समय हमने लिया
है, अगर हमें हल मिल गया तो हम कुछ नहीं
करेंगे. अगर नहीं मिला तो वो करेंगे जो भारत के इतिहास में कभी हुआ ही नहीं”. शंकराचार्य स्वामी
स्वरूपानंद सरस्वती ने भी बयान दिया है कि “भाजपा को सिर्फ
वोट की चिंता है.एससी-एसटी एक्ट में संशोधन तो समाज को बांटने का षड्यंत्र है.”
बैकफुट पर भाजपा
भाजपा को
बुनियादी तौर पर सवर्णों की पार्टी मानी जाती रही हैं, यही उसका मूल वोटबैंक है
लेकिन आज उसका मूल वोट ही खार खाये बैठा है. देश और प्रदेश में भाजपा ही सत्ता में
है इसलिये एससी-एसटी अत्याचार निरोधक कानून को लेकर सुप्रीमकोर्ट के फैसले को
पलटने का सबसे ज्यादा विरोध भी भाजपा और उसके नेताओं का ही हो रहा है. जगह-जगह
भाजपा नेताओं और मंत्रियों के बंगले का घेराव किया गया था और काले झंडे दिखाए गये हैं.
लेकिन अकेले एससी-एसटी अत्याचार निरोधक कानून ही नहीं है जो
भाजपा के गले की हड्डी बन गया है मध्यप्रदेश में सवर्णों के इस गुस्से की एक
पृष्ठभूमि है, दरअसल दिग्विजय सिंह की सरकार द्वारा 2002 में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति को
पदोन्नति में आरक्षण देने को लेकर कानून बनाया गया था, जिसे बाद में शिवराज सरकार
द्वारा भी लागू रखा था. बाद में पदोन्नति में आरक्षण को लेकर हाईकोर्ट में चुनौती दी
गई. जिस पर 30 अप्रैल 2016 को जबलपुर हाईकोर्ट द्वारा मध्यप्रदेश लोक सेवा
(पदोन्नति) नियम 2002 को निरस्त कर दिया था और साथ
ही 2002 से 2016 तक
सभी को रिवर्ट करने के आदेश दिए थे जिसके बाद इस नियम के तहत करीब 60 अजा-जजा के
लोकसेवकों के पदोन्नति पर सवालिया निशान लग गया था. हाईकोर्ट के इस फैसले के बाद
अजा–जजा वर्ग के संगठन अजाक्स ने भोपाल में एक बड़ा सम्मेलन
किया था जिसमें मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान बिना बुलाए पहुँच गए थे जहां
उन्होंने मंच से हुंकार भरा था कि “हमारे होते हुए कोई ‘माई
का लाल’ आरक्षण समाप्त नहीं कर सकता.” इसके बाद मप्र सरकार
ने हाईकोर्ट के निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में स्पेशल लीव पीटिशन लगा दिया था
और साथ ही शिवराजसिंह ने ऐलान भी किया था कि सुप्रीम
कोर्ट में केस नहीं जीत पाए तो भी प्रमोशन में आरक्षण जारी रखेंगे भले ही इसके
लिये विधानसभा में नया कानून बनाना पड़े. फिलहाल यह मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा
है.
शिवराज सरकार के इस रवैये से अनारक्षित वर्ग के कर्मचारियों में
नाराजगी पहले से ही बनी हुयी थी. करीब दो साल पहले शिवराज द्वारा दिया गया “माई का लाल” बयान अब उनके ही गले की हड्डी बनता जा
रहा है. 2016 में शिवराज सरकार के दलितों को पुरोहित बनाने के फैसले को लेकर भी विवाद की स्थिति बनी थी जिसमें अनुसूचित जाति,
वित्त एवं विकास निगम द्वारा राज्य शासन को भेजे गये प्रस्ताव में कहा गया था कि ‘अनुसूचित
जाति की आर्थिक व सामाजिक उन्नति और समरसता के लिए “युग
पुरोहित प्रशिक्षण योजना” शुरू किया जाना प्रस्तावित है
जिसमें दलित युवाओं को अनुष्ठान, कथा, पूजन और वैवाहिक संस्कार का प्रशिक्षण
दिया जाएगा. जिसके बाद ब्राह्मण समाज द्वारा इसका प्रदेश भर में तीखा विरोध किया गया जिसके बाद
मध्यप्रदेश के संसदीय कार्यमंत्री नरोत्तम मिश्रा को बयान देना पड़ा था कि 'मप्र में दलितों को कर्मकांड सिखाने की कोई योजना
प्रस्तावित नहीं है'
सपाक्स बनाम
अजाक्स
मध्यप्रदेश में
सरकारी कर्मचारियों का जाति के आधार पर विभाजन हो गया है जिसमें एक तरफ सपाक्स
(सामान्य पिछड़ा एवं अल्पसंख्यक कल्याण समाज संस्था) के बैनर तले सामान्य, पिछड़ा एवं अल्पसंख्यक वर्ग के कर्मचारी
है तो दूसरी तरफ अजाक्स (अनुसूचित जाति जनजाति अधिकारी कर्मचारी संघ) के बैनर तले
अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग के कर्मचारी हैं. प्रदेश में करीब 7 लाख सरकारी कर्मचारी
हैं जिसमें अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग के कर्मचारियों की संख्या करीब 35 फीसदी और
सामान्य, पिछड़ा एवं अल्पसंख्यक वर्ग के
कर्मचारियों की संख्या 65 फीसदी बतायी जाती है. यानी सपाक्स से जुड़े कर्मचारियों की
संख्या ज्यादा है
हालांकि पिछड़ा वर्ग के कर्मचारी किसके
साथ हैं इसको लेकर भ्रम की स्थिति बनी हुयी है. सपाक्स और अजाक्स दोनों दावा कर
रहे हैं कि पिछड़ा वर्ग उनके साथ है जबकि दूसरी तरफ पिछड़ा वर्ग के सामाजिक संगठनों
में इसको लेकर एकराय देखने तो नहीं मिल रही है. पिछड़ा वर्ग के कुछ सपाक्स को
समर्थन दे रहे हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जो अजाक्स के साथ होने की बात कह रहे
हैं. बहरहाल सपाक्स शिवराज सरकार के खिलाफ खड़ी नजर आ रही है
जबकि अजाक्स को शिवराजसिंह की सरकार का संरक्षण मिला हुआ है. इस संबंध में सपाक्स
के संरक्षक हीरालाल त्रिवेदी प्रदेश के मुख्य सचिव को पत्र लिखकर आरोप लगाया था कि अजाक्स से जुड़े अफसरों का गुट महिला एवं बाल विकास विभाग के प्रमुख सचिव जे.एन.
कंसाटिया और वरिष्ठ आईएएस अफसर इकबाल सिंह बैस के संरक्षण में जातिगत भेदभाव
फैलाने का काम कर रहा है. इसी तरह से इस साल जुलाई माह में अजाक्स के पूर्व
प्रान्तीय अध्यक्ष एव स्थायी सदस्य डॉ जगदीश सूर्यवंशी ने वर्तमान में अजाक्स के
प्रान्तीय अध्यक्ष जे.एन. कंसोटिया पर शिवराज सरकार के प्रभाव में काम करने का
आरोप लगाते हुये समानान्तर अजाक्स का गठन कर लिया था.
बहरहाल सपाक्स की
नाराजगी शिवराज और भाजपा पर भारी पड़ सकती है. सपाक्स चित्रकूट, मुंगावली और कोलारस विधानसभा के उपचुनाव
में सरकार के खिलाफ अभियान चला चुका है. इन तीनों जगहों पर भाजपा की हार हुई थी जिसमें
सपाक्स अपनी भूमिका होने का दावा कर रहा है. सपाक्स ने
प्रदेश की सभी 230 सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान करते हुये प्रदेश की जनता को “तीसरा राजनैतिक विकल्प” देने का दावा किया है. इसकी
घोषणा करते हुये सपाक्स के प्रवक्ता विजय वाते ने कहा है कि “हमने चुनाव आयोग में अर्जी देकर राजनीतिक दल के रूप में मान्यता मांगी है, मान्यता और चुनाव चिन्ह मिलने के बाद सपाक्स प्रदेश की सभी 230 विधानसभा
और 29 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ेगा, हम अपने दम पर लड़ेंगे और जीतेंगे.” जानकार मानते हैं कि अगर सपाक्स चुनाव लड़ता है तो इससे बीजेपी को नुकसान हो सकता है क्योंकि सवर्ण तबके का एक बड़ा हिस्सा बीजेपी का परंपरागत वोट बैंक माना जाता
है इसलिये चुनावों के दौरान सपाक्स बीजेपी का वोट ही काटेगी.
किसपर कितना असर
का पेंच
जानकार मानते हैं कि सर्वणों के गुस्से का सबसे नुकसान तो भाजपा का ही होना
है. भले ही वे कांग्रेस को वोट न दें और नोटा का विकल्प चुनें लेकिन वोट तो भाजपा
का ही कटेगा. लेकिन कांग्रेस के लिये भी यह कोई राहत वाली स्थिति नहीं है, पिछले कुछ महीनों से वो जिन मुद्दों पर शिवराज सरकार को घेरने की कोशिश कर रही
थी वो पीछे छूटते हुये नजर आ रहे हैं, किसान,
भ्रष्टाचार, नोटबंदी, जीएसटी और कुपोषण जैसे मुद्दे फिलहाल
नेपथ्य में चले गये लगते हैं. ऐसे में कांग्रेस को नये सिरे से सियासी
बिसात बिछाने की जरूरत महसूस हो रही है. शायद इसी वजह से कांग्रेस द्वारा बहुत सधे
हुये तरीके से सवर्णों के साथ सहानुभूति का सन्देश दिया जा रहा है. इस संबंध में
मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष कमलनाथ का हालिया बयान काबिले गौर है जिसमें
उन्होंने कहा है कि “कांग्रेस किसी के साथ अन्याय नहीं होने
देगी, जहां एक्ट का दुरुपयोग हुआ है कांग्रेस
उसका विरोध करती है, हमारा प्रयास सवर्णों को मनाने का है, पार्टी चाहती है कि सबसे साथ न्याय हो”.
भाजपा की तरफ से भी
सर्वणों को मानाने की कवायद शुरू हो गयी
है मुख्यमंत्री शिवराजसिंह ने कहा है कि “हमारी संस्कृति
समरसता की रही है, हमारी जड़ों में
सामाजिक समरसता है, हमें इसे किसी भी
तरह टूटने या बिखरने नहीं देना है”. इस सम्बन्ध में
बीजेपी सांसद आलोक संजर ने बयान दिया है कि “सवर्णों की नाराजगी
को दूर किया जाएगा.”
मध्यप्रदेश में दी
महीने बाद चुनाव होने हैं लेकिन फिलहाल यह मामला शांत होता नहीं दिख रहा
है.सवर्णों का विरोध एक आंदोलन का रूप लेता जा रहा है. इससे दोनों पार्टियों के
चुनावी समीकरण बिगड़े हैं लेकिन सबसे ज्यादा बैकफुट पर भाजपा ही नजर नजर आ रही है.
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