पूंजीवाद के मुखौटे
[ मेक्सिको के मशहूर चित्रकार डिएगो रिवेरा की पेंटिंग ]
मध्य प्रदेश के खरगोन जिले की "संध्या" इलाज के सिलसिले में महाराष्ट्र के वर्धा गई थी। उसे एक दवा खरीदनी थी। उस दवा के दाम "सावंगी" में अस्पताल परिसर में स्थित दुकान ने चौदह हजार आठ सौ रुपये मांगे। सेवाग्राम स्थित सरकारी अस्पताल के पास की दुकान में उसकी कीमत नौ हजार रुपये थी। वर्धा में एक दवा की दुकान में उसकी कीमत सात हजार रुपये बतायी गई। वही दवा उसे एक दूसरी दुकान में चार हजार छह सौ में मिली। उस दवा की एक सौ पचास मिलीग्राम की अधिकतम कीमत सात हजार चार सौ और सौ मिलीग्राम की अधिकतम कीमत चार हजार छह सौ थी। दरअसल यह अधिकतम दाम नीति का नमूना है।
सरकार के विज्ञापनों में उपभोक्ता को जागरुक करने के लिए यह प्रचार किया जाता है कि जिस चीज पर अधिकतम दाम अंकित होता है उसकी खरीदारी करते समय वह बेचने वाले से मोलभाव कर सकता है। मोलभाव को अंग्रेजी में ‘बारगेन’ करना कहते हैं। यानी खरीदार अधिकतम दाम में विक्रेता को मिलने वाले अधिकतम लाभ में से अपनी क्ष् मता अनुसार कम करवा सकता है। किसी उपभोक्ता के अंदर यह क्षमता कैसे आती है? स्थितियां ही क्ष् मता होती हैं ।
सीधी सी बात है कि अभावग्रस्त उपभोक्ता जरुरत के हिसाब से दुकान दर दुकान घूम सकता है। लेकिन अभावग्रस्त होने के बावजूद उस चीज की जरुरत उपभोक्ता को जगह जगह घूमने की इजाजत नही देती, तो उसे दुकानदार की कीमत पर उसकी खरीदारी करनी पड़ती हैं दरअसल यह दुकानदार के अधिकतम दाम में जरा भी कम न करना या अधिकतम दाम से भी ज्यादा वसूलने की गुंजाइश बनाए रखने से जुड़ा मामला है। किसी भी व्यवस्था में यह बात मूल में होती है कि उसकी नीतियां किस वर्ग को ज्यादा से ज्यादा लाभ पहुचाने की स्थितियां बनाए रखती हैं। ऐसी ही नीतियां उस शासन-व्यवस्था के चलते रहने का आधार होती है।
अपने देश में दो तरह की नीतियॉ साफ तौर पर देखी जा सकती हैं। एक अधिकतम दाम की नीति है, और दूसरी मजदूर वर्ग के लिए न्यूनतम पारिश्रमिक की नीति। न्यूनतम मजदूरी मालिकों के लिए अधिकतम हुआ करती है। सरकार मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी तय करती है। इसका अर्थ है कि सरकार यह तय करती है कि किसी मजदूर को कम से कम निर्धारित मजदूरी मिलनी चाहिए। मजदूरों के पास मोलभाव का कोई दायरा ही नही होता।
मजदूरी कराने वाला इस बात के लिए केवल कानूनी तौर पर बाध्य होता है कि उस न्यूनतम मजदूरी देनी है। न्यूनतम मजदूरी का निर्धारण वर्षो में एक बार होता है। रोज ब रोज को आर्थिक स्थिति के अनुसार मजदूरी की दर निर्धारित नही होती। इस बात को इस तरह से भी समझा जा सकता है कि न्यूनतम मजदूरी की दर तय करके सरकारें खुद को मजदूर वर्ग की हितैषी भी दिखाती है और उधोगों या पूंजी पर आधारित किसी उत्पाद की अधिकतम कीमत वसूलने की स्थिति भी बनाए रखती है। यह पूंजीवाद का नियम होता है। एक तरह से ऐसी सरकारों की घोषणाऐं समाजवादी लेकिन व्यवहार के स्तर पर पूंजीवादी नीतियों की वाहक होती है।
मजदूरी के न्यूनतम होने की नीति ने मजदूरों की स्थिति को लगातार बदतर बनाया है। तो अधिकतम दाम की नीति से पूंजीवाद मजबूत होता चला गया। संसदीय व्यवस्था में जो पार्टियॉ पहले न्यूनतम मजदूरी और दाम बांधो की नीति पर चलती थी वे कमजोर होती चली गई।
दामबांधों की नीति केवल पूंजीवादी नीतियों को नियंत्रित करने तक सीमित रही है। लेकिन शासन व्यवस्था पर पूंजीवादी नीतियां हावी रही हैं और उन्होनें इस नियंत्रण की इजाजत नही दी। संसदीय व्यवस्था के इतिहास में इन दो विरोधाभासी नीतियों का परिणाम यह निकला है कि अब कोई भी राजनीतिक पार्टी न्यूनतम और अधिकतम के बीच सामंजस्य तक की बात नही करती। धीरे धीरे सारी पार्टियॉ नीतियों के सामने घुटने टेकती चली गई। मजदूरों के हालात न केवल बदतर होते गए हैं, बल्कि पूंजीवादी नीतियों ने आबादी के बड़े हिस्से को मजदूर वर्ग में तब्दील कर दिया है।
लेकिन इसके साथ एक और बात जुड़ी है कि पूंजीवादी नीतियों में ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाने की प्रवृति होती है। इसका कोई अंत या सीमा नहीं है। पूंजीवादी नीतियां जितनी ज्यादा मजबूत होती जाती है। सामाजिक कल्याण या सामाजवादी संकल्पनाओं से जुड़े कार्यक्रमों पर उनका प्रभाव उतना ही प्रत्यक्ष दिखाई देने लगता है। जो कानूनी स्थिति होती है वह व्यवहार में कमजोर पड़ने लगती है। हमारे यहॉ न्यूनतम मजदूरी में ही व्यावहरिक तौर पर कमी नही आई है, बल्कि मजदूरों को मिलने वाली सारी सुविधाऐं एक एक कर छीन ली गई है। कानून धरा का धरा रह गया है। सरकारों का जोर अब नीति के तौर पर न्यूनतम राशि बढ़ाने पर नही होता है। बहुत हुआ तो वे कल्याणकारी योजनाएं बना कर खुद के समाजवादी होने की पुष्टि करना चाहती है।
समाज के किसी वर्ग के लिए चलने वाल कल्याणकारी कार्यक्रमों की सफलता भी इस बात पर निर्भर करती है कि वह खुद कितना क्षमतावान है। दीन हीन वर्ग रहमों करम पर निर्भर होता है। कोई भी सरकार दोनों वर्गो की हितैषी एक साथ नही हो सकती। गरीब जब ज्यादा गरीब होगा तभी पूंजीपति और ज्यादा पूंजी का मालिक होगा। यही कारण है कि एक तरफ गरीबों की संख्या लगातार बढ़ रही है तो दूसरी तरफ पूंजी कुछ लोगों के हाथों में सीमित होती जा रही है।
सरकार की ऐसी नीतियों को थोड़ा और गहराई में जाकर समझा जा सकता है। इन दिनों कई तरह के सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों और रोजगार पैदा करने वाले कार्यक्रमों पर नजर डाली जा सकती है। सरकार की एक बहुत ही महत्वाकांक्षी योजना महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गांरटी योजना है। इसके लिए सरकार ने कानून भी बनाया है। इसे ऐतिहासिक कानून की संज्ञा दी जाती है। लकिन इस पर विचार करना चाहिए इस कानून में क्या है? कानून के मुताबिक एक परिवार को सौ दिनों का रोजगार देना है। इसके लिए न्यूनतम मजदूरी तय है। यानी यह निश्चित है कि उसे सौ दिनों में कितने पैसे ज्यादा से ज्यादा मिल सकते हैं। उस परिवार को सौ दिनों का काम देने का अर्थ यह हुआ कि सौ दिनों की मजदूरी से ही तीन सौ पैसठ दिनों काम चलाए।
राजनीतिक कार्यक्रमों में कहां यह मांग होती है कि हर हाथ को काम दो,समूची राजनीति सौ दिनों के काम में समा गई है। सरकारी पार्टियां इसे लागू कर खुद को धन्य समझती हैं। तो दूसरी पार्टियां इसमें होने वाली बदइंतजामी और भ्रष्टाचार के मुददे उठा कर अपना राजनीतिक धर्म पूरा कर रही है। तीन सौ पैसठ दिनों में सौ दिनों का काम देने पर एक सहमति संसदीय पार्टियों के बीच बन चूकी है।
दरअसल यह कोई अलग थलग कार्यक्रम नही है। बल्कि इसे नीति के तौर पर देखना चाहिए। उदाहरण के लिए विभिन्न राज्यों में शिक्षा मित्रों की बहाली को लें। उन्हें एक निश्चित राशि दी जाती है, जो सरकारी स्कूल के शिक्षक के वेतन के चौथाई बराबर होती है। शिक्षा मित्र से वही काम लिया जाना है जो एक स्थायी शिक्षक से लिया जाता रहा है। लेकिन उसे मजदूरी न्यूनतम मिल रही है। तीसरा उदाहरण भी कम रोचक नही है। कहा जाता है कि कुरियर कंपनियों के आने से बहुत सारे लोगों को रोजगार मिला है। लेकिन इस पहलू पर विचार करें कि कूरियर कंपनी में काम करने वाले किसी कर्मचारी को कितना पैसा मिलता है। उसे ज्यादा से ज्यादा न्यूनतम मजदूरी मिलती है। अगर हिसाब लगाया जाए तो रोजगार पैदा करने का जो ढ़िढोरा पीटा जा रहा है वह वास्तव में छलावा है। डाकघर में काम करने वाले एक कर्मचारी के बदले में यानी उतने ही पैसे में कई कर्मचारी पूंजीवादी व्यवस्था को मिल गए है।
न्यूनतम मजदूरी पाने के हकदार का अर्थ यही नही होता कि उसे न्यूनतम ही मिलना चाहिए। लेकिन न्यूनतम मजदूरी जैसा कानून उसे न्यूनतम मजदूरी का ही पात्र बना देता है। उसे ज्यादा से ज्यादा मजदूरी हासिल करने की स्थितियां नही मिल पाती हैं। दरअसल हमारे समाज में गरीबों के प्रति दया भाव की मानसिकता बनी हुई है। गरीब बराबर के हकदार हैं और समाज में एक बराबरी की स्थिति बनानी है यह विचार ही पूरा राजनीति से गायब हो गया हैं।
नतीजे के तौर पर गरीब गरीब होता जा रहा है और अधिकतम दाम की नीति पूंजीवाद को ज्यादा से ज्यादा मजबूत कर रही है।
दरअसल एक छोटी सी बात के सहारे इस तरह की नीतियों के खिलाफ राजनीति खड़ी की जा सकती है। किसी एक गरीब को यह कहा जा सकता है कि उसे अमीरों की तरह बनना चाहिए। जब गरीब को अमीर बनने की होड़ में खड़ा किया जायेगा तो जाहिर सी बात है कि वह अमीरपरस्त नीतियों का पक्षधर हो जाएगा। लेकिन जब उसी गरीब को यह कहा जायेगा कि न तो कोई गरीब हो और न ही कोई अमीर हो, तो वह ऐसी स्थितियों का पक्षधर होगा कि गरीबी-अमीरी की खाई खत्म हो जाए। वह अमीर होने की होड़ में शामिल होने के बजाय समानता की नीतियों का पक्षधर होगा।
हमारी राजनीति गरीबों को अमीर बनने का लालच दिखाती है और दया भाव की स्थितियां भी बनाए रखती है। इसीलिए गरीब भी पूंजीवादी प्रभावों में रहता है। आजकल के बहुत सारे युवक युवतियां बदहाली के बावजूद अमीरपस्त नीतियों के पक्षधर दिखते है। किसी भी विचारधारा का यही काम होता है कि वह अपना हथियार उसके हाथों में थाम दें जिसके खिलाफ उसे लड़ने की जरुरत होती है।
विचारधारा कोई वस्तु नही होती, बल्कि वह दिनचर्या में सक्रिय रहती हैं वह रहने-बैठने,उठते-सोचने-विचारने सब में मौजुद रहती है। यानी विचारधारा एक समाज-व्यवस्था के ढ़ाचे के रुप में होती है। अपने देश में न्यूनतम मजदूरी और अधिकतम दाम की अंतर्विरोधी नीतियों को विचारधारा को समझने का आधार बनाया जाए तो यह बात बेहतर तरीके से समझी जा सकती है।
[ जनसत्ता से साभार ]
ज्योति पर्व के अवसर पर आप सभी को लोकसंघर्ष परिवार की तरफ हार्दिक शुभकामनाएं।
ReplyDeleteशुभ दीपावली....
ReplyDeleteऐसी दीवाली मनाने की ओर आगे बढ़ें जिस में सारे मेहनतकशों के घर उजियारा हो।
ReplyDeletePlese remove word verification.