तर्कसंगत प्रश्न उठाना देशद्रोह नहीं
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-राम पुनियानी
मुंबई पर 26/11 का आतंकी हमला, एक से अधिक अर्थों में, भारत पर हुआ सबसे भयावह आतंकी हमला था। इस हमले में हेमन्त करकरे-जो मालेगांव बम विस्फोट की तह तक पहुंच गए थे-भी मारे गए थे। श्री करकरे की हत्या, इस हमले का एक रहस्यपूर्ण पहलू था। उनकी हत्या के पहले, करकरे को अनेक धमकियां मिल चुकी थीं। महाराष्ट्र सरकार को इन धमकियों की जानकारी थी।
करकरे एक कार्यकुशल व ईमानदार पुलिस अधिकारी थे। उनकी हत्या ने एक बड़े विवाद को जन्म दिया। यह सचमुच अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो भी व्यक्ति उनकी मृत्यु के बारे में कोई प्रश्न उठाता है या संदेह व्यक्त करता है, उसे राष्ट्रद्रोही, हिन्दू विरोधी और पाकिस्तान-समर्थक घोषित कर दिया जाता है। यह, दरअसल, करकरे की मृत्यु के पीछे के सच को छुपाने की साजिश है।
कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के साथ भी यही हुआ। दिग्विजय सिंह ने कहा कि करकरे पर हिन्दू दक्षिणपंथी ताकतों का भारी दबाव था और यह भी कि करकरे की हत्या के कुछ ही घंटे पहले, उनकी करकरे से टेलीफोन पर बात हुई थी (दिसम्बर 2010)। दिग्विजय सिंह का यह कहना था कि मानो भूचाल आ गया। मीडिया के एक हिस्से ने यह दावा किया कि दिग्विजय सिंह का वक्तव्य झूठ का पुलिंदा है क्योंकि जिस समय, सिंह के अनुसार, उन्होंने करकरे से बात की थी, उस समय करकरे एक बैठक में थे। इस तर्क में कोई खास दम नहीं है। मोबाईल फोनों के इस जमाने में, बैठकों के दौरान भी कुछ मिनटों की बातचीत आसानी से हो सकती है।
दिग्विजय सिंह ने बी. एस. एन. एल. के भोपाल कार्यालय से अपने फोन के संबंधित अवधि के कॉल रिकार्ड भी मांगे। परंतु ये रिकार्ड उपलब्ध नहीं हो सके क्योंकि बी. एस. एन. एल. एक वर्ष से अधिक पुराने कॉल रिकार्ड सुरक्षित नहीं रखता। दिग्विजय ने समाचारपत्रों की कतरनें भी दिखाईं जिनमें उक्त समाचार कुछ समय पहले प्रकाषित हुआ था।
वैसे भी, यह पहली बार नहीं है कि हमें यह पता चला हो कि करकरे भारी दबाव में थे। शिवसेना व भाजपा के अनेक नेताओं ने करकरे की विष्वसनीयता व ईमानदारी पर प्रष्नचिन्ह लगाए थे। शिवसेना के मुखपत्र “सामना“ ने तो करकरे की चरित्रहत्या का बाकायदा अभियान छेड़ दिया था। “सामना“ में यह तक लिखा गया था कि शिवसेना, करकरे के मुंह पर थूकती है। नरेन्द्र मोदी ने करकरे को देशद्रोही कहा था। करकरे की हत्या के बाद, अपने दोहरे चरित्र के अनुरूप, ये ही पार्टियां उन्हें शहीद का दर्जा देने लगीं। नरेन्द्र मोदी ने करकरे की पत्नि को एक करोड़ रूपये देने का प्रस्ताव किया, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया।
क्या हम यह भूल सकते हैं कि साम्प्रदायिक पार्टियों के एक शीर्ष नेता, लालकृष्ण आडवाणी ने प्रधानमंत्री से मुलाकात कर, मालेगांव धमाकों की मुख्य आरोपी साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को कथित रूप से यातना दिए जाने की शिकायत की थी और इसकी जांच की मांग की थी। यह करकरे पर सीधा आरोप था। करकर, उनपर किए जा रहे कटु हमलों से इतने व्यथित हो गए थे कि वे अपने पूर्व वरिष्ठ अधिकारी जूलियो रिबेरो के पास गए और उनसे सलाह मांगी। करकरे को अपनी श्रद्धांजलि (द टाईम्स ऑफ इंडिया, 28 नवम्बर 2009) में रिबेरो ने इस बात की पुष्टि की कि आडवाणी-मोदी एण्ड कंपनी द्वारा करकरे को डराया-धमकाया और सताया जा रहा था। रिबेरो ने करकरे को यह सलाह दी थी कि वे दबाव के आगे न झुकें। “वे मेरे पास इसलिए आए थे क्योंकि वे किसी सहारे की तलाश में थे। वे चाहते थे कि कोई उनका हाथ थाम ले“, रिबेरो ने आई. ए. एन. एस. को मुंबई से टेलीफोन पर बताया। रिबेरो ने जोर देकर कहा कि करकरे, राजनीतिज्ञों के दबाव में आने वालों में से नहीं थे। “वे........भाजपा से सबसे ज्यादा परेशान थे क्योंकि भाजपा, अपने अति कुशल प्रचार तंत्र के जरिए, उनके विरूद्ध योजनाबद्ध ढंग से यह दुष्प्रचार कर रही थी कि उन्होंने प्रज्ञा सिंह ठाकुर व अन्यों को झूठे मामले में फंसाया है“, रिबेरो ने कहा।
अब तो संघ परिवार की कलई पूरी तरह से खुल गई है। मालेगांव, अजमेर व मक्का मस्जिद धमाकों में प्रज्ञा सिंह ठाकुर से लेकर इंद्रेश कुमार व स्वामी असीमानंद जैसे संघ के कद्दावर नेताओं की भूमिका के स्पष्ट प्रमाण सामने आ गए हैं। हमने देखा है कि किस प्रकार मीडिया का एक बड़ा हिस्सा, सन् 2006 के नांदेड़ बम धमाकों से लेकर अभी हाल तक, हिन्दुत्ववादी आतंकवाद से जुड़ी खबरों को दबाता चला आ रहा था। इसके विपरीत, हर मामले के पीछे जेहादी आतंकियों के होने की बात बैनर हेडलाईनों में कही जाती थी। अब यह साफ है कि 26/11 के मुंबई हमले-जो कि अल् कायदा के पाकिस्तानी संस्करण की कारगुजारी था-के अलावा, देश में हुई अधिकांश आतंकी वारदातों के पीछे इंद्रेश कुमार व स्वामी असीमानंद जैसे छद्म देशभक्तों का हाथ था। इन लोगों ने ले. कर्नल श्रीकान्त पुरोहित जैसे कुछ पूर्व व कार्यरत सैन्य अधिकारियों को भी अपने गिरोह में शामिल कर लिया था।
पिछले काफी समय से आतंकी वारदातों के दोषियों के बारे में तार्किक प्रष्न उठाने वालों को या तो नजरअंदाज कर दिया जाता रहा है या फिर उन पर पाकिस्तान के पिट्ठू होने का आरोप मढ़ दिया जाता रहा है। यहां तक कि कांग्रेस भी सच का सामना करने को तैयार नहीं है। 26/11 के तुरंत बाद, जब ए. आर. अंतुले ने कहा था कि करकरे की हत्या के पीछे आतंकवाद के साथ-साथ और भी कुछ था, तब कांग्रेस ने उनका अनुमोदन करने से इंकार कर दिया था। अब यही दिग्विजय सिंह के साथ किया जा रहा है।
दरअसल, समाज की सोच ही ऐसी हो गई है कि किसी भी आतंकी हमले के लिए सिमी या जिहादियों या अल् कायदा को दोषी बता देना बहुता आसान हो गया है। कुछ स्थाई बलि के बकरे तैयार कर लिए गए हैं और सामाजिक सोच, पुलिस का नजरिया और राजनैतिक मान्यताएं, इन्हीं बकरों के इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं। हमारे देश और दुनिया में ऐसे अगणित उदाहरण हैं, जब योजनाबद्ध तरीके से स्थापित किए गए मिथक, राज्यतंत्र के पथ-प्रदर्षक बन गए। कैनेडी की हत्या और 11/9 के मामले इसी प्रवृत्ति का उदाहरण हैं। हमारे देश में मक्का मस्जिद, अजमेर, मालेगांव व समझौता एक्सप्रेस धमाकों के मामलों में भी यही हुआ।
आज जरूरत इस बात की है कि हर आतंकी घटना की निष्पक्ष जांच हो, जिसमें घटना के सभी पहलुओं को ध्यान में रखा जावे। दोषियों को-चाहे वे किसी भी धर्म के हों-सजा अवष्य मिलनी चाहिए।
लीक से हटकर सोचने वालों, पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर प्रष्न उठाने वालों को पाकिस्तान समर्थक कह देने से काम नहीं चलेगा। यह सही है कि पाकिस्तान में कई आतंकी संगठन हैं। ये संगठन, उस अमेरिकी नीति की उपज हैं जिसके अंतर्गत अफगानिस्तान में सोवियत फौजों से लड़ने के लिए धर्मोन्मादी मुस्लिम युवकों का इस्तेमाल किया गया था। लड़ाकों की इस फौज का नेतृत्व ओसामा बिन लादेन के हाथ में था। परंतु ये तथ्य, प्रज्ञा सिंह ठाकुर, असीमानंद आदि के हिंसक गिरोहों के काले कारनामों को भुला देने का आधार नहीं हो सकते। यह दुष्प्रचार भी किया जाता है कि हिन्दुत्ववादी आतंकियों के आलोचक, हिन्दुओं व हिन्दू धर्म के विरोधी हैं। इस दुष्प्रचार का उद्देश्य है धुंध की एक ऐसी दीवार खड़ी करना जिसके पीछे असली अपराधी छुप सकें। इन आतंकियों की निंदा, न तो हिन्दुओं की निंदा है और न ही हिन्दू धर्म की। इस तरह की बातें, असली दोषियों को बचाने के लिए की जा रही हैं और ऐसा करने वालों के लिए बेहतर होगा कि अपनी छाती पीटने की बजाए वे आत्मचिंतन करें। दिग्विजय सिंह ने बिल्कुल ठीक कहा है कि, “अगर मैं कहता हूं कि करकरे को हिन्दू कट्टरपंथी संगठनों से खतरा था तो मुझपर देशद्रोही और पाकिस्तान-समर्थक होने का आरोप जड़ दिया जाता है। परंतु जब एक पूर्व केन्द्रीय गृह मंत्री, करकरे जैसे पुलिस अधिकारी की ईमानदारी पर संदेह व्यक्त करता है और प्रज्ञा सिंह ठाकुर के खिलाफ एटीएस की कार्यवाही की न्यायिक जांच की मांग उठाता है तो उसे राष्ट्रवादी कहा जाता है!“
(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
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