पश्चिमी नारीवाद बनाम भारतीय नारीवाद
आराधना चतुर्वेदी "मुक्ति"
आमतौर पर नारीवाद की बात चलने पर यह प्रश्न सभी के मन में उठता है कि नारीवाद की पाश्चात्य अवधारणा का भारत में क्या उपयोग है? और ये प्रश्न कुछ हद तक वाजिब भी है. खासकर के तब जब नारीवाद पर खुद पश्चिम में ही कई सवाल उठने लगे हों.
दरअसल, पश्चिम में नारीवाद एक विचारधारा के रूप में उभरकर तब सामने आया, जब वहाँ की औरतों को मूलभूत अधिकार प्राप्त हो चुके थे. हालांकि इसके लिए उन लोगों ने अलग-अलग छिटपुट रूप से ही सही, लंबी लड़ाइयाँ लड़ी थीं, तब जाकर उन्हें मताधिकार जैसे नागरिक अधिकार, राजनीतिक और कुछ आर्थिक अधिकार प्राप्त हुए. चूँकि उन्हें मूलाधिकार मिल चुके थे, इसलिए उनके मुद्दे उससे बढ़कर यौनिकता, यौन स्वतंत्रता, स्त्रीत्व की अवधारणाओं, पुरुष के वर्चस्व आदि से जुड़ गए. इस विषय में उल्लेखनीय यह है कि वहाँ तब नारीवादी आन्दोलन उच्चवर्गीय श्वेत महिलाओं के कब्ज़े में ही था, निम्नवर्गीय अथवा अश्वेत नारियाँ इससे अलग थीं.
तत्कालीन पाश्चात्य नारीवाद के समक्ष जो मुद्दे थे, भारत जैसे देशों के लिए महत्त्वपूर्ण तो थे, पर ज्यादा नहीं. भारतीय समाज आज भी एक सामंतवादी ढाँचे वाला समाज है और यहाँ की नारियों के सम्मुख सबसे बड़ी समस्या प्राचीनता थी, जिसके कारण उन्हें नागरिक अधिकारों के अलावा अन्य अधिकार लगभग नहीं के बराबर प्राप्त थे. हालांकि यहाँ भी नारियों का एक वर्ग था, जिन्हें जीवन की मूलभूत सुविधाएँ प्राप्त थीं और वे पश्चिमी नारीवाद के प्रभाव में थीं. इस प्रकार भारत में भी कुछ नारीवादी विचारक उन्हीं मुद्दों को उठाने लगे, जो कि पाश्चात्य नारीवाद के मुद्दे थे और जिनका यहाँ की ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था में कोई ख़ास उपयोग नहीं था.
नारीवादी अवधारणा में व्यापक बदलाव नारीवाद की तीसरी लहर के बाद आया. नारीवाद की तीसरी लहर मुख्यतः लैटिन अमेरिकी, एशियाई और अश्वेत नारियों से सम्बन्धित थी. इस लहर पर उत्तर आधुनिक विचारधारा का प्रभाव था, जो विभिन्नताओं का सम्मान करती थी. विभिन्नता की अवधारणा के फलस्वरूप ही इस बात पर विचार किया जाने लगा कि एक जैसे सिद्धांत से सभी वर्गों की नारियों की समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता है. भिन्न-भिन्न वर्गों की समस्याएँ अलग-अलग हैं और इसीलिये उनका समाधान भी अलग ढंग से खोजा जाना चाहिए. इस लहर ने भारतीय नारीवादी आंदोलन पर गहरा प्रभाव डाला. यहाँ भी दलित नारियों ने नारीवादी आंदोलन पर आरोप लगाना शुरू किया कि वह उच्चवर्गीय सवर्ण नारियों का प्रतिनिधित्व करता है और दलित, ग्रामीण और निर्धन महिलाओं को बाहर छोड़ देता है.
इसके फलस्वरूप नारीवादी विचारकों का ध्यान भारतीय समाज की विभिन्नता पर गया और इस बात पर विचार-विमर्श शुरू हो गया कि 'नारीवाद' को भारतीय समाज के अनुसार किस प्रकार ढाला जा सकता है? यह अस्सी-नब्बे का दशक था और इसी समय भारतीय समाज के लिए'ब्राह्मणवादी पितृसत्ता' शब्द का प्रयोग किया जाने लगा. यह शब्द हमारे समाज की जटिल सरंचना और उसके फलस्वरूप दलित नारियों के होने वाले तिहरे शोषण को व्यक्त करता है. दलित नारी जाति, वर्ग और पितृसत्ता तीनों के द्वारा शोषण का शिकार होती है. उसे औरत होने के कारण उसके समाज का पुरुष शोषित करता है, गरीब मजदूर होने के कारण भू-स्वामी शोषित करता है और दलित होने के कारण उसे सवर्णों द्वारा अपमान सहना पड़ता है
भारत में वर्तमान नारीवादी अवधारणा इस बात पर विचार करती है कि गरीब, ग्रामीण, दलित और अल्पसंख्यक महिलाओं की समस्याएँ अलग हैं और धनी तथा सवर्ण औरतों की अलग, अतः इन पर भिन्न-भिन्न ढंग से विचार करना चाहिए. वर्तमान नारीवाद नारी के साथ ही उन सभी दलित और शोषित तबकों की बात करता है, जो सदियों से समाज के हाशिए पर धकेल दिए गए हैं. यह मानता है कि स्वयं नारीवादी आंदोलन के अंतर्गत कई धाराएँ एक साथ काम कर सकती हैं, भले ही उनके रास्ते अलग-अलग हों पर उनका गंतव्य एक ही है. इसलिए सबको एक साथ आगे आना चाहिए.
Aaradhna ji shoshit shoshit hi hota h uska bhi vargi-karan kr diya........hum vampathiyo m yahi to ek khubi h....harek cheez m varg dhundh hi lenge.......shoshito m bhi varg ki baat karna vam-panthi aandolen ko aaghat hi pahunchayega....fayda nahi dega !.////// aur fir itihash k kisi chowk pr thhori der stand ho sochenge ki hum n "Ye itihasik bhool ki thhi"////////// Ek baat aur : Aaradhana ji kya ye itihasik bhool karne ka theka hum vam-panthhiyon n hi le rakha h //// Lal-Slaam ! ////
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