पुराने अप्रवासियों का देश भारत
शुभ्रा सिंह
अगर उत्तरी अमेरिका मुख्य रुप से नए अप्रवासियों से बना है तो भारत बड़े पैमाने पर पुराने अप्रासियों का देश है जो इसकी व्यापक विविधता की जड़ है। किसी समय यह माना जाता था कि द्रविड़ भारत के मूल निवासी है,अब उस धारणा में काफी बदलाव आ चुका है। अब यह माना जा रहा है कि यहॉ के मूल निवासी द्रविड़-पूर्व आदिवासी थे। यह दृष्टिकोण जस्टिस मार्कडेय काटजू और जस्टिस ज्ञान सुधा मिश्रा वाली सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ द्वारा 3 जनवरी 2011 को दिए गए एक फैसले में उभर कर सामने आया।
यह अपील बंबई उच्च न्यायलय की औरंगाबाद पीठ द्वारा दिए गए एक फैसले के खिलाफ दाखिल की गई थी। यह मामला महाराष्ट्र की भील जनजाति की नंदाबाई के बारे में था। उच्च जाति के एक व्यक्ति से तथाकथित गैरकानूनी संबंध रखने के कारण पीटा गया,पैरों से ठोकरें मारी गई और उसके कपड़े उतारकर गावों की गलियों में निर्वस्त्र घुमाया गया। मामले के चारो आरोपीयों को अतिरिक्त सत्र न्यायधीश ,अहमदनगर द्वारा भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत दोशी ठहराया गया और उन्हें तीन मामलों में छः माह,एक वर्ष और तीन माह की कड़ी सजा दी गई, साथ ही उन पर जुर्माना लगाया गया। लेकिन उच्च न्यायालय ने अनूसूचित जाति/जनजाति अधिनियम के तहत आरोपों से उन्हें मुक्त कर दिया जबकि भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के तहत सजा को बरकरार रखा। प्रत्येक पीड़िता को रु 5000 अदा करने के लिए कहा गया।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में कहा गया है कि कुछ भील भारत के मूल निवासियों,आदिवासियों के वंशज है जो अब भारत की जनसंख्या में आठ फीसद का हिस्सा रखते हैं।शेष 92 फीसद अप्रवासियों के वंशज है। इस प्रकार भारत मोटे तौर पर अप्रवासियों का देश है। आज भारत में रहने वाले लगभग 92 फीसद लोग उत्तर-पश्चिम और कुछ हद तक उत्तर-पूर्व से आने वाले अप्रवासियों के वंशज है।
लोग असुविधाजनक इलाकों से सुविधाजनक इलाकों की ओर स्थानांतरण करते है। आधुनिक उधोगों से पहले हर कहीं कृषि समुदाय थे और उनके लिए भारत एक स्वर्ग था क्योकि कृषि के लिए सममतल भूमि,उपजाऊ मिटटी,सिचाई के लिए खूब पानी की जरुरत होती है,जो भारत में प्रचुर मात्रा में थे। जैसे कि महान उर्दू शायर फिराक गोरखपुरी ने लिखा -‘ सर जमीन-ए-हिंद पर अकवाम-ए-आलम के फिराक/काफिले गुजरते गए,हिंदोस्तां बनता गया’।
द कैब्रिज हिस्टी ऑफ इडिया (खंड़ 1), प्राचीन भारत,में कहा गया है -
‘ यह याद रखा जाना चाहिए कि जब हम इस प्रकार जातीय-भौगोलिक अर्थो में ‘द्रविड़’ शब्द का प्रयोग करते हैं, तो वह एक सुविधाजनक लेबल से अधिक नही है। यह नही मान लेना चाहिए कि द्रविड भाषाओं के बोलने वाले मूल निवासी है। दक्षिण भारत में भी उत्तर की तरह पहाड़ों व जंगलों के अधिक पुराने जनजातियों और उपजाऊ क्षेत्रों के सभ्य निवासियों के बीच वही आम भिन्नता मौजुद है और कुछ जाति वैज्ञानियों के अनुसार यह अंतर नस्ली है, सिर्फ जाति का नतीजा नहीं।’
‘ यह धारणा कि द्रविड़ तत्व सबसे प्राचिन है,में मुंडा भाषाओं के बारे में हमारे ज्ञान में संषोधन होना चाहिए। मुंड़ा भाषाऐं आस्ट्रिक भाषा परिवार की भारतीय प्रतिनिधि है। यहॉ पर अब उपलब्ध प्रमाण के मुताबिक ऐसा लगता है कि आस्ट्रिक तत्व प्राचीनतम है और विभिन्न क्षेत्रों में एक ओर द्रविड व इंडो -योरपीय और दूसरी ओर तिब्बती-चीनी लहरों ने प्रभावित किया।’
साथ ही,इस बारे में कोई संदेह नहीं कि जब उत्तर-पष्चिम से आर्य घुसपैठों से इंडो-यूरोपियन भाषा शैलियॉ आ रही थी, उसी समय उत्तरी भारत के पष्चिमी क्षेत्रों में द्रविड़ भाषाऐं फलफूल रही थी।’ इसलिए यह मान लेने का पर्याप्त आधार मौजुद है कि इंडो-आर्य भाषा-भाषियों के आने से पहले उत्तरी और दक्षिणी भारत में द्रविड़ भाषाओं का वर्चस्व था, लेकिन जैसा कि हमने देखा है,दोनों क्षेत्रों की जनसंख्या में उससे भी पुराने तत्व मिले हैं तो यह मान्यता अब तर्कसंगत नही रही कि द्रविड़ यहॉ के मूल निवासी है।
इस प्रकार अब आमतौर पर स्वीकृत धारणा यह है कि भारत के मूल निवासी द्रविड नही बल्कि मंड़ा आदिवासी,जिनके वंशज अब छोटानागपुर ( झारखंड़),छत्तीसगढ़,उड़ीसा,पष्चिम बंगाल आदि के हिस्सों में रहते है, तमिलनाडु के नीलगिरि के तोडा, अंडमान द्वीप समूह के आदिवासी,भारत के विभिन्न भागों ( खासकर जंगलों और पहाड़ों में ) के आदिवासी जैसे गाड़ा,संथाल,भील आदि है।
हमारे देश में बहुत से धर्म,जातियॉ,भाषाए,जातीय समूह,संस्कृतियॉ आदि है जो भारत के अप्रवासियों का देश होने के कारण है। इसीलिए कोई लंबा है, कोई नाटा है, कोई काला है,कोई गोरा है,कोई सॉवला है, किसी के नाक-नक्ष काकेषियाई हैं, किसी के नाक-नक्ष मंगोलियाई हैं, किसी के नाक-नक्ष नीग्रो जैसे हैं, आदि। परिधान,खानपान और बहुत से अन्य मामलों में भी काफी भिन्नताऐं है।
चूकि भारत विविधताओं का देश है,इसलिए अपने देशको एकजुट रखने के लिए सहिष्णुता और सभी समुदायों व संप्रदायों के लिए बराबर सम्मान की भावना अत्यंत आवष्यक है। हमारे संविधान निर्माताओं ने हमें एक धर्मनिरपेक्ष संविधान प्रदान किया जो हमारे देश की व्यापक विविधता के अनुरुप है।
हमारी सारी विविधता के बावजुद भारत का संविधान हमें एकजुट रख रहा है क्योकि संविधान सभी समुदायों,संप्रदायों,भाषयी और जातीय समूहों को एक समान अधिकार देता है। संविधान में सभी नागरिकों के लिए भाषा की स्वतंत्रता (धारा 19), धर्म की स्वतंत्रता (धारा 25), समानता (धारा 14 से 17), आजादी (धारा 21) आदि का प्रावधान है।
इसके बावजुद भारत के सभी समूहों या समुदायों को औपचारिक समानता देना वास्तविक समानता को प्रेरित नहीं करेगा। ऐतिहासिक रुप से सुविधाहीन समूहों को विषेश सुरक्षा और मदद दिए जाने की जरुरत है ताकि उन्हें गरीबी और निम्न सामाजिक स्थिति से बाहर लाया जा सके। इसी कारण से हमारे संविधान की धाराओं 15 (4), 15 (5), 16 (4),16 (4 ए), 46, आदि में इन समूहों के उत्थान के लिए विषेश प्रावधान किए गए हैं। इन समूहों में सबसे सुविधाहीन और उपेक्षित हमारे देश के मूल निवासी आदिवासी हैं, जो अषिक्षा,बीमारियों,मृत्यु दर आदि के साथ घोर गरीबी में जीवन बसर कर रहे है। इसलिए अपने देश के सभी लोगों का यह कर्तव्य सुनिष्चत करना है का कि उन्हें कोई नुकसान न हो और उनकी आर्थिक व सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए पूरी मदद दी जाए। अब उनके साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को सुधारने का समय आ गया है।
( नव दुनिया से साभार }
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