एन.जी.ओ. कामगार -: अधिकारों के लिए लड़ते अधिकारविहीन




- जावेद अनीस

भारत में पिछले दो-तीन दशकों के दौरान एन.जी.ओ.( स्वंसेवी संस्थाऐं ) सेक्टर में उल्लेखनीय वृद्वि दर्ज हुई है।

 अगर इसके इतिहास की बात करें तो स्वतंत्रता पूर्व एन.जी.ओ. मुख्य रुप से सुधारवादी, समाजकल्यांण जैसे कामों से जुड़े हुए थे। 1956-70 के दौरान एन.जी.ओ. को सरकारों द्वारा अनुदान प्राप्त होना शुरु हुआ। इस दौरान यह संस्थाऐं समाज कल्याण और लघु उद्योग (खादी उद्योग) जैसे कामों में जुड़ी थी। 1970 से 90 के दशक के दौरान सिविल सोसाइटी सेक्टर (एन.जी.ओ.) के क्षेत्र में काफी फैलाव देखने को मिलता है। यह वही दौर है जब स्वतंत्रता प्राप्ति और नेहरुवादी विकास मॉडल का खुमार टूटता है और इसकी कमियॉ सामने आती है। इस दौर में सरकारों की नाकामियों पर सवाल उठने शुरु होते है। इस दौर में एन.जी.ओ शिक्षा, स्वास्थ, पानी, साफ-सफाई (सेनीटेशन), आदिवासी-महिला विकास, बाल श्रम जैसे क्षेत्रों में काम करना शुरु करती हैं और इसको लेकर कुछ वैकल्पिक मॉडल्स भी खड़े किये गये। जिनमें से कुछ मॉडल्स को सरकारों द्वारा अपने कार्यक्रमों और योजनाओं में शामिल किया गया।

1990 के दशक में सरकार की खुली आर्थिक नीतियॉ लागू होने के बाद से एन.जी.ओ. की भूमिका और कार्यप्रणाली में भारी परिर्वतन देखने को मिलता है। इस दौरान एन.जी.ओ. की कार्यप्रणाली बदली है। वह ज्यादा प्रोफेशनलहुए है साथ ही साथ इनमें नौकरशाही कार्यप्रणाली का भी विकास हुआ है। इसी दौरान दूसरा परिर्वतन यह देखने को मिलता है कि सरकारें अपनी बहुत सारी कल्याणकारी योजनाऐं एन.जी.ओ. द्वारा संचालित करने लगी है। जिनमें शिक्षा , स्वास्थ, सेनिटेशन, वाटर शेड जैसे महत्वपूर्ण और बुनियादी क्षेत्र की योजनाऐं शामिल हैं। इससे जो बुनियादी समस्या पैदा हुई है वह यह है कि शिक्षा , स्वास्थ जैसी मूलभूत सुविधायें जिनकी सीधी जवाबदेही सरकार की होती थी उनमें सरकार की भूमिका और जवाबदेही कम होती जा रही है, सरकारं अपनी भूमिका को मात्र पैसा उपलब्ध कराने तक सीमित कर रही है। जवाबदेही तो खैर पीछे छुटती जा रही है।

सम्भवतः दुनिया में सबसे ज्यादा सक्रिय एन.जी.ओ. भारत में ही है। वर्ष 2009 के एक सरकारी अनुमान के अनुसार देश  में लगभग 33 लाख एन.जी.ओ. काम कर रहे हैं। जिसका मतलब है कि लगभग 400 से भी कम भारतीय के पीछे 1 एन.जी.ओ. हैं। तुलनात्मक रुप से यह संख्या देश के प्राथमिक विधालयों एवॅ प्राथमिक स्वास्थ केन्द्रों से कई गुना ज्यादा है। ध्यान रहे कि यह आंकड़ा 2009 के है। निष्चत रुप से वर्तमान में यह संख्या ओर ज्यादा होगी। दूसरी तरफ इस क्षेत्र में लगी हुई धन राशी  भी बहुत बड़ी मात्रा में है। इस सर्वेक्षण में सरकार द्वारा इस क्षेत्र के आर्थिक स्रोतों का भी अध्ययन किया गया है। जिसके अनुसार एन.जी.ओ. और गैर लाभान्वित संस्थाओं ने प्रति वर्ष 40 हजार करोड़ से 80 हजार करोड़ रुपये दान के रुप में जुटायें हैं। उनके लिए सबसे बड़ी दानदाता सरकार है। ग्यारहवी पंचवर्षीय योजना में सरकार ने सामाजिक क्षेत्र के लिए 18 हजार करोड़ रुपये रखे थे। इसी दौरान संस्थाओं के देशी -विदेशी  फंडिग में भी उल्लेखनीय वृद्वि हुई है। वर्ष 2007-2008 में एन.जी.ओ. को प्राप्त होने वाला अनुदान 9700 करोड़ रुपये था। जिसमें 1600 से 2000 करोड़ रुपये धार्मिक संस्थाओं को दी गई। 

उपरोक्त आंकड़ों पर नजर डालने से यह बाद निकल कर आती है कि एन.जी.ओ. एक महत्वपूर्ण और फलता फुलता क्षेत्र है। 

उदारीकरण के बाद से एन.जी.ओ. के दायरे, कार्यप्रणाली, मानव संसाधन आदि में व्यापक परिर्वतन देखने को मिला है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण परिर्वतन जनआंदोलनों का नौकरशाहीकरण है। हमेशा से ही जनआंदोलन आत्मनिर्भर रहे हैं। संसाधन लोगों द्वारा ही जुटाऐ जाते रहे हैं। इन जनआदोंलनों के नेता काफी हद तक लोगों के प्रति जवाबदेह भी रहे हैं। परन्तु एन.जी.ओ. द्वारा संचालित या मदद पा रहे जनसंगठन जनता के प्रतिनिधित्व का दावा तो करते हैं। परंतू ऐसे संगठनों में ज्यादातर एन.जी.ओ के कार्यकत्ताओं का ही नेतृत्व होता है। स्वभाविक रुप से यह लोग जनता के प्रति जवाबदेह ना होकर एन.जी.ओ. और दानदाता संस्थाओं के प्रति जवाबदेही होते हैं और अपनी सीमाओं या हदों से बाहर नही जा सकते हैं। दूसरी तरफ उदारीकरण के बाद एक महत्वपूर्ण परिर्वतन यह देखने को मिलता है कि एन.जी.ओ. की संख्या में वृद्वि तो हुई ही है साथ ही समुदाय और मुददों आधारित संस्थाओं का विकास हुआ है जैसे दलित, महिला, मानव अधिकार, असंगठित मजदूरों पर काम कर रही संस्थाऐं। 

पिछले दो दशकों के दौरान अगर एन.जी.ओ. की संख्या, फंड आदि में लगातार वृद्वि हुई है तो इस सेक्टर में काम कर रहे कामगारों (कार्यकर्ताओं ) की संख्या में भी वृद्वि हुई है। एन.जी.ओ. के कार्यकर्ता संस्था की रीढ़ होते हैं। मोटे तौर पर हम एन.जी.ओ. के इन कार्यकत्ताओं को तीन प्रकार से श्रेणीबद्व कर सकते हैं-पहले प्रकार के कार्यकर्ता या कर्मचारी ऐसे होते हैं जो इस क्षेत्र में कैरियर के हिसाब से आते हैं। फिलहाल अनेक शिक्षण संस्थानों द्वारा समाजकार्य से संबधित विभिन्न कोर्सस चलाये जाने के कारण इस क्षेत्र में ऐसे लोगों की संख्या काफी बढ़ रही है। दूसरे प्रकार में ऐसे कर्मचारी आते हैं जो समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं इसलिए एन.जी.ओ. सेक्टर में आते है। हालांकि ऐसे लोगों की संख्या कम होती जा रही है। तीसरी  प्रकार के ऐसे कर्मचारी है जो ज्यादा शिक्षित नहीं है और एन.जी.ओ.में जमीनी स्तर पर काम करते है। ऐसे कार्यकर्ताओं या कामगारों की संख्या सबसे ज्यादा है।

एन.जी.ओ. सेक्टर के अधिकांश  कामगारों की स्थिति अच्छी नहीं है  और इनमें भी सबसे बुरी स्थिति जमीनी स्तर पर काम कर रहे कार्यकत्ताओं की है। इन कार्यकर्ताओं को अपने सेवा के बदले मिनिमम वेजेस (न्यूनतम मजदूरी दर) भी नहीं मिलती है। अपवाद स्वरुप कुछ एक एन.जी.ओ. ऐसे जरुर है जिनकी एच. आर. पालीसी है। परन्तु ज्यादातर एन.जी.ओ. के कामगारों की कोई सामाजिक सुरक्षा जैसे बीमा, स्वास्थ, पी.एफ. आदि नहीं होती है। पद भी सुरक्षित नहीं है और कभी भी नौकरी से निकाल बाहर करने का खतरा मडराता रहता है। छुटटीयॉ भी बहुत कम दी जाती हैं। इनके काम करने के घन्टे भी तय नही होते है और औसतन कम से कम  8 से 10 घन्टे काम करना पड़ता है। कभी-कभी तो साप्ताहिक छुट्टी के दिन भी काम करना पड़ता है और इसके बदले कोई अतिरिक्त मेंहनताना भी नहीं मिलता।

दूसरी तरफ बड़ी एन.जी.ओ. या वित्तपोषक ऐजेन्सीयों में कार्यरत कामगारों की स्थिति भी वेतन के मामले को छोड़कर बाकि सारे मामलों में बदद्तर है। इनकी स्थिति मल्टीनेशनल कम्पनीयों या आई.टी. सेक्टर में काम कर रहे मजदूरों जैसी है। जो अपनी मोटी तनख्वाओं की वजह से खुद को मजदूर नही मानते लेकिन काम के घन्टों, ओवर टाइम आदि मामलों में उनकी स्थिति दयनीय है।

उदारीकरण की प्रक्रिया ने एन.जी.ओ. सेक्टर की दिशा  और दशा  दोनों बदली है। एन.जी.ओ. के दायरे, संख्या, कामगारों आदि में तो व्यापकता आयी है परन्तु इनके ढ़ाचे में अन्दरुनी लोकतंत्र, कामगारों की स्थिति और पारदर्शिता  में कमी ही देखने को मिलती है। कुछ अपवादों को छोड़कर ज्यादातर एन.जी.ओ. किसी व्यक्ति द्वारा निजी सम्पति की तरह संचालित किया जाता है। बात-बात पर लोकतंत्र की दुहाई देने वाले एन.जी.ओ. खुद अपने ढ़ाचे में गैर-लोकतांत्रिक होते है।  

यह बात बिलकुल सही है कि एन.जी.ओ. सेक्टर की तुलना अन्य मुनाफे वाली सेक्टर से सीधे तौर पर नहीं की जा सकती है क्योकिं यह क्षेत्र गैर व्यवसायिकता और स्वंयसेविता की भावना से जुड़ी हुई है। परन्तु यह बात भी उतनी ही सही है कि एन.जी.ओ. सेक्टर को अपने खुद के ढ़ॉचे में लोकतंत्रिक प्रक्रियापारदर्शिता, कामगारों की सामाजिक सुरक्षा, कामगारों के अधिकारों को लेकर बहस-मुहाबसे और सकारात्मक बदलावों की जरुरत है। 

सरकारों की नीतियों और रवैयों से यह स्पष्ट है कि भविष्य में एन.जी.ओ. की भूमिका, संख्या में व्यापकता आयेगी। सरकारें जिस तरह से पब्लिक-प्रायवेट पाट्नर शिप दुहाई देते हुए मूलभूत सुविधाओं को अपने नागरिकों को मुहैय्या कराने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी से अपनी पीछा छुडाना चाह रही है, उससे स्पष्ट है कि भविष्य में सरकारें अपने आप को केवल धन उपलब्ध कराने तक सीमित करने और सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों का संचालन निजी क्षेत्र एवं एन.जी.ओ. द्वारा किया जायेगा। इससे सरकारें जनता के प्रति अपनी सीधी जवाबदेही से बच जायेगी और एन.जी.ओ. की कोई जवाबदेही जनता से होती ही नहीं है। 

भविष्य में एन.जी.ओ. कामगारों की संख्या में भी व्यापक वृद्वि होगी। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि  वे एन.जी.ओ. जो खुद को समाज परिर्वतन के आलम्बरदार और जनता के पक्ष में, जनता के लिए खड़ा बताते हैं उनकी यह महती जिम्मेदारी बनती है कि वे ऐसे स्थिति में अपनी भूमिका सुनिष्चत करें। क्या वे सरकार द्वारा निजीकरण को बढ़ाने के उपकरण बनेंगे या फिर वास्तव में लोगों के जनतांत्रिक अधिकारों के साथ खड़े होंगे?

पिछले कुछ वर्षो में समाज सेवा एक व्यवसायिक रुप में स्थापित हो चुका है। ऐसे में सवाल बड़ी संख्या में उन एन.जी.ओ. कामगारां की है जो जनता के मानव अधिकारों और हक-हकुक की लड़ाई के नेककाम में लगे है, पर वे खुद ही अधिकार विहीनता की स्थिति में दिखाई दे रही है। इसका मुख्य कारण इन संगठनों में काम करने वाले कामगारों को रोजगार, ठेका पद्वति(संविदा) के आधार पर दिया जाना है। दूसरी तरफ यहॉ भी प्रतिस्पर्धा और रोजगार की कमी है इसलिए कामगारों को संस्था के शर्तो के हिसाब से काम स्वीकार करना पड़ता है। 

ऐसे में एन.जी.ओ. सेक्टर में काम कर रहे कामगारों को संगठीत हो कर अपने खुद के अधिकारों व सामाजिक सुरक्षा पर ही गभीरता से विचार करना चाहिए तथा जिस तरह से दूसरे क्षेत्रों जैसे डॉक्टर, शिक्षक , वकील आदि व्यवसाय के लोग संगठनों, यूनियनों के माध्यम से संगठित हो कर अपने अधिकारो के लिए आवाज बुलंद करते है तथा किसी एक के अधिकारों के हनन होने पर विरोध करते हैं, उसी तरह से एन.जी.ओ. कामगारों को भी अपने अधिकारों की सुरक्षा के लिए संगठित होने की जरुरत है। ताकि अधिकारों की बात करने वाले कर्मचारी खुद ही अधिकार विहीन न रह जायें। 



2 comments:

  1. Lakh rupey ki bat kahi he . Ham logo ke adhikar ke liye ladte he . par hamra koi adhikar nahi he. jab tak boos khus tab tak kam karte raho. jab boos bigad gaya to nayi job surch karo!1

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