दंगा-मुक्त भारत की ओर
-राम पुनियानी
विभाजन के बाद, भारत में पहला साम्प्रदायिक दंगा सन् 1961 में जबलपुर में हुआ था। तब से दंगों का सिलसिला अनवरत जारी है। सन् 1980 के दशक में साम्प्रदायिक हिंसा में जबरदस्त बढ़ोत्तरी हुई। विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच षांति व सौहार्द स्थापित करने की राह में साम्प्रदायिक दंगे एक बहुत बड़ा रोड़ा बन गए हैं। दंगों की श्रृंखला में सबसे भयावह थीं सिक्ख विरोधी हिंसा (1984), बाबरी कांड के बाद मुंबई में भड़की मुस्लिम-विरोधी हिंसा (1992-93) और गुजरात कत्लेआम (2002)। ईसाई-विरोधी हिंसा की शुरुवात छुटपुट घटनाओं से हुई परंतु पास्टर ग्राहम स्टेंस की हत्या (1999) और कंधमाल हिंसा (2008) से यह स्पष्ट हो गया कि मुसलमानों के साथ-साथ ईसाई भी सांप्रदायिक तत्वों के निशाने पर हैं।
साम्प्रदायिक हिंसा के नासूर से देश को मुक्ति दिलाने के लिए यू. पी. ए. सरकार ने एक विधेयक प्रस्तुत किया। यह विधेयक वर्तमान में राज्यसभा में लंबित है। किन्हीं कारणों से, यह विधेयक रोग से बदतर इलाज साबित हुआ है। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं व अल्पसंख्यकों के संगठनों ने इस विधेयक की कमियों को उजागर किया। इसके बाद यू. पी. ए.-2 सरकार ने एक नया दंगा-निरोधक कानून बनाने की जिम्मेदारी “राष्ट्रीय सलाहकार परिषद“ को सौंपी। परिषद के दो सदस्यों (फराह नकवी व हर्ष मंदर) के संयोजन में, नए विधेयक का मसौदा तैयार करने के लिए एक सलाहकार समूह का गठन हुआ। लगभग डेढ़ साल की कड़ी मशकत के बाद, पिछले माह (मई 2011) इस मसौदे को अंतिम रूप दिया गया। इस मसौदे को कई वेब साईटों पर रखा गया है। आमजनों की प्रतिक्रिया के अध्ययन के आधार पर इसमें उपयुक्त संशोधन किए जाने के बाद, इसे सरकार को सौंपा जावेगा।
इस मसौदे के अध्ययन से स्पष्ट है कि यह देश में साम्प्रदायिक हिंसा पर नियंत्रण पाने का एक महत्वपूर्ण, गंभीर व प्रभावी प्रयास है। इस मसौदे में उन लगभग सभी मुद्दों का ध्यान रखा गया है जो साम्प्रदायक हिंसा को हवा देते हैं और पीड़ितों को न्याय मिलने की प्रक्रिया में बाधक बनते हैं। इस मसौदे में महिलाओं के विरूद्ध हिंसा व पीड़ितों के पुनर्वास और उनके नुकसान की भरपाई जैसे अब तक अनछुए मसलों के संबंध में भी पर्याप्त प्रावधान किए गए हैं।
यह मानने में किसी को कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि इस मसौदे में कुछ कमियां हो सकती हैं। परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि यह विधेयक, राष्ट्रीय एकता और साम्प्रदायिक सौहार्द को मजबूत करने की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा। इसके बावजूद, भाजपा नेतृत्व ( विशेषकर अरूण जेटली) व मीडिया के एक तबके ने इस विधेयक का विरोध शुरू कर दिया है। यह प्रचार किया जा रहा है कि यह विधेयक केवल अल्पसंख्यकों (मुसलमान, ईसाई, सिक्ख, बौद्ध, जैन आदि) के विरूद्ध हिंसा पर केन्द्रित है व इसमें बहुसंख्यकों के खिलाफ होने वाली साम्प्रदायिक हिंसा को नजरअंदाज किया गया है। यह प्रचार सफेद झूठ है। विधेयक का विरोध करने वाले इस तथ्य को भूल रहे हैं कि विधेयक में अल्पसंख्यकों को केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों के रूप में परिभाषित नहीं किया गया है। अल्पसंख्यकों की परिभाषा में भाषाई अल्पसंख्यक भी शामिल हैं। इसमें अनुसूचित जातियों / जनजातियों के विरूद्ध हिंसा से संबंधित प्रावधान भी किए गए हैं। यह विधेयक, साम्प्रदायिक हिंसा के छः दशकों से अधिक के इतिहास के अनुभवों का निचोड़ है।
यह इतिहास हमें बहुत कुछ बताता है। सन् 1991 में किए गए एक अध्ययन से पता चला कि यद्यपि मुसलमानों का देश की आबादी में हिस्सा मात्र 12.4 प्रतिशत है तथापि दंगों में मारे जाने वालों में से 80 प्रतिशत मुसलमान होते हैं। ताजा अध्ययनों के अनुसार, मृतकों में 90 प्रतिशत मुसलमान होते हैं। ईसाईयों के विरूद्ध हिंसा से संबंधित आंकड़े भी हम सबके सामने हैं। दलितों व आदिवासियों को हिंसा का निशाना बनाया जाना आम है। इस पृष्ठभूमि में विधेयक में इन वर्गों के खिलाफ हिंसा की रोकथाम के लिए किए गए विशेष प्रावधान पूरी तरह जायज हैं।
ये विशेष प्रावधान उसी तरह के हैं, जिस तरह के प्रावधान “घरेलू हिंसा निवारण अधिनियम“ व “अनुसूचित जाति / जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम“ में किए गए हैं। घरेलू हिंसा की शिकार मुख्यतः महिलाएं ही होती हैं। इसी तरह, यद्यपि अपवादस्वरूप उच्च जातियों के सदस्य भी दलितों की हिंसा का शिकार बनते हैं तथापि अधिकांश मामलों में दलित व आदिवासी पीड़ित होते हैं व उच्च जातियों के सदस्य आक्रांता। इसका अर्थ यह नहीं है कि पुरूषों के विरूद्ध हिंसा करने वाली महिलाओं या उच्च जातियों के सदस्यों पर हमला करने वाले दलितों को सजा नहीं मिलनी चाहिए। इसी प्रकार, अल्पसंख्यकों की हिंसा में जानोमाल गंवाने वाले बहुसंख्यकों को भी न्याय मिलना चाहिए और इसके लिए वर्तमान कानूनों में पर्याप्त प्रावधान हैं। कहने की आवष्यकता नहीं कि अल्पसंख्यकों के विरूद्ध सुनियोजित दंगों में भी कुछ बहुसंख्यकों को नुकसान पहुंच सकता है। उन्हें न्याय दिलवाना हमारी व्यवस्था का कर्तव्य है और उसके लिए कानूनी रास्ते उपलब्ध हैं।
क्या प्रस्तावित विधेयक हिंदू बहुसंख्यकों की उपेक्षा करता है? हमें यह ध्यान में रखना होगा कि विधेयक में अल्पसंख्यकों की परिभाषा में धार्मिक व भाषायी अल्पसंख्यकों के अलावा दलित व आदिवासी शामिल हैं। भारत के सात राज्यों (जम्मू कश्मीर , पंजाब, मिजोरम, मणिपुर, मेघालय, नागालैंड व अंडमान निकोबार) में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं। कई राज्यों में हिन्दू, भाषायी अल्पसंख्यक भी हैं। उदाहरणार्थ, महाराष्ट्र में उत्तर भारतीय, हिन्दी-भाषी हिन्दू। इसी तरह, दलितों व आदिवासियों में भी हिन्दू शामिल हैं। यह विधेयक कश्मीरी पंडितों को न्याय दिलवाने में भी सहायक होगा क्योंकि उनके राज्य में वे अल्पसंख्यक हैं।
भाजपा यह दुष्प्रचार जानबूझकर कर रही है कि इस विधेयक में धार्मिक अल्पसंख्यकों द्वारा बहुसंख्यकों के विरूद्ध हिंसा की रोकथाम की व्यवस्था नहीं है। इस विधेयक का मुख्य लक्ष्य सामूहिक हिंसा को रोकना है और सामूहिक हिंसा के शिकार , अधिकांश मामलों में, अल्पसंख्यक होते हैं। पुलिस, नौकरषाही व राज्य तंत्र के अन्य हिस्सों के पूर्वाग्रहों के षिकार भी अल्पसंख्यक ही होते हैं। यह तथ्य कई अध्ययनों से उजागर हुआ है। पुलिस अधिकारी डॉ. विभूति नारायण राय द्वारा किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि बहुसंख्यकवादी राजनैतिक दलों द्वारा ऐसा माहौल बना दिया जाता है जिसमें अल्पसंख्यक स्वयं को उपेक्षित व आतंकित महसूस करने लगते हैं। उनके विरूद्ध इतनी घृणा फैलाई जाती है कि वे अपना आपा खो बैठते हैं। ऐसे मे कई बार पहला पत्थर उनकी ओर से फेंका जाता है और आगे का काम, अल्पसंख्यकों के विरूद्ध गहरे पूर्वाग्रहों से ग्रस्त पुलिस, संभाल लेती है। यह विधेयक यदाकदा, अपवादस्वरूप होने वाली हिंसक घटनाओं को रोकने के लिए नहीं बनाया गया है। ऐसी घटनाओं के लिए भारतीय दण्ड संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता में पहले से ही पर्याप्त प्रावधान हैं। इस विधेयक का लक्ष्य है सुनियोजित, सामूहिक हिंसा पर लगाम लगाना।
इस विधेयक का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि इसमें उन अधिकारियों की जिम्मेदारी तय की गई है जो लापरवाही के चलते या जानबूझकर हिंसा को नहीं रोकते। कई बार ये अधिकारी राजनैतिक दबाववश ऐसा करते हैं। डॉ. राय के अनुसार, प्रशासन की मिलीभगत के बगैर कोई भी दंगा 48 घंटों से अधिक नहीं चल सकता। विधेयक में उन राजनीतिज्ञों को कटघरे में खड़ा करने की व्यवस्था है जिनके इशारे पर और जिनके संरक्षण में गुंडे सड़कों पर तांडव करते हैं। विभिन्न दंगा जांच आयोगों की रपटें और अनुभव हमें बताता है कि अधिकांश दंगे स्वस्फूर्त नहीं होते। दंगों के जरिए, अल्पसंख्यकों को “ठिकाने लगाने“ की पूर्व-नियोजित योजना को अंजाम दिया जाता है। जो राजनैतिक ताकतें इस सुनियोजित हिंसा के पीछे होती हैं, उन्हें कानून की गिरफ्त में लाने के लिए भी इस विधेयक में प्रावधान हैं। कमजोर समूहों के विरूद्ध घृणा फैलाने वालों व उनका सामाजिक-आर्थिक बहिष्कार करने वालों से निपटने की व्यवस्था भी इस विधेयक में है।
इस सबसे यह साफ हो जाता है कि भाजपा सहित संघ परिवार के बाल-बच्चों को इस विधयेक के मसौदे को पढ़ते ही सांप क्यों सूंघ गया है। यह विधेयक उनके “हिन्दू राष्ट्र“ के निर्माण के सपने को हकीकत में बदलने की राह का रोड़ा बन जाएगा। यह विधेयक साम्प्रदायिक दंगों पर प्रभावी नियंत्रण करने में सहायक सिद्ध होगा। यह विधेयक एक ऐसे बहुवादी भारत के निर्माण में मदद करेगा, जिसमें सभी समुदायों के लोग इज्जत से जी सकें। ऐसा होना भाजपा को अपने हितों के खिलाफ लगता है। यह विधेयक इस बात की स्वीकारोक्ति है कि साम्प्रदायिक हिंसा, हमारी राजनीति को संकीर्णता व अराजकता की ओर ले जा रही है और राज्य का यह कर्तव्य है कि वह हमारी राजनीति की दिशा को सकारात्मकता, उदारता व सहिष्णुता की ओर मोड़े।
राज्य अपने सभी नागरिकों-जिनमें कमजोर, दमित व प्रताड़ित वर्ग शामिल हैं-का संरक्षक है। राज्य की यह जिम्मेदारी है कि वह सुनिष्चित करे कि हिंसा पीड़ितों का पुनर्वास हो, उन्हें नुकसान का मुआवजा मिले और हिंसा के बाद उनका सामाजिक या आर्थिक बहिष्कार न हो व वे शांतिपूर्ण व गरिमामय जीवन बिता सकें।
इस संदर्भ में केन्द्र सरकार की भूमिका महत्वपूर्ण है। विधेयक में इस तरह के प्रावधान होने चाहिए कि राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप किए बगैर, केन्द्र सरकार सामूहिक हिंसा की घटनाओ पर पैंनी नजर रख सके। इसके लिए विधेयक में कुछ छोटे-मोटे परिवर्तन करने होंगे। जरूरत इस बात की है कि न्यायप्रणाली को दुरूस्त किया जावे और पीड़ितों का सषक्तिकरण हो। विधेयक में “साम्प्रदायिक सद्भाव, न्याय व नुकसान की भरपाई के लिए राष्ट्रीय अभिकरण“ के गठन का प्रस्ताव है। इस अभिकरण के सात सदस्य होंगे जिनमें से चार अल्पसंख्यक समुदायों के प्रतिनिधि होंगे। यह प्रावधान अत्यंत स्वागतयोग्य है। हमें आशा है कि इस संस्था को चुनाव आयोग की तरह पर्याप्त शक्तियां दी जाएंगी ताकि वर्तमान ढांचे से छेड़छाड़ किए बगैर संबंधित अधिकारियों व सरकारी संगठनों की जवाबदेही सुनिष्चित की जा सके।
इस बारे में कोई दो मत नहीं हो सकते कि केवल कानून बनाकर देश की सारी समस्याएं हल नहीं की जा सकतीं। सामाजिक आंदोलनों और राज्य- दोनों को सद्भाव और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के उन मूल्यों को सुदृढ़ करना होगा जो हमारे स्वाधीनता संग्राम की आत्मा थे। तभी यह विधेयक, समाज को बांटने वाली ताकतों पर प्रभावी नियंत्रण स्थापित करने के अपने उद्धेष्य में सफल हो सकेगा।
(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
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