पाठयपुस्तकें बनीं हिन्दुत्व के प्रसार का जरिया
- चन्दन यादव
अगर पढ़ने लिखने सोचने और अभिव्यक्त करने के कौशल को इस देश की बहुरंगी संस्कृति और धार्मिक विविधता से काटकर, किसी खास सम्प्रदाय के हित में विकसित करने की सचेत कोषिष की जाये तो आज के बच्चे कल कैसे नागरिक बनेंगे ?
यह सवाल म प्र में चल रही कक्षा पहली से पांचवी तक की पाठ्यपुस्तको को देखते हुए मेरे मन में कौंधा है। इन पुस्तकों के बारे में राज्य शिक्षा केन्द्र का कहना है कि इनमें मानवीय प्रेम, साम्प्रदायिक सदभाव, प्रकृति तथा पर्यावरण सम्वेदना और राष्ट्रप्रेम आदि मुल्यपरक विषयवस्तु को संजोने का प्रयास किया गया है। जाहिर सी बात है कि इन मूल्यों को बच्चों तक पहुंचाने के लिये इससे सम्बंधित विषयवस्तु को किताबों में शामिल किये जाने की जरूरत होगी। पर इन किताबों को देखते हुए हम पाते हैं कि इनमें मानवीय प्रेम, प्रकृति ओर पर्यावरण के प्रति सम्वेदना और राष्ट्रप्रेम को दर्शाने वाले पाठ तो हैं, (यह अलग बात है कि उनका प्रस्तुतिकरण भी भौंडा है) मगर साम्प्रदायिक सद्भाव को दर्शाने वाले पाठ नदारद हैं।
पहली से पांचवीं तक की पाठ्यपुस्तकों में 125 से अधिक पाठ हैं। ये पाठ जिनपर हैं, उनमें युधिष्ठिर और श्रवण कुमार जैसे पौराणिक नायक, स्वामी विवेकानन्द, कालिदास, टैगौर आदि चिंतक और कवि हैं। दुर्गावती और लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगनाएं हैं। और आजादी की लड़ाई के नायक गांधी, भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, नेहरू, सरदार पटेल और लालबहादुर शास्त्री हैं। रानी दुर्गावती के पाठ में उनको राष्ट्रभक्त बताया गया है। इसलिये कि वे अकबर की सेना से लड़ते हुए शहीद होती हैं।
इस बात को खुद मानते हुए और इसका सम्मान करते हुए कि भारत में रहने वाले सभी धर्म के लोग इन सभी को अपना नायक मानते थे, यह तथ्य गौण नहीं हो सकता कि इन सभी नायकों की धार्मिक पहचान हिन्दुओं के रूप में थी। क्या इन पर लिखे गये पाठों को शामिल करते हुए किसी को भी बहादुरशाह जफर, सीमांत गांधी और अशफाक उल्लाह खां याद नहीं आये होंगे ? क्या किसी को यह भी याद नहीं रहा होगा कि किताबों का एक महत्वपूर्ण और धोषित उद्देष्य बच्चों में साम्प्रदायिक सद्भाव का मूल्य विकसित करना भी है। मुझे लगता है कि इस बात पर ध्यान ना जाना असम्भव है। इसलिये यह मानना ही ठीक होगा कि ऐसा जानबूझकर किया गया है।
इन किताबों के बाकी पाठ और कविताओं में जितने भी पात्र हैं उनके नाम से उनकी हिन्दू पहचान जाहिर होती है। इसके कुछ बहुत गौण अपवाद भी हैं। मसलन हमारी जनजातीय कलाएं पाठ में फातिमा है। अकबर हैं पर वे बीरगल की चतुराई दर्षाने वाले पाठ में हैं। रहीम के दोहे हैं, प्रेमचन्द की कहानी ईदगाह है। और पूर्व राष्ट्रपति अबुल कलाम आजाद की एक चिट्ठी है। इसके बरक्स किताबों में हिन्दू पात्रों, चित्रों और हिन्दू पहचान की जो बहुतायत है वह इनको विस्मृत करवा देने के लिये पर्याप्त है।
हिन्दुओं के अलावा इस देश के बाकी सभी धर्म के लोगों और उनकी पहचान की अनदेखी पहली से पांचवी तक की सभी किताबों में सर्वत्र नजर आती है। त्यौहारों के अन्तर्गत होली, दीपावली, राखी और मकर सक्रांति पर पाठ हैं पर क्रिसमस और ईद नदारद है ऐसा करते हुए विषयवस्तु निर्धारकों को यह भान था कि वे क्या अनर्थ करने जा रहे हैं।इसलिये कक्षा तीसरी की भाषा भारती के अन्त में जो प्रष्नावली दी गई है उसमें आधे पृष्ठ पर दषहरा, दीपावली, स्वतंत्रता दिवस, ईद ओर किसमस को दर्शाने वाले चित्र देकर बच्चों से चित्र देखकर त्यौहारों का वर्णन करने के लिये कहा गया है। पहली से पांचवी तक की भाषा भारती में यह इकलौता आधा पन्ना है जिसके चित्रांकन में गैर हिन्दू लोग और उनकी पहचान के चिन्ह दिखाई देते हैं। बाकी बचे पन्नों के चित्रांकन में हिन्दुत्व का वर्चस्व पसरा हुआ है।
दूसरी से पांचवी तक हर किताब की शु रुआत प्रार्थना से हुई है।ये प्रार्थनाएं ईष्वर और भगवान को सम्बोधित है। जब हम इन प्रार्थनाओं, किताब की विषयवस्तु और चित्रांकन को मिलाकर देखते हैं तो इस बात में कोई षक नहीं रह जाता कि ये किताबें हिन्दुओं के द्वारा हिन्दुओं के लिये लिखी गई हैं।और इनका एकमात्र उद्देष्य हिन्दुत्व का प्रसार प्रचार करना है।
तो क्या यह घोषणा झूठी है कि इनसे मानवीय प्रेम, साम्प्रदायिक सद्भाव, और राष्ट्रप्रेम जैसे मूल्य विकसित होंगे। दरअसल यह घोषणा भी सच है, पर इसमें इतना और निहित मान लीजिये कि मानवीय प्रेम में जो मानव है वह हिन्दू मानव है। साम्प्रदायिक सद्भाव से आशय हिन्दुत्व को मानने वालों के बीच साम्प्रदायिक सद्भाव से है। बचा राष्ट्रप्रेम तो उसका मतलब हिन्दू राष्ट्र से प्रेम से है। आखिर एजेण्डा तो हिन्दू राष्ट्र बनाना ही है, उसी के लिये तो पाठ्यपुस्तकों के साथ यह कवायद की गई है।
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