डबल गेम फेल
जावेद अनीस
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क्या गैर-जवाबदेह,निक्कमी,
दंभी और निराश करने वाली मनमोहन सरकार के विकल्प के तौर पर सत्ता में आई मोदी
सरकार भी उसी दंभ और वादा खिलाफी का शिकार हो
रही है, जिसमें संघ परिवार के संगठनों के चिर-परिचित अराजकता का छोक भी शामिल है? पिछले
कुछ महीनों में देश के विभिन्न राज्यों में हुए उप चुनाव के नतीजे तो इसी और इशारा
कर रहे हैं। उत्तराखंड और बिहार उपचुनाव में हार के बाद 33 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजों ने पस्त विपक्षी दलों को संभलने
का मौका दे दिया है। इन नतीजों को चंद महीने पहले ही प्रचंड बहुमत के साथ देश के
सत्ता सँभालने वाली मोदी सरकार के लिए अलार्मिंग कहा जायेगा, इसमें भाजपा को वे सीटें भी गवानी पड़ी हैं जिनपर उनका
पहले से ही कब्जा रहा है।
क्या वजह
रही होगी की जिन शक्तियां ने जनता की नब्ज पहचान कर उनकी उम्मीदों को हवा दी थी,
जो आवाम की प्रचंड उम्मीदों की सवारी करके बदलाव की वाहक बनी थीं वे मात्र चार
महीने में एक के बाद एक उपचुनावों में मात खा रही हैं। आखिर इन सौ दिनों में
ऐसा क्या बदल गया कि लोकसभा चुनाव के बाद जनता को मोदी-शाह की बेलगाम रथ पर एक के
बाद एक ब्रेक लगाने का फैसला करना पड़ा है। क्या यह नतीजे जनता के वास्तविक मुद्दों
और अपेक्षाओं के उफान को ठीक से डील करने की जगह हिन्दूतत्व के नकारात्मक एजेंडे
पर वापस लौटने के खिलाफ है या यह विविधता भरे मुल्क में मात्र दो व्यक्तियों
द्वारा देश और देश के सबसे बड़ी सियासी पार्टी को एक अति केंद्रीकृत व्यवस्था के
तहत नियंत्रित करने के प्रयासों की हार है या फिर यह कमंडल के खिलाफ मंडल पार्ट टू
के उभार का संकेत है।
निश्चित रूप
से इसका कोई एक कारण नहीं है, इसके कई वजूहात हो सकते हैं लेकिन शायद इसका मूल
कारण दिशाहीन और नाकारा मनमोहन सरकार के खिलाफ दिए गये जनादेश को नकारात्मक
हिन्दुतत्व के पक्ष में दिया गया जनादेश समझ लेना है। जनता ने हिन्दू राष्ट्र के
पक्ष में वोट नहीं दिया था, यूपीए सरकार से त्रस्त जनता विकल्प की तलाश में
थी, भाजपा और मोदी ने सामने आये इस अवसर को न सिर्फ पहचाना था बल्कि अपने पुराने
खोल से बाहर निकल कर इसके लिए नयी रणनीतियां बनायी थीं, जिसके तहत विकास, सुशासन के नाम पर नए
नारे गढ़े गये थे और मंडल यानी जातीय ध्रुवीकरण को सांधने के लिए संघ की परम्परागत
लाईन में लचीलापन दिखाते हुए “हिन्दुत्व” और “जाति” में फर्क करने के लिए काम किया
गया था, विवादित समझे जाने वाले पुराने एजेंडों को भी परदे के पीछे ही रखा गया था।
लेकिन
चुनाव के बाद हम देखते हैं कि इन पुराने विवादित एजेंडों को सयाने ढंग से बहुत तेजी के साथ एक के बाद
परदे से सामने लाया जाने लगा, इस मामले में भाजपा और मोदी सरकार द्वारा दोहरा
रवैया अपनाया गया कि विवादित और नकारात्मक हिंदुतत्व
के मुद्दों की जिम्मेदारी पार्टी के कुछ खास लोगों और संघ परिवार के संगठनों को दे
दी गयी और यह भी ख्याल रखा गया कि इन मसलों पर सीधे तौर पर पार्टी और सरकार को अलग
रखा जा सके, इस तरह से इसमें
श्रम विभाजन का वही पुराना फार्मूला अजमाया गया जिसे हम अटल- आडवाणी युग में देख
चुके हैं।
लोक सभा
चुनाव नतीजों को हिंदुतत्व के पक्ष में ध्रुवीकरण समझ बैठना एक चूक साबित हो रही
है, जब जनता “अच्छे दिनों “ की आस लगाये बैठे थी तो महंत आदित्यनाथ यू पी में
प्रचार कमेटी अध्यक्ष बन कर लव जिहाद और नफरत की तान छेड़े हुए थे, उधर मोदी विवाद्पस्द
मुद्दों पर मनमोहन-नुमा चुप्पी सांधे थे और उनके गृह मंत्री पूछते फिर रहे थे कि
यह लव जिहाद होता क्या है ? भाजपा–मोदी को यही डबल गेम मंहगा साबित हुआ है।
उमीदों का उफान जितनी तेजी से ऊपर उठता है उसका ग्राफ उतनी ही
तेजी से नीचे भी आ सकता है।
2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने मोदी को एकमात्र ऐसे विकल्प के तौर पर
प्रस्तुत किया था जो पलक झपकते ही सारी समस्याओं का हरण कर लेगा, यह एक अभूतपूर्व
चुनाव प्रचार था जिसमें किसी पार्टी और उसके भावी कार्यक्रम से ज्यादा एक व्यक्ति
को प्रस्तुत किया गया था, एक ऐसा व्यक्ति जो बहुत मजबूत है और जिसके पास हर मर्ज
की दवा उपलब्ध है। दरअसल हम हिन्दुस्तानियों का स्वभाव होता है
कि बार–बार छले जाने के बावजूद हम चमत्कार में बहुत जल्दी विश्वास कर लेते हैं, यह
स्वभाव सीमित विकल्पों और ना-उम्मीदी की देन है, इसलिए कहीं भी थोड़ी सी उम्मीद
दिखती है तो आम हिन्दुस्तानी उसके साथ खड़ा हो जाता है, हम हमेशा किसी ऐसे मसीहा का
इंतज़ार कर रहे होते है जो खास ताकतों से लैस हो, जो हमसे अलग हो और जादू की झड़ी
घुमाकर या सुपर मैन बन कर सब कुछ ठीक कर सके। हमने कुछ समय पहले ही तो अन्ना और “आप”
द्वारा बदलाव को लेकर दिए गये नारों के सुर के साथ ऐसा सुर मिलाया था कि पूरा देश
जगा हुआ लगने लगा था, हम ने बहुत ही चमत्कारिक
ढंग से करीब एक साल पुरानी पार्टी के नेता को दिल्ली की कुर्सी तक पंहुचा दिया था।
हालांकि यह बताने की जरूरत नहीं है कि खुमार उतरने के बाद हम उन्हें कहाँ छोड़ आये
हैं।
मोदी-भाजपा
को वोट देने वाली जनता ने भी उन्हें एक विकल्प के रूप इस आशा के साथ चुना था कि
आने वाले दिनों में नयी सरकार ऐसा कुछ काम करेगी जिससे उनके जीवन में सकारात्मक
बदलाव आयेंगें, उनकी परेशानियाँ कुछ कम होगी और मनमोहन सिंह के जी.डी.पी. नुमा
विकास माडल के बरअक्स ऐसा कुछ नया प्रस्तुत किया जाएगा जिनमें उनकी भी भागीदारी
सुनाश्चित हो सकेगी।
लेकिन
ऐसा कुछ होता नहीं दिख रहा है उलटे सत्ता में आते ही मोदी सरकार “कड़वे गोली” खाने
की नसीहत देने लगी, “अच्छे दिन” लाना तो
दूर मनमोहन सरकार की उन्हीं नीतियों को और जोर–शोर से आगे बढ़ाने शुरू कर दिया गया
जिनसे जनता त्रस्त थी। मोदी बड़े–बड़े फैसले और समझोते करते हुए दिखाई तो पड़ रहे है,
लेकिन यह समझोते “बड़े लोगों” के लिए हैं, इनका सम्बन्ध उस आम जनता से नहीं है जो
वोट देने में बहुसंख्यक है। सरकार के एजेंडे में प्राथमिकता से शामिल “आर्थिक सुधार”
भी मजदूर और गरीबों के हितों के विपरीत हैं।
भारत की विविधता
ही इसे खास बनती है और किसी भी हुकमत के लिए इसे नजरंदाज करना समस्या खड़ी कर सकता
है, पिछले महीनों इस मुल्क ने हुकूमत की ऐसी कार्यप्रणाली देखी है जिसका वह आदी
नहीं है,सत्ताधारी पार्टी और सरकार में एक ऐसी केंद्रीकृत व्यवस्था और काम –काज के
तरीके विकसित किये गये हैं जिसके केन्द्र में दो ही व्यक्ति दिखाई दे रहे हैं और
किसे नहीं पता कि यहाँ एक और एक प्लस एक ही है। अब इस व्यवस्था के साइड इफ़ेक्ट भी दिखाई
पड़ने लगे है, सरकार में अफवाहबाजी बहुत आम हो गयी है, “पार्टी विथ डिफरेंस” कुछ
ज्यादा ही डिफरेंट हो गयी है, पार्टी के नेता दबी जुबान में कहने लगे है कि काडर आधारित
पार्टी के नए मुखिया इसे सी.ई.ओ. की तरह चला रहे है। इस उप चुनाव के नतीजों के बाद
नेपथ्य में चले गये पार्टी नेताओं के चेहरे पर चमक साफ़ दिखाई पड़ रही है, ऐसे में
सवाल उठ रहे हैं कि क्या राजनाथ सिंह को अंदाजा हो गया था कि उपचुनाव खासकर उत्तर
प्रदेश में “लव जिहाद” और उग्र हिंदुत्व का दावं उल्टा पड़ने वाला है, तभी वोटिंग
से दो दिन पहले उन्होंने उल्टा सवाल पूछ लिया था कि “लव जिहाद होता क्या है पहले
यह तो पता चले”। अगर ऐसा है तो उन्होंने इसको लेकर पार्टी को आगाह क्यूँ नहीं किया
? क्या अब एक पूर्व अध्यक्ष के पास पार्टी में इसके लिए स्पेस नहीं बचा है या कुछ
और बात है।
पिछले
तीन डिप्टी चुनाव के नतीजों के संकेत बहुत साफ़ हैं कि जिन लोगों ने अच्छे दिनों की
उम्मीद के साथ मोदी को बहुमत तक पहुचाया था, वे साथ छोड़ रहे हैं।
उपचुनावों में आवाम लगातार उन्हीं नाकारा सियासी दलों को जीता रही है जिन्हें वह
चार महीने पहले खारिज चुकी थी। दरअसल
मोदी सरकार पर उम्मीदों का बोझ भी तो कम नहीं है, यह तिहरे उम्मीद का भार है जहाँ एक
तरफ संघ और उससे जुड़े कैडरों की
उम्मीदें है जिसने संघ दर्शन पर आधारित भारत निर्माण के लिए
लोक सभा चुनाव के दौरान अपनी पूरी ताकत झोक दी थी तो दूसरी तरफ बहुसंख्या में उन युवाओं और मध्यवर्ग की उम्मीदें हैं जिन्होंने मोदी
को विकास,सुशासन और अच्छे दिन आने के आस में वोट देकर निर्णायक स्थान तक पहुचाया
है,इन सब के बीच देश–विदेशी कॉर्पोरेट्स के आसमान छूती उम्मीदें तो है ही,जाहिर
सी बात है मोदी सरकार के लिए लिए इन सब के
बीच ताल मेल बिठाना मुश्किल हो रहा है, उसे इन समूहों
को लम्बे समय तक एक साथ साधे रख सकने में काफी मशक्कत करनी पड़ रही है, इसलिए वह सब
को साधे रखने के लिए दोहरा
रवैया अपना रही है। सियासी दलों के लिए उप चुनाव आईना
दिखाने का काम करते हैं,फिलहाल आईने में साफ़ दिख रहा है कि डबल गेम फेल हो चूका है
।
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