मजहबी नफरतों, ढकोसलों, कर्मकांडों,और अन्धविश्वास के खिलाफ है “पीके”
जावेद अनीस
6 January 2015, DNA |
राजकुमार हिरानी के फिल्मों का अलग ही मिजाज होता है, वे विलक्षण
रूप से भेड़–चाल से अलग नज़र आते हैं, और ऐसा भी नहीं होता है कि वे अलग लीक पर चलते
हुए सिनेमा के मूल उद्देश्य ‘मनोरंजन’ को नज़रअंदाज करते हों,बल्कि उनकी फिल्में तो आम मसाला फिल्मों से ज्यादा
मनोरंजक होती हैं. वैसे तो हमारे फिल्म इंडस्ट्री में अगर कोई फिल्म ज्यादा कामयाब
होती है तो ज्यादातर फिल्ममेकर उसी फार्मूले पर धड़ाधड़ फिल्मों की बरसात सी कर देते
हैं, लेकिन राजकुमार हिरानी जैसी फिल्मों को बनाना कोई हिट होने का शार्टकट
फार्मूला नहीं है, यह तो मेहनत और सिनेमाई क्रिएटिविटी दोनों की मांग करता है।
इसलिए हिरानी के हिट फार्मूले की कॉपी करना और चलन में आना थोडा मुश्किल हो जाता
है।
फिल्म मेकिंग बुनियादी रूप से एक क्रिएटिव काम है और इस बात को राजकुमार
हिरानी और उनकी टीम ने अपनी पिछली फिल्मों से साबित भी किया है। उनकी सभी फिल्में
मनोरंजक तो होती ही हैं साथ ही साथ वे हमारे समय और उसकी समस्याओं पर भी चोट करती हैं
और ऐसा करते हुए भी वे मास की ही फिल्म बनी रहती है। ऐसा इसलिए संभव हो पाता है क्योंकि
ये फिल्में जनता से उन्हीं की भाषा, व्याकरण, मुहावरों और चुटकलों में संवाद करती है।
ट्रेजडी और कामेडी के बीच एक लकीर होती है और हिरानी इस लकीर को अपने सिनेमा की
समझ और उसकी ताकत से पाटने में कामयाब हो जाते हैं,यही बात उनको आज के दौर के
निर्देशकों में खास बनाती है। उनकी पिछली तीनों फिल्में ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’, ‘लगे
रहो मुन्नाभाई’ और ‘3 इडियट’ इसी बात की मिसाल हैं। “लगे रहो मुन्नाभाई’ जब रिलीज
हुई थी उस दौरान मेरी मुलाकात भारत में साम्प्रदायिक सदभाव के पक्ष में खड़े प्रमुख
आवाजों में से एक राम पुनियानी से हुई थी। उस समय उन्होंने कहा था कि ‘जिस तरह से
हिरानी ने “लगे रहो मुन्नाभाई” में महात्मा गाँधी के विचारों को बहुत ही आसान और
स्वभाविक तरीके से पेश किया है उससे उन्हें लगता है कि वे इंसानी भाई चारे और
सौहार्द को लेकर भी मेनस्ट्रीम की एक अच्छी फिल्म बना सकते है।‘
“पीके” देख कर लगता है कि इस बार राजकुमार हिरानी ने यही किया
है, उन्होंने इस बार ज्यादा पेचीदा मसला चुना है, क्योंकि हिन्दुस्तान में मज़हब को
डील करना खतरे से खाली नहीं है, “पीके” मजहबी नफरतों, ढकोसलों, कर्मकांडों, दिखावेपन
और अन्धविश्वास पर बनी फिल्म है। “पीके” एक ऐसे समय आई है जहां एक तरफ मजहब,
राजनीति और तिजारत का घालमेल खतरनाक स्तर तक हो गया है, भारत सहित दुनिया का एक
बड़ा हिस्सा इस खतरे से जूझ रहा है, पिछले ही दिनों पाकिस्तान में मजहब के नाम पर
एक हैवानियत हुई है जहाँ पिशाचों ने नन्हे फूलों के खूनों से अपने
जन्नत के हवस की प्यास बुझाई है। भारत में मजहब और सियासत का घालमेल अपने चर्म पर
है। वहीँ दूसरी तरफ ऐसी फिल्मों का दौर सा चल पड़ा
है जो अलग–अलग होती हुई भी अपने कहानी, ट्रीटमेंट और फार्मूले में तकरीबन एक सी ही
होती है, ऐसे दौर में “पीके” सिनेमा के ताकत पर भरोसा जगाती है।
इस फिल्म का कैनवास बहुत बड़ा है, यह शुरू में ही इस बात को
स्थापित कर देती है कि इस पूरे ब्रह्मांड में इंसान बहुत छोटा है और हम पृथ्वीवासी
तो अभी तक अपने उस गैलक्सी के बारे में ही “ना” के बराबर जानते हैं जिसमें अरबों
ग्रह है जबकि इसी तरह की करोड़ों गैलक्सीयां और मौजूद है जिसके बारे में हमें कुछ
अंदाजा भी नहीं है।
फिल्म में आमिर खान का कैरेक्टर एक
एलियन है जो 400 करोड़ मील दूर
किसी दूसरे गोले से हमारे गोले (पृथ्वी) पर आया है। वह नंग-धडंग अपने विशेष यान से राजस्थान के किसी अंजान स्थान
पर लैंडिंग करता है। पृथ्वी
पर उतरते ही उसका सामना इस ग्रह के नंगे कारनामों से होता है, कोई “पीके” का रिमोट कंट्रोल
उसके गले से खीच कर भाग जाता है। इससे उसके सामने बड़ी मुसीबत खड़ी हो जाती है
क्योंकि इसी रिमोट कंट्रोल के जरिए वह अपने ग्रह के संपर्क में
था, इसके बिना वो अपने ग्रह वापस नहीं जा सकता है।
उसका कोई नाम नहीं है, लेकिन उसकी
अजीबोगरीब हरकतें देख कर सबको लगता है कि वो “शराब पीके” आया है, इसलिए उसका नाम “पीके” पड़ जाता है। पृथ्वी पर उतरते ही एक चोर उसका रिमोट कंट्रोल चुरा लेता है। रिमोट कंट्रोल के बिना वो अपने ग्रह वापस नहीं जा सकता। यहाँ वह देखता है कि इंसान अपने परेशानी के वक्त किसी भगवान का
दरवाज़ा खटखटाते हैं। वो भी अपनी समस्या लेकर मंदिर, मस्जिद और गिरिजाघरों के खूब चक्कर लगता है, वहां खूब चढ़ाव भी देता है और
तरह तरह के ढकोसले भी करता है, लेकिन बात नहीं बनती है उलटे वह भगवान,अल्ल्लाह और
गॉड के नाम पर चल रहे गोरखधंधे और इन्सानों के बंटवारे से कन्फ्यूज हो जाता है। वह
देखता है कि यहाँ भगवान के नाम पर बाकायदा बिजनेस चलाये जा रहे हैं और कुछ लोग
इसके ठेकेदार बने बैठे हैं। एक सीन में “पीके”
एक विज्ञान कॉलेज के सामने खाली जगह पर एक पत्थर रखता है और उसे लाल रंग से पोत
देता है। कुछ ही समय बाद वहां लोग पैसे चढ़ाना शुरू कर देते है, तंजिया अंदाज में
यह बताया गया है कि यहाँ धर्म से बेहतर
कोई धंधा नहीं और विज्ञान पढ़ने वाले भी खूब अंधविश्वास का शिकार होते हैं। बाद
में “पीके” को उसका रिमोट कंट्रोल खोजने में साथ देती है टीवी पत्रकार जगत जननी
(अनुष्का)। जिसके लिए उसे एक बड़े संत से भी टकराना पड़ता है। आमिर ख़ान ने पीके के किरदार को जिया है, एलियन के रोल में वे
पूरी फिल्म में आंखे फाड़े, कान बाहर निकाले हुए
बहुत सधे हुए नज़र आते है, लेकिन फिल्म के असली हीरो तो इसकी कहानी और डायलॉग हैं और एक एलियन को “भोजपुरी” बुलवाने का
आईडिया तो कमाल का था।
यह भी अपने आप में हम इंसानों पर
एक चोट है कि इस फिल्म को बनाने वालों को आमिर के किरदार को एक एलियन बनाना पड़ा है,
शायद हमारे पास ऐसे किरदार ही नहीं बचे हैं जो मजहब के नाम पर हो रहे सियासत, धंधे,
अन्धविश्वास और नफरतों को लेकर सवाल कर सकें और इनके खिलाफ मजबूती से खड़े हो सकें।
इसको लेकर राजकुमार हिरानी ने खुलासा भी किया है कि आमिर के किरदार को एलियन इसलिए
बनाया गया क्योंकि उसके दूसरी दुनिया से होने की वजह से विवाद होने की संभावना नहीं
है।
लेकिन एक
ऐसे मुल्क में जहां कट्टरता और अंधविश्वास की जड़ें बहुत गहरी है वह कोई मजहब को
लेकर सवाल उठायें और बच कर निकल भी जायें ऐसा होना तो मुश्किल है, खबर है कि फिल्म
में कुछ तथाकथित “आपत्तिजनक दृश्यों” को लेकर एक संगठन द्वारा लखनऊ में एक याचिका दाखिल
किया गया है और इसमें फिल्म पर बैन लगाने की मांग की गई है। सबसे ज्यादा तथाकथित हिंदूवादी
संगठनों द्वारा इस फिल्म को हिन्दुओं के खिलाफ बताया जा रहा है।
लेकिन
ऐसा है नहीं, "पीके” किसी धर्म के ख़िलाफ़ नहीं है। यह तो सभी धर्मों में इसकी ग़लत
व्याख्या करने वालों, धर्म के नाम पर लोगों का शोषण करने वालों,धर्म की ठेकेदारी
करने वालों द्वारा आडम्बरों, अन्धविश्वासों और धार्मिक उन्माद के खिलाफ है और
इसमें किसी एक खास मजहब को टारगेट नहीं किया गया है।
कुल मिलाकर पीके' एक अति संवेदनशील मुद्दे पर बनी फिल्म है। जो बड़ी और गंभीर बातों को
उपदेशात्मक तरीके से
नहीं बल्कि हल्के-फुल्के प्रसंगों के जरिये सामने रखती है और ऐसा
करते हुए वह फिल्म दर्शकों का भरपूर मनोरंजन भी करती है। अंत में दर्शक अपने साथ कुछ सवालों
को भी लेकर जाता है। मजहबी उन्माद और सौ-दो सौ
करोड़ क्लब की पकाऊ फिल्मों के दौर में एक मेनस्ट्रीम की एक फिल्म मजहब के नाम पर
हो रहे गोरखधंधे और आडम्बरों से बहुत सलीके और सटीकता से टकराने में कामयाब हुई है
। और तीर भी पूरी तरह से आपने निशाने
लगा है तभी तो जहाँ तरफ देश के हर कोने में मजहब और नफरत के सौदागर उबल पड़े हैं वहीँ
दूसरी तरफ दर्शक इस फिम को हाथोंहाथ लेकर
इसे सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म बना दिया हैं ।
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