घर वापसी का ढोंग बनाम जाति की जकड़न
-एल.एस.
हरदेनिया
इस समय
धर्मांतरण, घरवापसी, लव जिहाद, नाथूराम गोडसे के महिमामंडन के प्रयास आदि को लेकर
राष्ट्रव्यापी बहस छिड़ी हुई है। केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह समेत अनेक लोग इस
बात की मांग कर रहे हैं कि धर्मांतरण को लेकर एक विस्तृत कानून बने।
इन तमाम
मुद्दों पर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है। सर्वप्रथम इस प्रश्न पर
विचार आवश्यक है कि कुछ लोग अपना धर्म छोड़कर दूसरे धर्म
को क्यों अपनाते हैं?
अपने धर्म
को त्यागने के अनेक कारण होते हैं। कुछ लोग धर्मपरिवर्तन आध्यात्मिक और दार्शनिक कारणों से
करते हैं। हमारे यहां का उदाहरण लें तो हमारे देश के कुछ महान व्यक्तियों ने
दार्शनिक और आध्यात्मिक कारणों से हिंदू धर्म को त्यागा। इस सूची में सबसे पहला
नाम राजकुमार सिद्धार्थ का है। उन्हें अपने धर्म में कुछ ऐसी विषमताएं महसूस हुईं
कि उन्होंने न सिर्फ अपना धर्म छोड़ा वरन् एक राजा को उपलब्ध ऐशोआराम की सुविधायें
त्याग दीं और एक नये धर्म की स्थापना की। यह धर्म बुद्ध धर्म के नाम से जाना गया।
हमारे देश
के ही एक महान व्यक्ति डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने भी हिंदू धर्म को त्यागा। उनके द्वारा धर्म परिवर्तन
के कारण दार्शनिक भी थे और भौतिक भी। उन्हें एक दलित होने के नाते तरह-तरह की
यंत्रणाएं भोगना पड़ी थीं। अनेक बार अपमान के घूंट पीने पड़े थे। स्वयं के अनुभव
के साथ-साथ उन्हें अपनी जाति के लोगों की दयनीय स्थिति ने भी बौद्ध धर्म को
स्वीकार करने के लिए मजबूर किया था। उन्होंने जीवनभर यह प्रयास किया कि उच्च जाति
के लोगों का दलितों के प्रति रवैय्या बदले। शायद इसी इरादे से उन्होंने आजाद भारत
के संविधान निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाई। इसी इरादे से दलितों के लिए आरक्षण
की व्यवस्था की। परंतु उन्होंने जब महसूस किया कि सवर्णों के रवैय्ये में रंचमात्र
भी अंतर नहीं आया है तो उन्होंने १९५६ में हिंदू धर्म को त्यागकर बौद्ध धर्म
अंगीकृत किया।
उसके बाद
भारी संख्या में दलितों ने हिंदू धर्म से विदा ली। हमारे देश के एक और महान
व्यक्ति ने भी इन्हीं कारणों से हिंदू धर्म त्यागा था। उनका नाम था राहुल
सांक्रत्यायन।
शायद
संविधान निर्माताओं को यह भरोसा था कि आरक्षण के कारण दलितों की स्थिति में सुधार आयेगा परंतु
वैसा नहीं हुआ और दलितों को अपमान भरी स्थितियों में अभी भी जीवनयापन करना पड़ रहा
है। आजकल जब यह बात कही जाती है कि दलितों की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया है
तो अनेक लोग इस दावे को चुनौती देते हुए कहते हैं कि दलितों को सभी अधिकार प्राप्त
हैं और उनके साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं हो रहा है। परंतु उनका दावा कितना
खोखला है यह समय-समय पर हुए सर्वेक्षणों से सिद्ध होता है।
वर्ष २००७
में एक जनसुनवाई आयोजित की गई थी। जनसुनवाई के लिए एक ट्रिब्यूनल
गठित किया गया था। इस ट्रिब्यूनल में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश के.
रामास्वामी, मुंबई हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश एच. सुरेश, केरल मानव अधिकार
आयोग के अध्यक्ष डॉ. एस. बाला रमन, टाटा इंस्टीट्यूट
ऑफ सोशल साईन्सेज के प्रोफेसर ए. रमैया, स्वामी अग्निवेश, डॉ. माजा दारूवाला, पूर्व आईएएस
अधिकारी के.बी. सक्सेना, हर्षमंदर, जवाहरलाल नेहरू
विश्वविद्यालय के प्रोफेसर नंदूराम एवं आशा के निदेशक संदीप पांडे थे।
इस ट्रिब्यूनल के सामने देश के विभिन्न क्षेत्रों से आए दलितों ने अपनी पीड़ा
के रोंगटे खड़े कर देने वाले विवरण दिए थे। एक लंबी सुनवाई के बाद ट्रिब्यूनल इस
नतीजे पर पहुंचा था कि आज भी बड़े पैमाने पर दलितों के साथ भेदभाव जारी है। इसमें
दलितों को मंदिरों
में प्रवेश न करने देना, पानी भरने और नहाने के स्थानों पर उनके साथ
भेदभाव, उनसे मैला ढोने का
काम करवाना, देवदासी प्रथा, दलित महिलाओं का
यौन शोषण, स्कूलों में एवं
अन्य सार्वजनिक स्थानों पर भेदभाव आदि शामिल हैं। अनेक कानूनों के बावजूद यह
सब हो रहा है।
वर्ष २००७
में ट्रिब्यूनल द्वारा प्राप्त जानकारी के अतिरिक्त, २०१४ में
मध्यप्रदेश में दलितों की स्थिति जानने के लिए एक विस्तृत सर्वेक्षण किया गया। सर्वेक्षण वैज्ञानिक पद्धति
से किया गया था। सर्वेक्षण में मध्यप्रदेश में एक भी गांव ऐसा नहीं पाया गया जहां
दलित समुदाय के साथ छुआछूत न होता हो। मध्यप्रदेश के पांच
क्षेत्रों के १० जिलों के सभी ३० गांवों में दलित समुदाय के साथ किसी न किसी तरह
का भेदभाव होना पाया गया। यदि हम इन गांवों में दलित समुदाय के साथ होने वाली
विभिन्न प्रकार की छुआछूत की गिनती करें तो पाते हैं कि यहां कुल मिलाकर ७० प्रकार
की छुआछूत होती हैं। इनमें सार्वजनिक स्थानों से लेकर स्कूल एवं अन्य सार्वजनिक सेवाओं, होटलों, दुकानों तथा कार्य
स्थल पर दलित समुदाय के मजदूरों के साथ व्यापक रूप से छुआछूत का प्रचलन देखा गया
है।
भेदभाव के कुछ उदाहरण हैं:
·
दलित समुदाय के लोगों को ऊपर से पानी पिलाना।
·
दलितों के नाम बिगाड़कर बोलना।
·
दलित मोहल्लों को जातिगत नामों से पुकारना।
·
दलितों को धार्मिक कार्यक्रमों में शामिल न करना।
·
दलित समुदाय के लोगों को अलग लाईन में बैठाकर
खाना खिलाना।
·
दलित लोगों से बेगारी करवाना।
·
चाय पीने के बाद कप धुलवाना और अलग स्थान पर
रखवाना।
·
दलितों से दूसरों के और अपने भोजन के पत्तल
उठवाना।
·
अपमानजनक तरीके से, गाली देते हुए जाति
का नाम लेना।
·
पंचायत भवन एवं अन्य सार्वजनिक सेवाओं के संबंधित
भवन दलित बस्ती से दूर बनाना।
·
स्कूल में खाना बनाने के काम में किसी दलित महिला
की नियुक्ति न करना।
·
स्कूल में खाना बनाने के स्थान (किचन शेड) में
दलित बच्चों को नहीं जाने देना।
·
स्कूल में मध्यान्ह भोजन में दलित बच्चों को रोटी
ऊपर से फेंककर परोसना।
·
प्रसूति के दौरान दलित महिला से मल-मूत्र साफ
करवाना और बाद में उसे घर में आने नहीं देना।
सर्वेक्षण
में यह भी पाया गया कि न तो प्रशासन और ना ही राजनीतिक पार्टियां पीडि़त दलितों
की मदद करती हैं।इस तरह की विषम परिस्थितियों में जिन्हें हिंदू समाज छोड़ना पड़ा, उन्हें फिर से हिंदू समाज में
वापस लाने का प्रयास किया जा रहा है। इस प्रयास को घरवापसी का नाम दिया गया है। परंतु जो उन्हें वापस लाने का प्रयास कर रहे हैं, उनसे यह पूछा जाना
चाहिए कि जब ये लोग वापस आ जायेंगे तो उन्हें किस घर में रखा जाएगा। क्या उन्हें
उसी मुहल्ले और उसी घर में रख दिया जायेगा जहां वे पहले रहते थे, क्या उन्हें यह
गारंटी दी जाएगी कि उनके साथ वैसा व्यवहार नहीं होगा, जो उनसे उच्च जाति
के लोग, हिंदू समाज छोड़ने
के पहले करते थे?
यदि यह
गारंटी देने की स्थिति में वे नहीं हैं, जो घरवापसी करा रहे हैं तो
घरवापसी का क्या अर्थ है? जब तक इन शंकाओं का उत्तर नहीं मिलता तब तक घरवापसी का नारा
एक धोखा है। यह मात्र समाज में तनाव फैलाने का एक औजार है।
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