टिपू सुलतान से नफरत, नाथुराम गोडसे से प्यार
आखिर ‘मैसूर का शेर’ केसरिया पलटन को आज
भी क्यों खौफनाक लगता है
–सुभाष गाताडे –
केसरिया पलटन ने फिर
एक बार उसी कारनामे को अंजाम दिया है। उन्होंने फिर एक बार महान टिपू सुलतान /20 नवम्बर 1750-4
मई 1799/
– जो
उन गिने चुने राजाओं में थे जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते हुए युद्ध के
मैदान पर वीरगति प्राप्त की थी – की विरासत पर
प्रश्नचिन्ह खड़े करने की कोशिश की है। श्रीरंगपटटनम की ऐतिहासिक लड़ाई में मौत का
वरण किए टिपू सुलतान की शहादत 1857 के महासमर के लगभग
पचास साल पहले हुई थी। और बहुत कम लोग हक़ीकत से वाकीफ हैं कि ब्रिटिशों के खिलाफ
संघर्ष में टिपू सुलतान ने अपने दो बच्चों को भी खोया था।
हिन्दुत्व ब्रिगेड
द्वारा टिपू सुलतान पर लांछन लगाने का फौरी कारण यही दिखता है कि
पिछले दिनों कर्नाटक सरकार ने टिपू जयन्ती मनाने का फैसला लिया है। प्रख्यात
इतिहासकार और टिपू के अध्येता प्रोफेसर बी शेख अली की नयी किताब ‘टिपू सुलतान: एक
क्रूसेडर फार चेंज’ के विमोचन के वक्त़ मुख्यमंत्राी सिद्धरमैया
ने पिछले दिनों यह ऐलान किया था।
अपने वक्त़ से बहुत
आगे चल रहे टिपू, जो विद्वान, फौजी एवं कवि भी थे, वह हिन्दू मुस्लिम
एकता के हिमायती थे, उन्हें नयी खोजों के प्रति बहुत रूचि रहती
थी और उन्हें दुनिया के पहले युद्ध राॅकेट का अन्वेषक कहा जाता है। टिपू फ्रेंच
इन्कलाब से भी प्रभावित थे और मैसूर का शासक होने के बावजूद अपने आप को नागरिक के
तौर पर सम्बोधित करते थे और उन्होंने अपने राजमहल में ‘स्वतंत्राता’ के पौधे को भी लगाया
था। इतिहास इस बात का गवाह है कि टिपू ने ब्रिटिशों के इरादों को बहुत पहले भांप
लिया था और घरेलू शासकों तथा फ्रेंच , तुर्क और अफगाण
शासकों से रिश्ते कायम करने की कोशिश की थी ताकि ब्रिटिशों के वर्चस्ववादी मंसूबों
को शिकस्त दी जा सके और उन्होंने अपनी बेहतर योजना और उन्नत तकनीक के बलबूते दो
बार ब्रिटिश सेना को शिकस्त दी थी।
उनके झंझावाती जीवन
का एक प्रसंग जो हिन्दुत्ववादी संगठनों द्वारा प्रचारित की जा रही उनकी छवि के विपरीत
स्पष्ट तौर पर दिखता है, उसकी चर्चा करना समीचीन होगा। वह 1791
का साल था जब मराठा
सेनाओं ने श्रंगेरी शंकराचार्य मठ और मंदिर पर हमला किया, वहां के तमाम कीमती
सामानों की लूटपाट की और कइयों को मार डाला। पदासीन शंकराचार्य ने टिपू सुलतान से
सहायता मांगी, टिपू ने तत्काल बेदनूर के असफ को निर्देश दिया कि
वह मठ की मदद करे। शंकराचार्य और टिपू सुलतान के बीच हुआ पत्राचार, जिसमें तीस पत्रा
शामिल है तथा जो कन्नड भाषा में उपलब्ध है, उसकी खोज मैसूर के
पुरातत्वविभाग ने 1916 में की थी। मठ पर हुए हमले को लेकर टिपू लिखते हैं:
ऐसे लोग जिन्होंने इस पवित्रा स्थान का अपवित्राीकरण किया
है उन्हें अपने कुक्रत्यों की इस कलियुग में जल्द ही सज़ा मिलेगी, जैसे कि कहा गया है ‘लोग शैतानी कामों को हंसते हुए अंजाम देते हैं, मगर उसके अंजाम को रोते हुए भुगतते
हैं।’ ‘/हसदभ्भी
क्रियते कर्मा रूदादभिर अनुभूयते//
इसमें कोई दो राय
नहीं कि टिपू जयन्ती मनाने का प्रस्ताव दक्षिणपंथी संगठनों को नागवार गुजरा है, राज्य में प्रमुख
विपक्षी पार्टी भाजपा ने इसे ‘वोट बटोरने’ का हथकंडा कहा है।
उनके एक वरिष्ठ नेता ने टिपू को ‘जुल्मी तानाशाह’ के तौर पर सम्बोधित
करते हुए प्रस्तावित कार्यक्रम के औचित्य पर ही सवाल खड़े किए हैं। भाजपा के एक
अन्य वरिष्ठ नेता डी एच शंकरमूर्ति ने उन्हें ‘कन्नडाविरोधी’ कहा है क्योंकि वह ‘कन्नाडिगा’ नहीं थे। उनका यह भी
आरोप है कि टिपू के राज सम्भालने के पहले राजकारोबार की भाषा के तौर पर कन्नड के
स्थान पर पर्शियन का इस्तेमाल उन्होंने शुरू किया। वैसे अगर याददाश्त पर थोड़ा जोर
देने की कोशिश करें तो पता चल सकता है कि यह वही सज्जन हैं, जिन्होंने उच्च
शिक्षा मंत्री के पद पर रहते हुए – जबकि भाजपा और जनता
दल /सेक्युलर/ सांझा सरकार चला रहे थे – यह ऐलान कर दिया था
कि वह कन्नडा इतिहास से टिपू का नामोनिशान हटा देना चाहते हैं। यह अलग बात है कि
बढ़ते जनाक्रोश के चलते सरकार को इस योजना को मुल्तवी करना पड़ा था।
याद रहे कि अभी पिछले
ही साल जब कर्नाटक सरकार ने यह निर्णय लिया कि 26 जनवरी की दिल्ली की
परेड में टिपू के सम्मान में झांकी निकालेंगेा, तबभी इन ताकतों ने
उसका विरोध किया था, यहां तक कि जब तत्कालीन संप्रग सरकार ने
श्रीरंगपटटनम जहां टिपू शहीद हुए थे, वहां जब एक केन्द्रीय
विश्वविद्यालय उन्हीं के नाम से खोलने का प्रस्ताव रखा था, तबभी इन ताकतों ने
उसका विरोध किया था।
दो साल पहले जब
कर्नाटक में तब सत्तासीन रही भाजपा सरकार की उलटी गिनति शुरू
हो चुकी थी, जब भाजपा के एक अन्य महारथी ने – जो उन दिनों राज्य के
शिक्षामंत्राी थे – बेहद बेशर्मी के साथ टिपू की अंग्रेजों से
तुलना की थी और उनकी तरह टिपू को भी ‘‘विदेशी’’ घोषित किया था।/डीएनए, जनवरी 25,
2013/
यह देखना समीचीन होगा
कि आखिर हिन्दुत्व ब्रिगेड के लोग टिपू सुलतान से क्यों नफरत करते हैं और उनके
आरोपों का क्या आधार है? मगर इस पर रौशनी डालने के पहले यह देखना
उचित रहेगा कि किस तरह ब्रिटिशों की ‘बांटो’ और ‘राज करो’ की नीति के तहत
इतिहास के विक्रतिकरण का काम टिपू सुलतान को लेकर लम्बे समय से चल रहा है। इस
सन्दर्भ में हम राज्यसभा में दिए गए प्रोफेसर बी एन पांडे के भाषण को देख सकते हैं, जो उन्होंने 1977
में ‘साम्राज्यवाद की सेवा
में इतिहास’ के शीर्षक के साथ प्रस्तुत किया था। इलाहाबाद
विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर रहे बी एन पाण्डे, जो बाद में उडि़सा के
राज्यपाल भी बने, उन्होंने अपने अनुभव
को सांझा किया। अपने भाषण में 1928 की घटना का उन्होंने
विशेष तौर पर जिक्र किया।
उनके मुताबिक ‘‘जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में वह
प्रोफेसर थे तब कुछ विद्यार्थी उनके पास आए और उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय के
संस्कत विभाग के प्रोफेसर हरप्रसाद शास्त्राी द्वारा लिखी किताब दिखाई, जिसमें बताया गया था कि टिपू ने तीन
हजार ब्राहमणों को इस्लाम धर्म स्वीकारने के लिए मजबूर किया वर्ना उन्हें मारने की
धमकी दी। किताब में लिखा गया था कि इन ब्राहमणों ने इस्लाम धर्म स्वीकारने के बजाय
मौत को गले लगाना मंजूर किया। इसके बाद उन्होंने प्रोफेसर हरप्रसाद शास्त्राी से
सम्पर्क कर यह जानना चाहा कि इसके पीछे क्या आधार है ? प्रोफेसर शास्त्राी ने मैसूर
गैजेटियर का हवाला दिया। उसके बाद प्रोफेसर पांडे ने मैसूर विश्वविद्यालय के
इतिहास के प्रोफेसर श्रीकान्तिया से सम्पर्क किया, तथा उनसे यह जानना चाहा कि क्या
वाकई मे उसके इसमें इस बात का उल्लेख है। प्रोफेसर श्रीकांन्तियां ने उन्हें बताया
कि यह सरासर झूठ है, उन्होंने
इस क्षेत्रा में काम किया है और मैसूर गैजेटियर में इस बात का कोई उल्लेख नहीं है
बल्कि उसका उल्टा लिखा हुआ है कि टिपू सुलतान 156 हिन्दू मंदिरों को सालाना अनुदान
देते थे और श्रंगेरी के शंकराचार्य को भी नियमित सहायता करते थे।’
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यह विडम्बनापूर्ण है कि नब्बे के दशक में भारतीय समाज के कुछ
सदस्यों का आक्रामक हिन्दुत्व टिपू की छवि के विक्रतिकरण में लगा है, जो हम देख सकते हैं
कि इस उपमहाद्वीप के औपनिवेशिक ताकतों ने गढ़ी थी।
ब्रिटेलबेंक केट/1999/ ‘टिपू सुलतानज सर्च फोर लेजिटिमसी, दिल्ली: आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस,
ब्रिटेलबेंक केट/1999/ ‘टिपू सुलतानज सर्च फोर लेजिटिमसी, दिल्ली: आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस,
वैसे जिसने भी टिपू
सुलतान द्वारा हिन्दुओं और ईसाइयों पर किए गए कथित अत्याचारों पर लिखा है, वहां हम बता सकतेे
हैं कि उन्होंने उसके लिए ब्रिटिश लेखकों – किर्कपैटिक और
विल्क्स –
की किताबों से मदद ली
है। दरअसल लार्ड कार्नवालिस और रिचर्ड वेलस्ली के प्रशासन के साथ नजदीकी रूप से
जुड़े इन लेखकों ने टिपू सुलतान के खिलाफ चली युद्ध की मुहिमों में भी हिस्सा लिया
था और टिपू को खूंखार बादशाह दिखाना और ब्रिटिशों को ‘मुक्तिदाता’ के तौर पर पेश करने
में उनका हित था।
अपनी रचना ‘द हिस्टरी आफ टिपू
सुलतान/1971/ पेज 368, मोहिबुल हसन टिपू के इस ‘दानवीकरण’ पर अधिक रौशनी डालते
हैं। वह लिखते है:-
आखिर टिपू को किन कारणों से बदनाम किया गया इसे जानना
मुश्किल नहीं है। अंग्रेज उनके प्रति पूर्वाग्रहों से भरे थे क्योंकि वह उसे अपना
सबसे ताकतवर और निर्भीक दुश्मन के तौर पर देखते थे और अन्य भारतीय शासकों के
विपरीत उसने अंग्रेजी कम्पनी की शरण में आने से इन्कार किया। उसके खिलाफ जिन
अत्याचारों को जोड़ा जाता है वह कहानियां उन लोगों ने गढ़ी थी जो उससे नाराज थे या
उसके हाथों मिली शिकस्त से क्षुब्ध थे, या
युद्ध के उन कैदियों ने बयां की थी जिन्हें लगता था कि उन्हें जो सज़ा मिली वह अनुचित
थी। कम्पनी सरकार ने उसके खिलाफ जो आक्रमणकारी युद्ध छेड़ा था, उसे उचित ठहरानेवालों ने भी टिपू का
गलत चित्राण पेश किया। इसके अलावा उसकी उपलब्धियों को जानबूझ कर कम करके आंका गया
और उसके चरित्रा को सचेतन तौर पर एक खलनायक के तौर पर पेश किया गया ताकि मैसूर के
लोग उसे भूल जाएं और नए निज़ाम का सुद्रढीकरण हो सके।
दरअसल इतिहास का यह
एकांगी चित्रण महज टिपू को लेकर ही सही नहीं है। अगर गहराई में जाएं तो हम पाते हैं कि
जिस तरह औपनिवेशिक इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास को जिस तरह समझा और पेश किया और
जिस तरह साम्प्रदायिक तत्वों ने अपनी सुविधा से उसका प्रयोग किया, उसमें आन्तरिक तौर पर
गहरा सामंजस्य है। अपनी चर्चित किताब ‘द हिस्टरी आफ ब्रिटिश
इंडिया’
में जेम्स मिल ने
भारतीय इतिहास को तीन कालखण्डों में बांटा था, हिन्दू, मुस्लिम और ब्रिटिश।
यह समस्याग्रस्त चित्राण न केवल बौद्ध/जैन तथा अन्य परम्पराओं, समूहों के योगदान को
गायब कर देता है बल्कि वह बीते कालखण्ड के प्रति बहुत समरूप द्रष्टिकोण पेश करता
है,
गोया तत्कालीन समाज
में अन्य कोई दरारें न हों। अपने एक साक्षात्कार में प्रोफेसर डी एन झा इस
प्रसंग पर रौशनी डालते हैं (www.countercurrents.org)
जब मजुमदार ने भारतीय इतिहास पर कई खण्डों में विभाजित
ग्रंथ प्रकाशित किया तब उन्होंने ‘‘हिन्दू
कालखण्ड’’ पर
अधिक ध्यान दिया और इस तरह पुनरूत्थानवाद और साम्प्रदायिकता को हवा दी। इन
औपनिवेशिक इतिहासकारों ने जो साम्प्रदायिक इतिहास गढ़ा उसी ने इस नज़रिये को
मजबूती प्रदान की कि मुसलमान ‘‘विदेशी’’ हैं और हिन्दू ‘‘देशज’’ हैं।
आजादी के बाद का
इतिहास लेखन, जिसने औपनिवेशिक कालखण्ड के लेखन से बहुत
कुछ लिया,
उसने ‘‘महान भारतीय अतीत’’ की बात की। राष्टीय
स्वयंसेवक संघ और उसके विचारक इसी ‘‘महान भारत’’ के मिथक को प्रचारित
करने में लगे हैं। प्रोफेसर डी एन झा आगे बताते हैं:
राष्टीय स्वयंसेवक संघ की मुस्लिम विरोधी समझदारी एच एम
इलियट और जान डाॅसन जैसे औपनिवेशिक इतिहासकारों की देन है जिन्होंने ‘द हिस्टरी आफ इंडिया एज टोल्ड बाई इटस ओन हिस्टारियन्स’ जैसी किताब को संकलित किया।
उन्होंने मुसलमानों की भत्र्सना की, यह
कहा कि उन्होंने मंदिरों का विनाश किया और हिन्दुओं को दंडित किया। इलियट के
सूत्राीकरण का वास्तविक मकसद था 19 वीं
सदी के लोगों में साम्प्रदायिकता का विषारोपण करना।
अब यह बात इतिहास हो
चुकी है कि उपनिवेशवादियों ने किस तरह अपने सामराजी हितों को बढ़ावा देने के लिए
हमारे इतिहास का विक्रतिकरण किया, हमारे विद्रोहों को
कम करके आंका, हमारे नायकों को खलनायक के तौर पर प्रस्तुत किया, हमारे स्वतंत्राता
सेनानियों को लूटेरे, आतंकी कहा।
राष्टीय स्वयंसेवक
संघ जैसे संगठन के लिए, जिन्होंने उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष से दूरी
बनाए रखी और जो दरअसल ब्रिटिशों के खिलाफ खड़ी हो रही जनता की व्यापक एकता को
तोड़ने में मुब्तिला था, उसकी तरफ से टिपू को लेकर जो आपत्तियां
उठायी जा रही हैं, इसमें आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं है। दरअसल
टिपू सुलतान को बदनाम करके, जिनकी पूरे भारत के जनमानस में व्यापक
प्रतिष्ठा है, उन्हें यही लगता है कि वह उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष
में अपनी शर्मनाक भूमिका पर चर्चा से बच जाएंगे। मगर क्या उन तमाम दस्तावेजी
सबूतों को भूला जा सकता है जो इस कड़वी सच्चाई को उजागर करते हैं कि हेडगेवार – संघ के संस्थापक
सदस्य और गोलवलकर, जो उसके मुख्य विचारक रहे, जिन्होंने संगठन को
वास्तविक आकार दिया, उन्होंने समय समय पर संघ के सदस्यों को
ब्रिटिश विरोधी संघर्ष में शामिल होने से रोका।
क्या इस बात को कोई
भूल सकता है कि विनायक दामोदर सावरकर, जो संघ परिवार के
प्रातःस्मरणीयों में शुमार हैं, उन्होंने उस वक्त़
बर्तानवी सेना में हिन्दुओं की भर्ती की मुहिम चलायी, जब भारत छोड़ो
आन्दोलन के दिनों में ब्रिटिश सत्ता के सामने जबरदस्त चुनौती पेश हुई थी। उनका
नारा था ‘सेना का हिन्दुकरण
करो,
हिन्दुओं का सैनिकीकरण
करो।’
यह वही वक्त़ था जब
सुभाषचन्द्र बोस की अगुआई में बनी आज़ाद हिन्द फौज ब्रिटिश सेनाओं से लोहा ले रही
थी। इतनाही नहीं यह वही समय था जब हिन्दु महासभा और अन्य हिन्दूवादी संगठन बंगाल
और उत्तरपश्चिम के प्रांतो में मुस्लिम लीग जैसे संगठनों के साथ साझा सरकार चला
रहे थे। संघ-भाजपा के एक और रत्न जनाब श्यामाप्रसाद मुखर्जी, जिन्होंने संघ के
सहयोग से बाद में भारतीय जनसंघ की स्थापना की, उन्होंने उन दिनों
हिन्दू महासभा के सदस्य होने के नाते मुस्लिम लीग के शहीद सुरहावर्दी की अगुआई में
बने मंत्रिमंडल में मंत्राीपद सम्भाला था। स्पष्ट है कि जब उपनिवेशवादी ताकतों से
लड़ने का मौका था, तब केसरिया पलटन के लोग उससे दूर रहे और जब
जनता के जबरदस्त संघर्षों के चलते ब्रिटिश शासन की वैधता पर प्रश्नचिन्ह खड़े हो
रहे थे,
कांग्रेस तथा बाकी
सभी पार्टियों ने देश के विभिन्न सूबों में जारी उनकी सरकारों को इस्तीफे का आदेश
दिया था,
तब उसकी पालकी सजाने
में मुस्लिम लीग तथा हिन्दूवादी संगठन व्यस्त थे।
टिपू सुलतान की
कुर्बानियों और उसकी दूरंदेशी पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करने का यह
सिलसिला एक तरह से हिन्दुत्व ब्रिगेड के सामने एक अन्य तरह के द्वंद को पेश करता
है। उदाहरण के तौर पर हिन्दुत्व की ताकतों में परमप्रिय माने जानेवाले एक अन्य
राजा के बारे में यह विदित है कि उसकी सेनाओं ने सूरत – जो उन दिनों
व्यापारिक शहर था – कमसे कम दो बार लूटा था, तो फिर क्या वे उसे
लूटेरे की श्रेणी में डालने को तैयार हैं ? टिपू को धर्मांध
कहलानेवाले लोग पेशवाओं की अगुआई में मराठों द्वारा श्रंगेरी के शंकराचार्य के मठ
एवम मंदिर पर किए
हमले को लेकर उन्हें किस ढंग से सम्बोधित करने को तैयार हैं ? अगर इतिहास के पन्नों
को पलटेंगे तो हम पाएंगे कि ऐसी घटनाएं कोई अपवाद नहीं थी, उन्हें यह समझ में
आएगा कि हिन्दू राजाओं द्वारा सम्पत्ति की लालच में मंदिरों, मठों पर हमर्ले और की
गयी लूटपाट की घटनाएं कई पन्नों पर बिखरी पड़ी हैं। टिपू सुलतान को विवादित बनाने
में मुब्तिला यह ताकतें आखिर उन पेशवाओं के बारे में क्या सोचती हैं, जो एक किस्म का मनुवादी
शासन का संचालन कर रहे थे जहां दलितों को अपनेे गले में माटी का घड़ा डाल कर चलना
पड़ता था ताकि उनकी थूक भी कहीं रास्ते में गिर कर ब्राहमणों को ‘अछूत’ न बना दे।
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हम
लोग अखण्ड भारत माता और गोडसेजी के मंदिर की आधारशिला 30 जनवरी को रखना चाहते हैं, जिसे सेीतापुर में बनाया जाएगा। हम
लोग हिन्दु राष्ट बनाना चाहते हैं और अखण्ड भारत हमारा लक्ष्य है। हम लोग उनकी
अस्थियां तभी विसर्जित करेंगे जब उनके सपने को पूरा करेंगे।’ हिन्दू महासभा के कार्यकारी अध्यक्ष
कमलेश तिवारी ने हेडलाइन्स टुडे को बताया।
‘टिपू सुलतान से नफरत’ करने की यह बीमारी – जो संघ तथा उसके
आनुषंगिक संगठनानों तथा अन्य समानधर्मा संगठनों में दिखती है और आए दिन उछाल मारती
रहती है,
उसे आज़ाद भारत का
पहला आतंकवादी नाथुराम गोडसे के बढ़ते महिमामंडन की प्रष्ठभूमि में देखना चाहिए।
मालूम हो कि राष्टीय स्वयंसेवक संघ से अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत करनेवाले इस
आतंकी के कारनामे को लेकर और उसके महिमामंडन को लेकर संघ परिवारी संगठनों ने अभी भी
मौन बनाए रखा है। /देखें: http://kafila.org/2013/11/15/first-terrorist-of-independent-india/गर कई बार ऐसे मौके
आते हैं जब यह मौन टूटता है और असलियत सामने आती है।
मिसाल के तौर पर संसद
का शीतकालीन सत्रा जिन दिनों चल रहा था, उन दिनों भाजपा के
सांसद साक्षी महाराज ने गोडसे को राष्टवादी और देशभक्त कह कर हंगामे को जन्म दिया
था। अक्तूबर माह में ही संघ के मल्यालम भाषा में निकलनेवाले मुखपत्रा में संघ के
एक वरिष्ठ नेता ने यह लिखा था कि गोडसे को गांधी को नहीं बल्कि नेहरू को मारना
चैाहिए था। यह लेखक और कोई नहीं बल्कि भाजपा के टिकट से संसद का चुनाव लड़ा शख्स
था और जैसे कि उम्मीद की जा रही थी संघ ने गोडसे के इस प्रगट समर्थक को डांट तक
नहीं लगायी।
अब जबकि गोडसे जैसे
आतंकी के नाम बने मंदिरों को देश के अलग अलग भागों में बनाने कोशिशें चल रही
हैं,
इरादे बन रहे हैं, तब इस बात पर नए
सिरेसे निगाह डालना मौजूं होगा कि गोडसे द्वारा रची गयी साजिश के असली कर्ताधर्ता
सावरकर थे। जीवनलाल कपूर आयोग ने, जिसने गांधी हत्या को
लेकर नए सिरेसे सबूत जुटाए, उसने इस महत्वपूर्ण साजिश को भी उजागर किया
है।
‘गोडसे के महिमामंडन’ का यह ताज़ा सिलसिला और संघ एवं उसके
आनुषंगिक संगठनों की कतार में इसे लेकर छाए मौन को दो ढंग से परिभाषित किया जा
सकता है।
एक, संघ की कोशिश है कि
वह अपने बुनियादी समर्थक तबके को यह सन्देश दे कि भले ही ‘विकास’ के नाम पर चुनाव
भाजपा ने जीता हो, असली मकसद तो हिन्दुराष्ट बनाना है, इसलिए उन्हें विचलित
होने की आवश्यकता नही।
दूसरे, गांधी की हत्या में
गोडसे एवं अन्य हिन्दुत्ववादी संगठनों की भूमिका और उस साजिश में सावरकर जैसों की
संलिप्तता, यह ऐसे मसले हैं, जिन पर मौन रहना ही
संघ परिवार को मुफीद जान पड़ता है। दरअसल उसे इस बात का एहसास है कि एक बार बात
शुरू होगी तो दूरतलक जाएगी और उसे तमाम असुविधाजनक प्रश्नों का सामना करना पड़
सकता है। उसे पता है कि गोडसे-सावरकर जैसों की इस साजिश पर मौन से ही वह गांधी को
समाहित करने की अपनी मुहिम में आगे बढ़ सकता है।
यह अलग बात है कि लोग
धीरे धीरे गोडसे के महिमामंडन के असली निहितार्थों के प्रति जागरूक हो रहे हैं
और वह उनके नापाक मंसूबों को बेपर्द करने के लिए आगे आते दिख रहे हैं। पिछले दिनों
मेरठ में आयोजित रैली जिसमें हजारों लोगों ने भाग लिया, दरअसल आनेवाले
तूफानों का संकेत देती प्रतीत होती है।
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