अब मैं भी हड़ताल करूँगी
रामजीवन
शर्मा 'जीवन'
नित्य बनाना पड़ता खाना
छुटा टहलना, भूला गाना
चूल्हा-चक्की से छुट्टी ले
कुछ दिन कानन में विहरूँगी
अब मैं भी हड़ताल करूँगी
कहती थीं कल मुन्नी मामी
टूट चुकी है प्रथा गुलामी
सब सेवक लड़ते स्वामी से
फिर पति से मैं क्यों न लडूँगी
अब मैं भी हड़ताल करूँगी
खाना-कपड़ा ही तो देते
अन्य बात की सुधि कब लेते
वे नेता हैं, तो मैं भी
साहित्य-क्षेत्र में कूद पडूँगी
अब मैं भी हड़ताल करूँगी
स्वत्वहेतु लड़ने का युग यह
माँग पेश करने का युग यह
मैं भी अपनी माँगें उनके
सम्मुख रखने में न डरूँगी
अब मैं भी हड़ताल करूँगी
औरत-मर्द बराबर जग में
खून एक दोनों की रग में
फिर वे क्यों बाहर टहलेंगे
मैं चूल्हे के निकट मरूँगी ?
अब मैं भी हड़ताल करूँगी
मूर्ख नहीं, इंट्रेंस पास
मैं
फिर क्योंकर होऊँ हताश मैं
स्वयं कमाऊँगी खाऊँगी
जंगल-जंगल घूम चरूँगी
अब मैं भी हड़ताल करूँगी
झंझट ज्यादा मोल न लूँगी
बच्चों को मैं जन्म न दूँगी
युग है यह कंट्रोलों का, फिर
क्यों न बर्थ-कंट्रोल करूँगी
अब मैं भी हड़ताल करूँगी
Manmaafik से साभार
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