संवैधानिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध थे डा. एम. एन. बुच
एल.एस. हरदेनिया
महेश नीलकंठ बुच
ने एक अत्यधिक सभ्रांत घराने में जन्म लिया था। उनके पिता इंडियन सिविल
सर्विस(आईसीएस) के अधिकारी थे। वे सरदार पटेल के काफी निकट थे। उनके पिता की
मृत्यु काफी कम आयु में हो गई थी। पिता की मृत्यु के बाद महेश बुच की मां ने उनका
लालन-पालन किया। उनकी मां एक अद्भुत मां थीं जिन्होंने अपने तीनों पुत्रों को इतना
योग्य बनाया कि वे तीनों ही आई.ए.एस अधिकारी बने। इनमें से उनके छोटे भाई गिरीश की
मृत्यु कई वर्ष पहले हो गई थी।
इंडियन
एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस के निर्माता सरदार पटेल थे। पटेल की सोच थी कि यह सर्विस
देश की एकता को बनाये रखने में मददगार तो होगी ही, इसके माध्यम से देश का संचालन भी सही ढंग से हो
सकेगा।
बुच ने सरदार
पटेल की आकांक्षाओं के अनुकूल काम किया। अधिकारी का कर्तव्य है मंत्री को सही सलाह
देना और सलाह फाइल पर लिखित में देना। यदि मंत्री का आदेश संविधान और नियम कानूनों
के विपरीत है तो नम्रता के साथ उस निर्णय को क्रियान्वयन करने में असमर्थता
दर्शाना। बुच अपने कार्यकाल में बैतूल और उज्जैन के कलेक्टर रहे। कई दशक बीत जाने
के बाद भी इन दोनों जिलों में उनकी लोकप्रियता कायम रही। 1984 में आई.ए.एस. से
त्यागपत्र देने के बाद उन्होंने बैतूल से लोकसभा का चुनाव लड़ा। चुनाव प्रचार के
दौरान मैं लगातार उनके साथ रहा और मैंने उनकी लोकप्रियता को महसूस किया। मुझे याद
है कि बैतूल में उन्होंने अपनी सूट-बूट और टाई वाली ड्रेस को त्याग कर पेंट और आधी
बांह की कमीज को ही अपनी ड्रेस बनायी और कड़कड़ाती ठंड में भी ऊनी कपड़े नहीं
पहने। उनकी यह आदत इतनी पक्की हो गई कि यूरोप के भ्रमण के दौरान भी उन्हें ऊनी
कपड़े पहनने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई। उज्जैन में भी उनकी लोकप्रियता असाधारण
थी। उज्जैन के कलेक्टर की हैसियत से उन्होंने अनेक बार सांप्रदायिक घटनाओं पर पूरी
मुस्तैदी से नियंत्रण किया। उनकी राय थी कि यदि जिला प्रशासन सतर्क और चैकन्ना
रहता है तो सांप्रादायिक दंगा हो ही नहीं सकता।
वे एक लंबे समय तक
भोपाल नगर निगम के प्रशासक रहे। नगर निगम बनने के बावजूद लंबे समय तक चुनाव नहीं
हुए। भोपाल के विधायक शेरे-ए-भोपाल शाकिर अली बार-बार विधानसभा में पूछते थे कि
भोपाल नगर निगम के चुनाव कब होंगे। शाकिर
साहब के इस प्रश्न के जवाब में तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश चन्द सेठी ने
उत्तर दिया ‘‘जब तक बुच भोपाल
नगर निगम के प्रशासक हैं चुनाव नहीं होंगे।’’ साफ है सेठी जी को बुच साहब की क्षमता में अटूट विश्वास था।
भोपाल नगर निगम
के प्रशासक रहने के दौरान की कुछ घटनायें मुझे याद आती हैं। देश में आपातकाल लग
चुका था। आपातकाल के साथ सेंसरशिप भी लग चुकी थी। सेंसरशिप के चलते सरकार के
विरूद्ध कुछ भी लिखना प्रतिबंधित कर दिया गया था। सेंसरशिप के लगते ही बुच साहब ने
संपादकों के नाम एक पत्र लिखा। इस पत्र में उन्होंने संपादकों से कहा कि यद्यपि
सेंसरशिप लागू है परंतु उसके बावजूद आप मेरी कमियों और गलतियों के प्रति मेरा
ध्यान आकर्षित करते रहें। मेरी आलोचना करने में भी हिचकिचाएं नहीं।
आपातकाल की जांच
के लिये शाह कमीशन बना था। उसके सब-कमीशन भी बने थे। ऐसा ही एक सब-कमीशन भोपाल में
नियुक्त किया गया था। मैंने इस कमीशन को बुच साहब का यह पत्र दिया था। कमीशन के जज
रस्तोगी इस पत्र को पढ़कर काफी प्रसन्न हुये थे और उसे एक साहसपूर्ण कार्य बताया
था।
जब बुच भोपाल नगर
निगम के प्रशासक थे उस दरम्यान तत्कालीन मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल ने आक्ट्राय
व्यवस्था को समाप्त कर दिया था। बुच साहब ने पत्रकारवार्ता आयोजित कर शुक्ल जी के
इस निर्णय की आलोचना की। इस पर श्यामाचरण शुक्ल काफी नाराज हुए। उन्होंने बुच को
बुलवाया और अच्छी-खासी डांट लगाई। शुक्ल जी का कहना था कि एक शासकीय अधिकारी होते
हुए आपने कैबीनेट के निर्णय की आलोचना क्यों की? इसके लिये मैं आपको दंडित करूंगा। बुच ने कहा
आपका निर्णय शिरोधार्य है,
पर मेरा पक्ष भी
सुन लीजिये। उन्होंने कहा कि यद्यपि मैं भोपाल नगर निगम का प्रशासक अवश्य हूं
परंतु इस समय मेरी हैसियत मेयर की भी है। मुझे वे सभी अधिकार प्राप्त हैं जो एक
मेयर को होते हैं। मेयर सरकार के निर्णय की आलोचना कर सकता है। इस स्पष्टीकरण से
शुक्ल संतुष्ट नहीं हुए और दंडित करने के अपने निर्णय पर कायम रहे। शुक्ल जी का
निर्णय सुनने के बाद बुच जाने लगे। इस पर शुक्ल ने उन्हें वापस बुलाया और कहा कि
तुम्हें क्या दंड दिया जाए,
यह मैंने तय कर
लिया है। दंड यह है कि मैं आक्ट्राय समाप्त करने के निर्णय का क्रियान्वयन करने का
उत्तरदायित्व तुम्हें सौंपता हूं और इसलिए मैं तुम्हें स्थानीय शासन विभाग का सचिव
बनाता हूं।
अपनी सर्विस के
दौरान बुच को दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) का वाईस-चेयरमैन बनाया गया था। वे
जिस दिन अपने इस पद का चार्ज लेने डीडीए के भवन में गए तो उन्होंने देखा कि एक
सरदार जी डीडीए के सभी खंबों को बार-बार छू रहे थे। बुच साहब ने सरदार जी से पूछा
कि आप ऐसा क्यों कर रहे हैं तो उन्होंने जवाब दिया कि हुजूर इस दफ्तर के इन खम्भों
को छोड़कर सभी लोगों ने मुझसे रिश्वत
मांगी। इसपर बुच साहब ने कुछ नहीं कहा और वहां से अपने कक्ष में चले गए। वहां
पहुंचते ही उन्होंने अपने पीए को भेजकर सरदारजी को अपने कक्ष में बुलवाया। उनकी
समस्या पूछी और तत्काल उसका समाधान करवाया। साथ ही सरदारजी को परेशान करने और उनसे
रिश्वत मांगने वाले कर्मचारियों को दंड दिया। आम आदमी से इस तरह का जीवंत संपर्क
रखना बुच साहब के स्वभाव का अंग था।
सरकारी सेवा से
इस्तीफा देने के बाद उन्होंने एक एनजीओ बनाया जिसने अनेक महत्वपूर्ण काम किए। इस
एनजीओ ने पर्यावरण के क्षेत्र में अनेक उपयोगी काम किए। एक अधिकारी और एक नागरिक
की हैसियत से वे संवैधानिक मूल्यों के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध थे। वे सेवा
निवृत्त अधिकारियों में सर्वाधिक एक्टिव थे। केंद्रीय और राज्य की सरकारों ने उनके
अनुभव का पूरा लाभ लिया। प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने शहरीकरण के संबंध में एक
आयोग बनाया था। बुच को इस आयोग का उपाध्यक्ष कैबीनेट मंत्री के दर्जे के साथ बनाया
था। चाल्र्स कोरिया इस आयोग के अध्यक्ष थे। इस आयोग ने बहुत महत्वपूर्ण शिफारिशें
की थीं। चाल्र्स कोरिया के साथ मिलकर मध्यप्रदेश के नये विधानसभा भवन के निर्माण
में भी बुच साहब ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
बुच को
मध्यप्रदेश सरकार ने राज्य वित्त आयोग का उपाध्यक्ष बनाया था। इस आयोग को स्थानीय
संस्थाओं की वित्तीय समस्याओं के बारे में सुझाव देने का उत्तरदायित्व सौंपा गया
था। स्वर्गीय शीतला सहाय इसके अध्यक्ष थे। इसके अतिरिक्त सरकार विभिन्न मामलों के
बारे में समय-समय पर उनकी सलाह लेती रहती थी।
एक लेखक व चिंतक
के रूप में पूरे देश में उनकी प्रतिष्ठा थी। वे अंग्रेजी और हिंदी, दोनों भाषाओं में
लेख लिखते थे। विश्व, राष्ट्र, प्रदेश और नगर से
संबंधित विषयों पर उनकी त्वरित टिप्पणियां अत्यधिक प्रभावशाली होती थीं। पत्र लिखने
की परंपरा पर लगभग पूरी तरह से समाप्त हो चुकी है। परंतु पत्र लिखने की परंपरा को
उन्होंने जीवित रखा था। मनमोहन सिंह को उनने सैंकड़ों पत्र लिखे थे। मनमोहन सिंह
जी उनके पत्रों का उत्तर देते थे। वे प्रदेश के और अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों
को भी पत्र लिखते थे। धर्मनिरपेक्षता पर उन्हें असाधारण आस्था थी।
वे असाधारण रूप
से स्वस्थ्य व्यक्ति थे। कम से कम दिन के 2 से 3 घंटे वे व्यायाम-जिसमें घूमना भी शामिल था-करते थे। शाम को
घूमने के मामले में वे दृढ़ प्रतिज्ञ थे। मैं जब भी कोई कार्यक्रम आयोजित करता था
तो वे पहले ही कह देते थे कि शाम को कार्यक्रम नहीं रखना वह मेरे घूमने का समय है।
इस पर मैं उनसे मजाक में कहता था कि यदि घूमने के समय आपको लेने यमराज आ जाएं तो
क्या करेंगे। तो वे कहते थे मैं उनसे कहूंगा कि चलो पहले घूम लें फिर चलता हूं।
मैं उन
सौभाग्यशालियों में से हूं जिनकी बुच साहब से लगभग प्रतिदिन टेलीफोन पर बातचीत
होती थी। ऐसा कोई विषय नहीं था जिसके बारे में वे चर्चा नहीं करते थे। प्रायः वे
ही टेलीफोन करते थे। मैं उनके फोन को मार्निंग अलार्म कहता था। 5 जून की सुबह उनका
अलार्म नहीं आया। दोपहर को मालूम हुआ कि बुच साहब बीमार हैं और अस्पताल में भर्ती
हैं। हम सबको पूरी उम्मीद थी कि बुच साहब शीघ्र ही अस्पताल से डिस्चार्ज होकर आ
जाएंगे और पुनः पूरी सक्रियता से अपने कार्यों में जुट जाएंगे। परंतु विधि का
विधान कुछ और ही था और 6 जून की शाम को, लगभग उसी समय जब
वे घूमने जाते थे, उन्होंने अंतिम
सांस ली और बिना आनाकानी किए, हम सबको छोड़कर हमेशा हमेशा के लिए यमराज के साथ चले गए।
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