प्रकृति के लिए महिलाएं
उपासना बेहार
महिलाओं
का शुरू से ही प्रकृति से निकट्तम का संबंध रहा है। एक तरफ वो प्रकृति की
उत्पादनकर्ता] संग्रहकर्ता तो दूसरी
तरफ प्रबंधक] संरक्षक की
भूमिका निभाती रही हैं। महिलाओं ने इसकी रक्षा के लिए कई आदोंलन चलाये और अपने
प्राण देने से भी नही हिचकचायी। महिलाओं के
पर्यावरण-संरक्षण में अतुलनीय योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता है. ये
आन्दोलनकारी महिलाएं एक
बात अच्छे से जानती थी कि स्वच्छ पर्यावरण के
बिना जीवन नहीं हैं और पर्यावरण को बचाकर ही जीवन को सुरक्षित रखा जा सकता है. अगर
हम पर्यावरण के साथ छेड़छाड़
करेगे तो उसका खामयाजा आने वाली कई पीढीयों को भी भुगतना पड़ेगा.
देश
में हुए कई पर्यावरण-संरक्षण आंदोलनों खासकर वनों
के संरक्षण में महिलाओं ने महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई है. इन
आन्दोलनों पर अगर नजर डाले तो अमृता
देवी के नेतृत्त्व में किये गए आन्दोलन की तस्वीर सबसे पहले आती है, वर्ष 1730 में
जोधपुर के महाराजा को महल बनाने के लिए लकड़ी की जरुरत आई तो राजा के आदमी खिजड़ी
गांव में पेड़ों को काटने पहुचें तब उस गांव की अमृता देवी के नेतृत्त्व में 84 गाँव के
लोगों ने पेड़ों को काटने का विरोध किया, परंतु
जब वे जबरदस्ती पेड़ों को काटने लगे तो अमृता देवी पेड़ से चिपक गयी और कहा कि पेड़
काटने से पहले उसे काटना होगा तब राजा के आदमियों ने अमृता देवी को पेड़ के साथ काट
दिया, यहाँ से मूल रूप से
चिपको आन्दोलन की शुरुवात हुई थी. अमृता
देवी के इस बलिदान से प्रेरित हो कर गाँव के
महिला और पुरुष पेड़ से चिपक गए. इस
आन्दोलन ने बहुत विकराल रूप ले लिया और 363 लोग
विरोध के दौरान मारे गए, तब राजा ने पेड़ों को
काटने से मना किया.
इसी
आंदोलन ने आजादी के बाद हुए चिपको आंदोलन को प्रेरित किया और दिशा दिखाई, सरकार को 26 मार्च 1974 को चमोली जिले के नीती घाटी के जंगलों को काटने का कार्य शुरू
करना था. इसका रैणी गांववासियों ने जोरदार विरोध किया जिससे
डर कर ठेकेदारों ने रात में पेड़ काटने
की योजना बनायीं. लेकिन
गौरा देवी ने गाँव की महिलाओं को एकत्रित किया
और कहना कि 'जंगल
हमारा मायका है हम इसे उजाड़ने नहीं देंगे।' सभी
महिलाएं जंगल में
पेड़ों से चिपक गयी और कहा कुल्हाड़ी पहले हम पर चलानी
पड़ेगी फिर इन पेड़ों पर,पूरी रात निर्भय होकर
सभी पेड़ों से चिपकी रही, ठेकेदारों को
पुनः खाली हाथ जाना पड़ा, यह आन्दोलन पूरे उत्तराखंड में फ़ैल गया.
इसी प्रकार टिहरी जिले के हेंवल घाटी क्षेत्र के
अदवाणी गांव की बचनी देवी भी ऐसी महिला हैं जिन्होंने चिपको आंदोलन में महत्वपूर्ण
भूमिका निभायी। 30 मई 1977 को अदवाणी गांव में
वन निगम के ठेकेदार पेड़ों को काटने लगे तो बचनी देवी गांववासियों को साथ लेकर पेड़
बचाओ आंदोलन में कूद पड़ी और पेड़ों से चिपककर ठेकेदारों के हथियार छीन लिए और
उन्हें वहां से भगा दिया.यह संघर्ष तक़रीबन एक साल चला और आन्दोलन के कारण पेड़ों की
कटान पर वन विभाग कोरोकलगानीपड़ी।
दक्षिण
में भी चिपको आन्दोलन की तर्ज पर ‘अप्पिको’ आंदोलन उभरा जो 1983 में कर्नाटक के उत्तर
कन्नड़ क्षेत्र से शुरू हुआ, सलकानी तथा निकट के गांवों के जंगलों को
वन विभाग के आदेश से काटा जा रहा था तब इन गांवों की महिलाओं ने पेड़ों को गले से
लगा लिया,
यह
आन्दोलन लगातार 38 दिनों तक चला, सरकार
को मजबूर हो कर पेड़ों की कटाई रुकवाने का आदेश देना पड़ा. इसी तरह से बेनगांव, हरसी
गांव के हजारों महिलाओं और पुरुषों ने पेड़ों के काटे जाने का विरोध किया और
पेड़ों को बचाने के लिए उन्हें गले से लगा लिया. निदगोड में 300 लोगों ने इक्कठा होकर
पेड़ों को गिराये जाने की प्रक्रिया को रोककर सफलता प्राप्त की। उत्तराखण्ड में महिलाओं ने "रक्षा सूत्र" आंदोलन की
शुरुवात की जिसमे उन्होंने पेड़ों पर "रक्षा धागा" बांधते हुए उनकी रक्षा का संकल्प लिया। नर्मदा बचाओ आन्दोलन, साइलेंट
घाटी आंदोलन में महिलाओं ने सक्रीय भागीदारी की.
भारत में आजादी के पहले से वन नीति है, भारत की पहली
राष्ट्रीय वन नीति वर्ष 1894 में बनी थी. स्वतंत्र
भारत की पहली राष्ट्रीय वन नीति 1952 में, वन
संरक्षण अधिनियम 1980 में
बने इन नीतियों
में महिलाओं का
कही जिक्र नहीं था, वनों
को लेकर महिला एक उत्पादनकर्ता, संग्रहणकर्ता, संरक्षक और प्रबंधक की भूमिका निभाती
हैं इस कारण प्रकृति से
खिलवाड़ का दुष्प्रभाव सबसे ज्यादा महिलाओं पर पड़ता है.
इन
सब आन्दोलनों के दबाव के कारण 1988
में जो राष्ट्रीय वन नीति बनी उसमें लोगों को स्थान दिया गया. इसमें महिलाओं की
सहभागिता को महत्व दिया गया और उनकी वनों पर निर्भरता, वनों
को लेकर ज्ञान, वन प्रबंधन में उनकी सक्रीय भागीदारी को
समझा गया और यह सोच बनी कि अगर वन प्रबंधन में महिलाओं की
भी भागीदारी होगी तो वन नीति के गोल को आसानी से प्राप्त किया जा सकता है इसी सोच
के चलते संयुक्त वन प्रबंधन प्रोग्राम के अंतर्गत हर गावों में वन समिति बनायीं
गयी और उस समिति में महिलाओं को
भी शामिल किया गया. 1995 में राष्ट्रीय वन नीति में बदलाव करते हुए समितियों में महिलाओं के
लिए 33 प्रतिशत आरक्षण कर दिया गया. परंतु देखने में आया है कि ज्यादातर महिलाओं को
संयुक्त वन प्रबंधन प्रोग्राम और वन समिति के बारे में जानकारी नहीं है, साथ
ही पुरुषों के वर्चस्व वाले इस समाज में महिलाओं को
कहने बोलने का स्पेस कम ही मिल पता है, लेकिन
देखना ये है कि महिलाये इन चुनौतियों से कैसे पार पाती हैं और वनों के स्थायित्व
विकास के लिए क्या और किस तरीके के कदम उठाती हैं.
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