सावित्रीबाई फुले जिन्होंने भारतीय स्त्रियों को शिक्षा की राह दिखाई
उपासना बेहार
बुद्धि बिना हम पशु हो जावें,
अपना वक्त न करो बर्बाद,
जाओ, जाकर शिक्षा पाओ......”
सावित्रीबाई फुले की कविता का अंश
अगर सावित्रीबाई फुले को
प्रथम महिला शिक्षिका, प्रथम शिक्षाविद् और महिलाओं की मुक्तिदाता कहें तो कोई भी
अतिशयोक्ति नही होगी, वो कवयित्री, अध्यापिका, समाजसेविका थीं. सावित्रीबाई फुले बाधाओं के बावजूद स्त्रियों को शिक्षा दिलाने के अपने संघर्ष
में बिना धैर्य खोये और आत्मविश्वास के साथ डटी रहीं. सावित्रीबाई फुले ने अपने
पति ज्योतिबा के साथ मिलकर उन्नीसवीं सदी में स्त्रियों के अधिकारों, शिक्षा छुआछुत, सतीप्रथा, बालविवाह
तथा विधवाविवाह जैसी कुरीतियां और समाज में व्याप्त अंधविश्वास, रूढ़ियों
के विरुद्ध संघर्ष किया. ज्योतिबा उनके मार्गदर्शन,संरक्षक, गुरु, प्रेरणा स्रोत तो थे
ही पर जब तक वो जीवित रहे सावित्रीबाई का होसला बढ़ाते रहे और किसी की
परवाह ना करते हुए आगे बढने की प्रेरणा देते रहे.
सावित्रीबाई का
जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगांव
नामक छोटे से गॉव में हुआ था, 9 साल की अल्पआयु में उनकी शादी पूना के
ज्योतिबा फुले के साथ किया गया. विवाह के समय सावित्री बाई फुले की कोई स्कूली
शिक्षा नहीं हुई थी वहीं ज्योतिबा फुले तीसरी कक्षा तक शिक्षा प्राप्त किये थे। सावित्री जब छोटी थी तब एक बार अंग्रेजी की एक किताब के पन्ने पलट रही थी, तभी उनके पिताजी ने यह देख लिया और तुरंत किताब को छीनकर खिड़की से
बाहर फेंक दिया, क्योंकि उस समय शिक्षा का हक़ केवल उच्च जाति के पुरुषों को ही था,
दलित और महिलाओं को शिक्षा ग्रहण करना पाप था. थोड़ी देर में सावित्रीबाई उस किताब
को चुपचाप वापस ले आई और उस दिन उन्होंने निश्चय किया कि वह एक न एक दिन पढ़ना
ज़रूर सीखेगी और यह सपना पूरा हुआ ज्योतिबा फुले
से शादी करने के बाद.
सावित्रीबाई फुले एक दलित परिवार से थी, जब ज्योतिबा फुले
ने उनसे शादी की तो ऊँची जाति के लोगों ने विवाह संस्कार के समय उनका अपमान किया
तब ज्योतिबा फुले
ने दलित वर्ग को गरिमा दिलाने का प्रण लिया. वो
मानते थे कि दलित और महिलाओं की आत्मनिर्भरता, शोषण से मुक्ति और विकास के लिए सबसे जरुरी है शिक्षा और इसकी शुरुआत उन्होंने सावित्रीबाई फुले को शिक्षित करने से की. ज्योतिबा को खाना देने जब सावित्रीबाई खेत में आती थीं, उस दौरान वे सावित्रीबाई
को पढ़ाते थे,लेकिन इसकी भनक उनके पिता को लग गयी और उन्होंने रूढ़िवादीता और समाज
के डर से ज्योतिबा को घर से निकाल दिया फिर भी ज्योतिबा
ने सावित्रीबाई को पढ़ाना जारी रखा और उनका दाखिला एक
प्रशिक्षण विद्यालय में कराया.समाज द्वारा इसका बहुत विरोध होने के बावजूद सावित्रीबाई
ने अपना अध्ययन पूरा किया.
अध्ययन पूरा
करने के बाद सावित्री बाई ने सोचा कि प्राप्त शिक्षा का उपयोग अन्य महिलाओं को भी
शिक्षित करने में किया जाना चाहिए. लेकिन यह एक बहुत बड़ी चुनौती थी क्योंकि उस
समय समाज लड़कियों को पढ़ाने के खिलाफ था. फिर भी उन्होंने ज्योतिबा
के साथ मिल कर 1848 में पुणे में बालिका विद्यालय की स्थापना की, जिसमें कुल नौ लडकियों ने दाखिला लिया और सावित्रीबाई
फुले इस स्कूल की प्रधानाध्यापिका
बनीं. कुछ ही दिनों में उनके विद्यालय में
दबी-पिछड़ी जातियों के बच्चे,
विशेषकर लड़कियाँ की संख्या बढ़ती गयी लेकिन सावित्रीबाई का रोज घर से विद्यालय जाने का सफ़र सबसे कष्टदायक होता था, जब वो
घर से निकलती तो लोग उन्हें अभद्र गालियाँ,जान
से मारने की लगातार धमकियां देते, उनके ऊपर सड़े टमाटर, अंडे, कचरा, गोबर और पत्थर फेंकते थे, जिससे विद्यालय पहुँचते पहुँचते
उनके कपडे और चेहरा गन्दा हो जाया करते थे. सावित्रीबाई इसे लेकर बहुत परेशांन हो गयी
थीं, तब
ज्योतिबा ने इस समस्या का हल निकला और उन्हें 2 साड़ियाँ दी, मोटी साड़ी घर
से विद्यालय जाते और वापस आते समय के लिए थी वहीं दूसरी साड़ी को विद्यालय में
पहुँच कर पहनना होता था. एक घटना के बाद इन अत्याचारों का अंत हो गया, घटना यू हैं कि एक बदमाश
रोज सावित्रीबाई का पीछा करता था और उनके लिए रस्ते भर अभद्र भाषा का प्रयोग करता
था, एक दिन वह अचानक सावित्रीबाई का रास्ता रोककर खडा हो गया और उन पर हमला करने
की कोशिश की, सावित्रीबाई फुले ने बहादुरी से उसका मुकाबला किया और उसे दो-तीन
थप्पड़ जड़ दिए। उसके बाद से किसी ने भी उनके
साथ दुर्व्यवहार करने की कोशिश नही की.
1 जनवरी 1848 से लेकर 15 मार्च 1852 के
दौरान सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले ने बिना किसी आर्थिक मदद और सहारे के
लड़कियों के लिए 18 विद्यालय खोले. उस दौर में ऐसा सामाजिक
क्रांतिकारी की पहल पहले किसी ने नही की थी. इन शिक्षा केन्द्र में से एक 1849 में पूना में ही उस्मान शेख के घर पर मुस्लिम स्त्रियों व बच्चों के लिए खोला था। सावित्रीबाई अपने विद्यार्थियों से कहा करती थी कि “कड़ी मेहनत करो, अच्छे
से पढाई करो और अच्छा काम करो”. ब्रिटिश सरकार के शिक्षा विभाग ने शिक्षा के
क्षेत्र में सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले के योगदान को देखते हुए 16 नवम्बर 1852 को उन्हें शॉल भेंटकर सम्मानित किया.
सावित्रीबाई फुले ने केवल शिक्षा के क्षेत्र में ही नही बल्कि स्त्री की दशा सुधारने के लिए भी महत्वपूर्ण
काम किया. उन्होनें 1852 में ”महिला मंडल“ का गठन किया और भारतीय महिला आंदोलन की प्रथम अगुआ भी बनीं। सावित्रीबाई
फुले और
ज्योतिबा
ने बाल-विधवा और बाल-हत्या पर भी काम किया था, उन्होंने 1853 में
‘बाल-हत्या प्रतिबंधक-गृह’ की स्थापना की, जहाँ विधवाएँ अपने बच्चों को
जन्म दे सकती थी और यदि वो उन्हें अपने
साथ रखने में असमर्थ हैं तो बच्चों
को इस गृह में
रख कर जा सकती थीं। इस गृह की पूरी
देखभाल और बच्चों का पालन पोषण सावित्रीबाई फुले करती थीं। 1855 में मजदूरों को शिक्षित करने के उद्देश्य से
फुले दंपत्ति ने ‘रात्रि पाठशाला’
खोली थी. उस समय विधवाओं के सिर को जबरदस्ती मुंडवा दिया जाता था, सावित्रीबाई
फुले और
ज्योतिबा
ने इस अत्याचार का विरोध किया
और नाइयों के साथ काम कर उन्हें तैयार किया कि वो विधवाओं के सिर का मुंडन करने से इंकार कर दे, इसी के चलते 1860 में नाइयों से हड़ताल कर
दी कि वे किसी भी विधवा का सर मुंडन नही करेगें, ये हड़ताल सफल रही. सावित्रीबाई
फुले और ज्योतिबा ने अपने घर के भीतर पानी के भंडार
को दलित समुदाय के लिए खोल दिया. सावित्रीबाई फुले के भाई ने इन सब के लिए ज्योतिबा की घोर
निंदा की, इस पर सावित्रीबाई
ने उन्हें पत्र लिख कर अपने पति के कार्यो पर गर्व किया और उन्हें महान कहा.
सावित्रीबाई
फुले और ज्योतिबा ने 24
सितम्बर,1873 को सत्यशोधक समाज की स्थापना की.सावित्रीबाई फुले
ने विधवा विवाह की परंपरा शुरू की और सत्यशोधक समाज द्वारा
पहला विधवा पुनर्विवाह 25 दिसम्बर
1873 को संपन्न किया गया था और यह शादी बाजूबाई
निम्बंकर की पुत्री राधा और सीताराम जबाजी आल्हट की शादी थी. 1876 व 1879 में पूना में अकाल
पड़ा था तब ‘सत्यशोधक समाज‘
ने आश्रम में रहने वाले 2000 बच्चों और गरीब जरूरतमंद लोगों के लिये मुफ्त भोजन की व्यवस्था की।
28 नवम्बर 1890 को बीमारी के के
चलते ज्योतिबा की मृत्यु हो गयी, ज्योतिबा के निधन के बाद सत्यशोधक समाज की जिम्मेदारी सावित्रीबाई
फुले ने अपने जीवन के अंत तक किया.1893 में सास्वाड़
में आयोजित सत्यशोधक सम्मेलन की अध्यक्षता सावित्रीबाई फुले ने ही की थी वहां
उन्होंने ऐसा भाषण दिया कि दलितों, महिलाओं
और पिछड़े-दबे लोगों
में आत्म-सम्मान की भावना का संचार हुआ.1897
में पुणे में प्लेग की भयंकर महामारी फ़ैल गयी, प्रतिदिन सैकड़ों लोगों की मौत हो
रही थी. उस समय सावित्रीबाई ने अपने दत्तक पुत्र यशवंत की मदद से एक हॉस्पिटल खोला.
वे बीमार लोगों के पास जाती और खुद ही उनको हॉस्पिटल तक लेकर आतीं थीं. हालांकि वो
जानती थीं कि ये एक संक्रामक बीमारी है फिर भी उन्होंने बीमार लोगों की सेवा और देख-भाल करना जारी रखा. किसी ने उन्हें प्लेग से ग्रसित एक
बच्चे के बारे में बताया, वो उस गंभीर बीमार बच्चे को पीठ पर
लादकर हॉस्पिटल लेकर गयी. इस प्रक्रिया में यह महामारी उनको भी लग गयी और 10 मार्च 1897 को सावित्रीबाई फुले की इस बीमारी के चलते
निधन हो गया.
सावित्रीबाई प्रतिभाशाली कवियित्री भी थीं। उन्हें आधुनिक मराठी काव्य की अग्रदूत भी माना जाता है। वे अपनी कविताओं और लेखों में सामाजिक चेतना की हमेशा बात
करती थीं. इनकी कुछ प्रमुख रचना इस प्रकार हैं -1854 में पहला कविता-संग्रह 'काव्य
फुले', 1882 में पुस्तक 'बावनकशी सुबोध
रत्नाकर',1892 ‘मातोश्री
के भाषण’,ज्योतिबा फुले की मृत्यु के बाद 1891 में कविता-संग्रह ‘बावनकाशी सुबोध रत्नाकर’ आदि.
सावित्रीबाई फुले ने
अपना
पूरा जीवन समाज में वंचित तबके खासकर स्त्री और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष
में बीता दिया।
लेकिन
सावित्रीबाई
के काम और संघर्ष सामने
नही आ पाते हैं. उन्हें ज्योतिबा के सहयोगी के तौर पर ज्यादा देखा जाता है. जबकि
इनका अपना एक स्वतंत्रत अस्तित्व था, उन्होंने ज्योतिबा फुले के सपने को आगे बढ़ाने में जी जान लगा दिया सावित्री बाई
फुले और ज्योतिबा फुले दोनों सही मायनों में एक
दूसरे के पूरक थे.
बहुत जरूरी आलेख है यह! इतिहास की चौंधियायी आँखें कुछ खुलेंगी जरूर!
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