महिलाओं की सुरक्षा की गारंटी चाहिए

-- अंजलि सिन्हा



दिल्ली गैंगरेप की घटना के विरोध में लोगों का गुस्सा चौतरफा देखा जा रहा है। न केवल सत्ता के शिखर तक उसकी आग पहुंची है, बल्कि देश के अलग-अलग हिस्सों में भी लोग, जिनमें स्त्रियां और पुरुष, दोनों शामिल हैं, प्रदर्शन कर रहे हैं। यह सरगर्मी गली-मुहल्ले में भी देखी जा रही है, जहां लोग लड़कियों-स्त्रियों की सुरक्षा के स्थायी उपाय खोजने की मांग कर रहे हैं।

हमारे समाज में अकसर बलात्कार की घटना के बाद पीड़िता को ही दोषी ठहराने की मानसिकता का बोलबाला है। लोग पीड़िता के पहनावे पर सवाल उठाते हैं या फिर यह बताने लगते हैं कि लड़कियों को क्या पहनना चाहिए और क्या नहीं। इसके विपरीत, इस बार यह एक सकारात्मक बात दिख रही है कि लोग खुद कह रहे हैं कि हम अपनी लड़कियों को घर में कैद नहीं कर सकते और न ही हर सार्वजनिक स्थल पर या लड़की जहां जाए, वहां उसे परिवार की निगरानी में रख सकते हैं।

आखिर, लड़की होने का खामियाजा लड़कियां कब तक भुगतती रहेंगी, इसलिए सुरक्षित समाज तो अब चाहिए ही है। इस गुस्से का फूटना एकदम जायज है और इसे और व्यापक बनाया जाना चाहिए। खास बात यह है कि यह लड़ाई बिना नेता के लड़ी जा रही है। यह अन्ना हजारे या रामदेव का आंदोलन नहीं है। जनता अपनी लड़ाई स्वयं लड़ रही है। जनता की लड़ाई रणनीति बनाकर किए गए आंदोलन के मुकाबले ज्यादा कारगार होती ही है। यह बात अलग है कि सरकार जनता की सुन नहीं रही। फिर भी, इसको आगे बढ़ाना होगा। इसे तब तक जारी रखना होगा, जब तक सुरक्षित समाज गढ़ा नहीं जाता।

आईसीयू में जिंदगी और मौत से जूझ रही पीड़िता से मिलने के लिए अस्पताल प्रशासन ने सिर्फ दो मिनट के लिए अंदर जाने की इजाजत दी थी। होश में आते ही पीड़िता ने पूछा-उन्हें पकड़ लिया क्या?’ दूसरी बात उसने एक चिट पर लिखकर मां से कही-मां मैं जीना चाहती हूं।’ लगातार पांचवें ऑपरेशन के बाद भी लड़की का पाचनतंत्र काम नहीं कर रहा है व अंदरूनी कई अंग बुरी तरह जख्मी हैं। लड़की के हौसले को सलाम करना पड़ेगा।

मगर, गौरतलब यह भी है कि देशव्यापी आक्रोश के बावजूद लड़कियां स्वयं को सुरक्षित मानने की गलती नहीं कर सकतीं। इस घटना के दो दिन बाद ही गाजियाबाद के विजयनगर डिवाइडर पर एक लड़की गंभीर स्थिति में सुबह पांच बजे पुलिस को मिली। लड़की को किसी वाहन से वहां फेंका गया था। उसकी हालत गंभीर बनी हुई है। आशंका जताई जा रही है कि उसके साथ बलात्कार हुआ है, उसके शरीर के कई हिस्सों पर चोटों के निशान हैं तथा उसे कोई जहरीला पदार्थ भी पिलाया गया है।

उधर, इसी समय सिलीगुढ़ी के बागडोरा थाना क्षेत्र में एक 18 वर्षीय लड़की को बलात्कार के बाद बलात्कारियों ने आग के हवाले कर दिया। बुरी तरह जली लड़की अस्पताल में जिंदगी के लिए जूझ रही है, जिसके बचने की संभावना कम बताई जा रही है। इसी दौरान मुगलसराय (उत्तरप्रदेश) में भी एक 16 वर्षीय लड़की को उसके मामा द्वारा हवस का शिकार बनाने या सुदूर दक्षिण के बेंगलुरू में एक जनरल स्टोर के मालिक द्वारा 14 वर्षीय बच्ची के साथ किए गए अत्याचार की खबर आई है। मध्यप्रदेश से तो रोज दो-तीन खबरें आ ही रही हैं।

इन खबरों को पढ़कर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि वातावरण कितना दहशत भरा होता जा रहा है। लड़कियां या तो घर से बाहर निकलने में डरें और अगर वे निकल जाएं, तो माता-पिता अपनी बेटी की चिंता में परेशान रहें। यहां सवाल यह उठता है कि अपराधी तत्व इतने बर्बर कैसे हो गए हैं कि वे किसी लड़की-महिला को इंसान तक नहीं मानते? वे उसके साथ वैसा व्यवहार करने में भी नहीं झिझकते, जैसा व्यवहार कोई सभ्य व्यक्ति पशु के साथ भी नहीं कर सकता।

सवाल सरकार से भी है कि आखिर घटना घट जाने के बाद ही उसे सख्ती क्यों याद आती है? वह ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं कर पाती है, ताकि यह दरिंदगी हो ही न पाए? अभी तक कानूनों को सख्त बनाकर उन पर अमल का इंतजाम क्यों नहीं हुआ और फास्ट ट्रैक कोर्ट को स्वीकृति मिलने के बाद भी वह क्यों नहीं बन सके?

अब जाकर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर अनुरोध किया कि वे दिल्ली में फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने की प्रक्रिया तेज करें। गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने भी संसद में कहा कि वे सुनिश्चित करेंगे कि इस मामले की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट में हो। यानी, ऐसे सभी मामलों की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट में नहीं होगी, सिर्फ इसी मामले की सुनवाई होगी, जबकि देश यह चाहता है कि बलात्कार के सभी मामलों की सुनवाई फास्ट ट्रैक अदालतों में ही हो।

सरकार यदि दृढ़-इच्छाशक्ति दिखाए, तो जल्द सुनवाई और अपराधियों को सजा कैसे संभव है, इसका उदाहरण राजस्थान में मिलता है, जहां एक विदेशी पर्यटक के साथ हुए दुराचार के मामले में घटना के महज 15 दिन के अंदर सारी सुनवाई पूरी करके आरोपियों को सजा सुना दी गई थी। ऐसी त्वरित कार्रवाई अन्य सभी मामलों में हो, ताकि पीड़िताओं का न्याय-व्यवस्था पर भरोसा बन सके और वह मामले को भूलकर अपनी नई जिंदगी शुरू कर सके। अभी तो यही होता है कि मामला अदालतों में पंद्रह-बीस साल तक लंबित रहता है और तब तक पीड़िता की जिंदगी का वह दुखद अध्याय खुला ही रहता है।

यह पूछा जाना भी जरूरी है कि थानों का जेंडर बैलेंस क्यों नहीं ठीक किया गया, ताकि वहां का वातावरण महिलानुकूल (वूमेन फ्रेंडली) बन सके और लड़कियां अपनी शिकायतें लेकर वहां आसानी से जा सकें? यदि दिल्ली की पुलिस में महिलाओं का प्रतिशत पांच से आगे नहीं बढ़ सका है, तो हम बाकी राज्यों की कल्पना ही कर सकते हैं। सभी सार्वजनिक दायरों में अगर महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा मिलता, तो बड़ी संख्या में उनकी उपस्थिति पुरुष वर्चस्व वाले वातावरण को बदलती, साथ ही अपराधी तत्वों पर अंकुश का माहौल बनता।

इस घटना के बाद मीडिया में यह समाचार भी आया है कि देश के विभिन्न महानगरों की 92 फीसदी महिलाएं स्वयं को असुरक्षित महसूस करती हैं। वाणिज्य एवं उद्योग मंडल (एसोचैम) के सामाजिक विकास संस्थान की ओर से जारी रिपोर्ट से जुड़ा यह सर्वेक्षण दिल्ली, मुंबई, पुणो, कोलकाता, बेंगलुरू, हैदराबाद, अहमदाबाद, देहरादून, भोपाल सहित अनेक शहरों में किया गया।

रिपोर्ट में बताया गया है कि हर 40 मिनट में एक महिला का अपहरण होता है। शहरों की सड़कों पर हर घंटे एक महिला छेड़खानी की शिकार होती है। देश में हर 24-25 मिनट में एक बलात्कार की घटना होती है। प्रश्न है कि स्त्रियों को इस असुरक्षा से मुक्ति कैसे और कब मिलेगी? बेशक, शासन-प्रशासन दोषी है, मगर समाज भी अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता। आखिर, बलात्कारी किसी पेड़ से नहीं टपकते। इन दरिंदों ने कहां से सीखा कि मौज मस्ती के लिए किसी के साथ जोर जबर्दस्ती की जा सकती है, जैसे कि राजधानी की घटना के आरोपियों ने पुलिस के सामने स्वीकार किया कि वे मस्ती के मूड में थे।

उन्होंने क्यों नहीं दूसरों का सम्मान करना सीखा और उनकी नजरों में लड़कियां उपभोग की वस्तु कैसे बन गईं? कानून, थाने या अदालत की भूमिका तो अपराध की घटना घटने के बाद बनती है, पर उससे पहले ऐसी मानसिकता तैयार करने का जिम्मेदार तो हमारा पूरा समाज है। जब कोई एक गुट या समूह एक साथ किसी आपराधिक घटना में शामिल होता है, तब उनमें से कोई एक भी प्रतिरोध क्यों नहीं करता कि हमें ऐसा नहीं करना चाहिए?


जाहिर है कि परिवार में लड़कों को महिलाओं का सम्मान करना नहीं सिखाया जा रहा है। यानी, हम अपने समाज को क्लीनचिट नहीं दे सकते। दिल्ली की घटना के बाद वह आक्रोशित है। अब उसे दो काम करने होंगे। एक यही कि वह सरकार को फास्ट ट्रैक अदालतें बनाने के लिए मजबूर करे ही, तो दूसरा यह कि लड़कों को लड़कियों का सम्मान करना सिखाया जाए। जागरूक समाज यह दोनों काम कर सकता है, इसमें कोई शक नहीं है।

courtesy-http://www.rajexpress.in

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