सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत ज्योतिराव गोविंदराव फुले
उपासना बेहार
11 अप्रेल 1827 को महाराष्ट्र के पुणे
में माली जाति में ज्योतिराव गोविंदराव फुले का जन्म हुआ था. ज्योतिबा फुले
के पिता का नाम गोविन्द राव तथा माता का नाम विमला बाई था। उस दोर में दलित और अन्य
कमतर जातियों को मंदिर, स्कूल, कुएं इत्यादि जगहों में जाने पर रोक थी. उस समय
महिलाओं, दलितों और छोटी जातियों का शोषण चरम पर था, उन्हें इन्सान की श्रेणी में
गिना नहीं जाता था. इन वर्गों को शिक्षा का अधिकार नही था.ऐसे माहोल में फुले ने विभिन्न रुकावटों का सामना करते हुए शिक्षा प्राप्त की.
तेरह साल की उम्र में उनका विवाह नो वर्षीय सावित्री बाई से हुआ। ज्योतिबा पढने के शौकिन थे, वे कोर्स
के किताब के अलावा अन्य किताबें भी पढ़ते थे. थामसपेन की किताब 'राइट्स ऑफ मेन' एवं 'दी एज ऑफ रीजन' ने उनको बहुत गहरे तक प्रभावित किया.
शिक्षा ग्रहण के दोरान ही वे
सोचते थे कि उनके समाज की स्थिति ऐसी क्यों है? क्यों उनके साथ भेदभाव होता है? और
सबसे बड़ी बात कि लोग इनके खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठाते हैं? जैसे जैसे वो शिक्षा
प्राप्त करते गए, इसके पीछे के कारणों को समझने लगे और वो कारण था इस वर्ग में ज्ञान
की कमी. ज्ञान से व्यक्ति अपने प्रति हो रहे भेदभाव, शोषण, अधिकारों के हनन को
समझता है और इस पर सवाल खड़ा करता है, और अपनी स्थिति को नियति-पूर्वजन्म का पाप
मान कर चुप नहीं रहता और इसे दूर करने के लिए लड़ता है. इसलिए इन वर्गों को षडयंत्र
के तहत शिक्षा से वंचित रखा गया और धर्म में तरह तरह के रीतिरिवाज, परम्पराओं को शामिल
कर इसका आधार बनाया गया.
इसलिए ज्योतिबा
ने दलितों के साथ साथ महिलाओं, वंचित समुदायों को शिक्षित करने में अपना पूरा जीवन
लगा दिया और उनके हर कदम पर पत्नी सावित्री बाई फुले ने साथ दिया. ज्योतिबा के लिए शिक्षा के मायने समाज में जाग्रति
लाना, अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना, सवाल खड़े करना और अपने साथ साथ अपने समाज को भी
शोषण से मुक्त करना था. महिलाओं को शिक्षित करने के लिए उन्होंने पहले सावित्री
बाई फुले को पढाया और उसके बाद दलित लडकियों के लिए 1848 में पहला स्कूल पुणे में खोला
जो की भारत के तीन हजार साल के इतिहास में ऐसा पहला स्कूल था जो दलितों के लिए था. सावित्रीबाई
फुले इस स्कूल की प्रधानाध्यापिका बनीं.
1848 से लेकर 1852 के दौरान
सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले ने बिना किसी आर्थिक मदद और सहारे के 18
विद्यालय खोले, 1855 में रात्रिकालीन
विद्यालय शुरू किया.स्कूल के अलावा पुस्तकालय की भी शुरुआत की. उस समय प्रचलित
भाषा संस्कृत-अरबी कठिन और उच्च वर्ग की भाषा थी वही मराठी आम लोगों की भाषा थी, फुले
ने इसे बढ़ाने का प्रयास किया और शिक्षा मराठी में भी दी जाने लगी. ब्रिटिश सरकार के शिक्षा विभाग ने शिक्षा के क्षेत्र में ज्योतिबा
फुले और सावित्रीबाई फुले के योगदान को
देखते हुए 16 नवम्बर 1852 को उन्हें सम्मानित किया गया. फुले ने नयी शिक्षा
नीति में योगदान दिया और वुड्स योजना बनायीं. इस योजना के जाँच के लिए आई हंटर
कमीशन के सामने भी ज्योतिबा ने निम्न वर्ग में
शिक्षा को बढ़ावा देने को लेकर मांग रखी और इसका फायदा भी हुआ, कमीशन ने प्राथमिक
शिक्षा और धर्मनिरपेक्ष शिक्षा पद्धति को बढ़ावा देने की बात की.
ज्योतिबा और सावित्रीबाई
फुले ने
बाल-विधवा, बाल-हत्या, विधवा विवाह पर भी काम
किया. उन्होंने 1853 में ‘बाल-हत्या
प्रतिबंधक-गृह’
की स्थापना की, जहाँ
विधवाएँ अपने बच्चों को जन्म दे सकती थी और यदि वो उन्हें अपने साथ रखने में
असमर्थ हैं तो बच्चों को इस गृह में रख कर जा सकती थीं. ज्योतिबा ने 1873 को सत्यशोधक समाज की स्थापना की. यह पहली ऐसी
संस्था थी जिसे दलित समुदाय के व्यक्ति ने शुरू की. सत्यशोधक समाज द्वारा पहला विधवा
पुनर्विवाह 25 दिसम्बर 1873 को संपन्न किया
गया था.
ज्योतिबा को 1876 में
अंग्रेज सरकार ने पुणे नगर पालिका का सदस्य बनाया. उन्होंने उस दोरान दलित बस्ती
में पानी पहुँचाने का काम किया, वित्तीय लेन देन का हिसाब रखा. फुले ने जुन्नार के
किसानों को जमीदार के अत्याचार से मुक्त कराने को लेकर मिल कर आंदोलन किया.जिससे
सरकार को एग्रीकल्चर एक्ट पास करना पड़ा. दलित और वंचित समुदाय के लिए किये गए काम
को देखते हुए ज्योतिबा को 19 मई 1888 को सम्मानित किया गया और उन्हें “महात्मा” की
पदवी दी गयी. इसके 2 माह बाद जुलाई में उनके शरीर के दायें अंग को लकवा मार गया. तब
उन्होंने बाएँ हाथ से लिखना सीखा और अपनी अंतिम किताब “सार्वजनिक सत्यधर्म” को
पूरा किया.धीरे धीरे उनकी सेहत गिरने लगी और 28 नवंबर 1890 के दिन उन्होंने अंतिम
सांस लिया.
ज्योतिबा ने जीवन भर लेखन
का भी बहुत काम किया. लेखन के माध्यम से वंचित जनता को उनके शोषण के कारणों के
बारे में समझाया. उन्होंने दीन बंधु और दीन मित्र
समाचार पत्र निकाले. इनकी सबसे चर्चित कृति “गुलामगिरी” है जिसमें लिंग और जाति के
आधार पर महिला और दलितों के साथ हो रहे शोषण पर फोकस किया गया है. वही तृतीय रत्न
नाटक में उन तरीकों पर प्रकाश डाला गया है जिनसे उनका शोषण होता है. इसके अलावा
शिवाजी का पोवाडा, किसान का कोड़ा, सतसार, ब्रह्मण की चतुराई आदि उनकी प्रसिद्ध किताब
है. सार्वजनिक सत्यधर्म किताब उनकी मोत के बाद 1891 प्रकाशित हुआ.
यह देश के लिए शर्म की बात है कि
आज इक्कीसवीं सदी के दोर में भी दलितों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव और हिंसा लगातार
बढ़ रहे है. अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन ह्यूमन राइट्स
वॉच और एमनेस्टी इंटरनेशनल की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार दलितों और आदिवासियों के
खिलाफ़ जातीय हिंसा, भ्रष्टाचार और जातिगत भेदभाव बढ़ा है, सरकारी
स्तर पर मानवाधिकारों का बड़े पैमाने पर उल्लंघन हुआ है और कई राज्यों में
सांप्रदायिक हिंसा में वृद्धि हुई है. आज भी अनेक जगहों पर दलित दूल्हा घोड़ी पर
बारात नहीं निकल सकता, दलितों को मंदिर में प्रवेश नहीं दिया जाता, गाव के कुए से
पानी नहीं भर सकता, होटलों में उनके लिए अलग से बर्तन होते है जिसे वो खुद धोते
है, दलित बच्चों के साथ स्कूल और मध्यान्ह भोजन के दोरान भेदभाव होता है.
ज्योतिबा फुले की वजह से ही ये शोषित वर्ग कुछ हद
तक शिक्षित हो सके हैं और आरक्षण के कारण रोजगार प्राप्त कर आगे भी बढ़ रहे है,
दलितों के हित में अनेक कानून भी बनाये गए है लेकिन इन सब के बावजूद सामाजिक और
संस्कृतिक भेद लगातार जारी है, आज भी उन वर्गों का एक बड़ा
तबका शिक्षा से वंचित है और असम्मानजनक जीवन जीने को मजबूर हैं. जिस तरह से ज्योतिबा
फुले और सावित्री बाई फुले ने सामाजिक आंदोलन चलाये थे, वर्तमान समय में भी जगह
जगह उस तरह के आन्दोलनों की जरुरत है.
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