अमेरिकी चुनाव और ट्रम्प परिधटना के निहितार्थ
स्वदेश कुमार सिन्हा
7 नवम्बर 2016 में होने जा रहे अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव आज दुनिया भर के अखबारो ,टी0वी0 चैनलो में चर्चाओें में है और चैनलो के टी.आर.पी. बढ़ा रहे हैं । विभिन्न अखबारो
में ’’डोनाल्ड ट्रम्प’’ के नस्लवादी बयानों ’’बर्नी सैण्डर्स’’ की खोखली आशाओें और ’’हिलेरी’’ की ’’व्यवहारिक दलीले’’ के बीच होने वाली अन्तहीन बहसों के कारण यह चुनाव दुनियां भर में आकर्षण का
केन्द्र बना हुआ है।
यद्यपि अमेरिकी राजनीति प्रायः विचारधारा विहीन मानी जाती है, तथाकथित उदार और अनुदार राजनीति में आज कोई बड़ा फर्क नही रह गया है। विदेशनीति
और अर्थनीति में प्रायः अमेरिकी ’’सत्ता प्रतिष्ठान’’ में आम सहमति रहती है। ’’गृह नीति’’ के कुछ मुद्दो को छोड़ दिया जाये तो
डेमोक्रेट तथा रिपब्लिकन में प्रायः मतभेदो के मुद्दे न्यूनतम ही रहते हैं।
राष्ट्रपति कोई भी चुना जाये , परन्तु इस बार लगता है कि इन चुनाव में अमेरिका के
राजनीतिक पटल पर उन विचारधारा को सामने ला दिया है जो अभी तक सतह के नीचे ही रहती
थी। इन चुनावों में प्रत्याशी के तौर पर डेमोक्रेटिव पक्ष से हिलेरी क्लिटंन और
रिपब्लिकन पार्टी के ट्रम्स का आना लगभग तय हो गया है। रिपब्लिकन पार्टी अनुदार
अरबपति पूंजीपति उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रम्प मुस्लिम अप्रवासियों से अमेरिका की
नागरिक सुरक्षा और सांस्कृतिक अस्मिता पर खतरा बता कर उनपर अमेरिका में रोक लगाने
की मांग कर रहे हैं। वे तथाकथित ’’अमेरिकी गौरव’’ की पुर्नस्थापना की बात कर रहे हैं। इन चुनावों में
ट्रम्प के ’नस्लवाद’ ’मुस्लिम विरोध’ शरणार्थियों के खिलाफ नस्लीय व धार्मिक द्वेष से लेकर राष्ट्र गौरव की
पुर्नस्थापना के नारो को एक बड़े श्वेत अमेरिकी मध्यवर्ग तथा कामगारो का जबरजस्त
समर्थन मिल रहा है तथा वे आज अमेरिका में राष्ट्रपति पद के सबसे प्रबल दावेदार
माने जा रहे हैं।
ट्रम्प परिघटना की आर्थिक - सामाजिक पृष्ठभूमि
आज विश्वभर में अगर अनुदार धार्मिक कट्टरता तथा फाॅसीवादी विचारो की हवा चल
रही है तो कही न कही इसके लिए अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान कम जिम्मेदार नही है। आज
फ्रांस में ’नेशनल पार्टी फ्रंट’ और उसकी नेता ’मारीन लेपेन’ नीदरलैण्ड के गीर्ट बिल्डर्स, बेल्जियम के ब्लैम्स ब्लाक , आस्ट्रिया की फ्रीडम पार्टी, स्वीडन के स्वीडन डेमोक्रेट , डेनमार्क की डेनिस पार्टी इसके अलावा पोलेण्ड हंगरी आदि में भी इसी तरह की
पार्टियां और राजनेताओ की लोकप्रियता बढ़ रही है। नब्बे के दशक में सोवियत संघ तथा
पूर्वी यूरोप के देशो में समाजवादी सत्ताओ का पतन तथा सोवियत संघ के विघटन के बाद
तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने बड़े दम्भ के साथ शीतयुद्ध जीत लेने
का दावा किया तथा अमेरिका सारे विश्व में ’’एक धु्रवीय महाशक्ति’’ के रूप में उभरा तथा ’’इतिहास का अंत’’ और ’’पूंजीवाद की अन्तिम विजय’’ की घोषणा की जाने लगी। परन्तु यह स्थिति बहुत दिन
तक न चल सकी। शीघ्र ही अमेरिका अपने मित्र राष्ट्रो के साथ खाड़ी युद्धो में उलझ
गया। दो खाड़ी युद्ध तथा 9/11/2001 की घटना के बाद अफगानिस्तान तथा इराक में सैन्य कार्यवाहियों ने अमेरिका की
आर्थिक रूप से कमर तोड़ दी। इन युद्धो के परिणाम स्वरूप समूचे एशिया, अफ्रीका तथा यूरोप में ’’अलकायदा’’ ’’तालिबान’’ ’’बोकोहरम’’ जैसे ढ़ेरो अतिवादी संगठनो का जन्म हुआ। प्रारम्भ में
अमेरिका ने ही सोवियत संघ के खिलाफ इन्हे आर्थिक तथा सैनिक सहायता देकर खड़ा किया
परन्तु आज यह संगठन खुद अमेरिका तथा सम्पूर्ण विश्व के लिए भारी खतरा बन गये हैं।
सीरिया, लीबिया और इराक में सक्रिय (आई0एस0) इस्लामिक स्टेट नामक आतंकवादी ,कट्टरवादी संगठन की गतिविधियों ने
सारे यूरोप ,अमेरिका ,अफ्रीका ,एशिया तक को हिला दिया है। अमेरिका तथा उसके सहयोगी गठबंधन के देश रूस, ब्रिटेन ,फ्रांस आदि बड़े पैमाने पर मानवरहित ड्रोन विमानो से आई.एस. को समाप्त करने के
लिए उसके क्षेत्र पर भारी बमबारी कर रहे हैं। जिसने सारी दुनियां में भयानक
अस्थिरता पैदा कर दी है। इन युद्धरत देशो से भारी पैमाने पर शरणार्थी यूरोपीय देशो
तथा अमेरिका में आ रहे हैं तथा यहाँ पर
भारी सामाजिक, आर्थिक असंतुलन पैदा कर रहे हैं । अगर आज अमेरिका तथा इन देशो में बड़े पैमाने
पर शरणार्थी आ रहे हैं तो इसके लिए कही न
कही उसकी युद्ध उन्मादी तथा विश्व वर्चस्व की नीति ही जिम्मेदार है।
अभी हाल में ब्रिटेन की ’’चिलकाॅट रिपोर्ट’’ में यह स्वीकर किया गया है
कि खाड़ी युद्ध जिसमें अमेरिका के साथ ब्रिटेन भी शामिल था। एक गलत फैसला था तथा
गलत खुफिया सूचनाओें के आधार पर लड़ा गया। जिसमें करीब सात से आठ लाख लोग मारे गये
तथा इस सारे क्षेत्र में कट्टरवादी ताकतो को बढ़ावा मिला। जो आज सारे विश्व के लिए
समस्या बन गयी है। अमेरिका का आर्थिक ढ़ाचा उच्च श्रेणी की युद्ध सामग्री नाभिकीय
तथा मिसाइल टेक्नालाजी के निर्माण तथा विश्व भर में उसके निर्यात पर निर्भर है। यह
अमेरिका के हित में है कि दुनियां भर में छोटे -बड़े युद्ध तथा गृह युद्ध हमेशा
चलते रहे जिससे सैन्य हथियारो की होड़ बनी रहे तथा उनकी मांग लगातार जारी रहे। आज
इस व्यापार में अनेक यूरोपीय देश इग्लैण्ड, फ्रान्स ,जर्मनी के अलावा ,जापान और चीन भी शामिल हो
गये हैं तथा इस क्षेत्र में भी अमेरिकी
वर्चस्व टूटता नजर आ रहा है। सैनिक ताकत के बल पर दुनियां पर उसका वर्चस्व जरूर है
परन्तु आज अमेरिका विश्व का सबसे कर्जदार मुल्क भी बन गया है। रूस,चीन,भारत ,मैक्सिको ,ब्राजील भी बड़ी अर्थव्यवस्थाओ के रूप में उभर रहे हैं। अफ्रीका ,एशिया तथा लैटिन अमेरिकी देशो की साम्राज्यवादी लूट में अमेरिका के साथ इनकी
भी समान भागीदारी है। अमेरिका जैसे महाबली देश को ईरान, क्यूबा ,उत्तरी कोरिया जैसे अनेक छोटे देशो से भी अनेक मुद्दो पर शर्मिन्दगी उठानी पड़
रही है।
अमेरिका में बढ़ता आर्थिक संकट और नस्लवाद ,फांसीवाद का उभार
इन्ही सब कारणो से अमेरिका में निरंतर आर्थिक और सामाजिक संकठ बढ़ रहा है।
जल्दी -जल्दी आने वाली मंदियाॅ उसके आर्थिक तंत्र को संकठ ग्रस्त कर रही हैं ।
वास्तव में फांसीवाद तथा दक्षिणपंथ का उभार घनीभूत होते आर्थिक संकठो के ही
अभिव्यक्ति होते हैं। अगर कोई यह कहे कि आज 1930 जैसा आर्थिक संकट मौजूद नही है , इसलिए फांसीवाद नही आ सकता तो वह यांत्रिकता का शिकार है। आज यदि अमेरिकी पूंजीपति
वर्ग को आकस्मिक तौर पर भयानक संकठ का सामना नही करना पड़ रहा है पर 2015 की आखिरी तिमाही में आर्थिक वृद्धिदर मात्र 0.7 ही रह गयी थी। इस संकठ से
उबरने के लिए वे ऐसे किसी भी शासक को चुन सकते हैं जो उन्ही की बिरादरी का हो और
नग्न तौर पर पूंजीपरस्त नीतियों को लागू कर सके।
सन् 2008 में अमेरिका के ’’सबप्राइम’’ संकट की वजह से लाखो अमेरिकी बेरोजगार हुए। इस महामंदी के कारण जनता का एक बड़ा
तबका गरीबी तथा बेरोजगारी से ग्रस्त हुआ। इनका समर्थन ट्रम्प को मिल रहा है। उनके
कई जुमले भी लोगो में फांसीवादी उन्माद पैदा कर रहे हैं। चाहे वह चीन से अमेरिकी
कम्पनियों को वापस लाने से पैदा होने वाले रोजगार की बात हो ( जो महज एक शगूफा)
है। जिन देशो से अमेरिका व्यापार घाटा है उनसे आयात माल पर कर लगाकर पैसा वसूलने
की बात हो या मैक्सिको या अमेरिका के बीच एक दरवाजे वाली दीवार खड़े करने की बात हो
या मुसलमानो को अमेरिका में आने से रोकने और जो मौजूद हैं उनके पंजीकृत करने की बात हो। ट्रम्प के ये मुद्दे
गरीब आबादी के एक बड़े हिस्से में एक उन्मादपूर्ण आशा पैदा कर रहे हैं। यदि यह कहा
जाये कि निम्न तथा निम्न मध्यवर्ग को उनका एक ’’नायक’’ मिल गया है तो गलत न होगा। ट्रम्प ने पैक्स अमेरिका
को याद करते हुए अमेरिका को पुनः महान बनाने की कसम को अपने प्रचार का मुख्य
मुद्दा बनाया है। आज अमेरिका का बढ़ता आर्थिक संकठ नस्लवाद ,फांसीवाद को भयानक रूप से बढ़ा रहा है। अमेरिका तथा पश्चिमी दुनियां में
आधुनिकता के आने के साथ ही वहां पर ’’सामुदायिक हिंसा’’ करीब-करीब समाप्त हो गयी है। वहां गुजरात 2002 अथवा बोस्नियाॅ ,रूआण्डा जैसी सामूहिक
नरसंहार की घटनाये नही होती। 9/11/2001 के बाद भी वहां मुसलमानो के ,खिलाफ कोई बड़ी हिंसा की घटना नही हुयी थी परन्तु आज भी अमेरिका में नस्लभेद
ब्यापक तौर पर जारी है। जेलो में नब्बे प्रतिशत कैदी अश्वेत हैं । अश्वेतो की यह
आम शिकायत है कि हर क्षेत्र में उनके साथ ब्यापक भेद भाव होता है। पिछले पांच सालो में वहाँ नस्लीय हिंसा में करीब 16 फीसदी का इजाफा हुआ। पिछले साल 250 से ज्यादा अश्वेत नस्लीय हिंसा में मारे गये। इसके
अलावा एक वर्ष के अन्दर सौ से ज्यादा ’’हेट ग्रुप’’ भी बन गये। शीघ्र ही यह आंकड़ा एक हजार तक होने की
आशंका है। इसी वर्ष जुलाई माह में ’’टेक्सास ’’ के ’’डलास’’ में पुलिस द्वारा गोली चला कर एक अश्वेत की हत्या
के बाद वहां व्यापक नस्लीय हिंसा भड़कने से
वहां पांच से ज्यादा पुलिस कर्मी भी मारे गये ।इन चुनाव में खतरनाक बात यह है कि
इस बार के राष्ट्रपति चुनाव नस्लीय हिंसा के साये में होंगें । अमेरिका के दक्षिणी
भागो में अभी भी ब्यापक सामाजिक पिछड़ापन है जहाँ से ट्रम्प को ब्यापक समर्थन मिल
रहा है। ट्रम्प के नस्लीय बयानो से अमेरिका में अल्पसंख्यको के खिलाफ नफरत तथा
घृणा बढ़ रही है। जो भविष्य में व्यापक सामुदायिक हिंसा का भी कारण बन सकती है।
फिलहाल अमेरिका में जमीनी स्तर से कोई बड़ा फांसीवादी संगठन सक्रिय नही है। यद्यपि ’’ओथ कीपर्स’’ जेसे संगठन जो सेना पुलिस और नौकरशाही के बीच काम कर रहे हैं और इनके द्वारा
चलाये जा रहे पैट्रियेटिक मूवमेण्ट में आम जनता का बहुत छोटा हिस्सा ही सक्रिय है।
ट्रम्प जैसे नेता और ओथ कीपर्स जैसे संगठनो में आज भले उस तरह का सम्पर्क न हो
परन्तु भविष्य में यह दोनो धारायें आपस में मिल भी सकती है। ’’डोनाल्ड ट्रम्प ’’ चुनाव जीते या न जीते अमेरिका में दक्षिणी पंथी उभार का खतरा लगातार बना
रहेगा।
आज अमेरिका की जमीनी वास्तविकता यह है कि ’हिलेरी क्लिटंण्न’’ तथा डोनाल्ड ट्रम्प की
राजनीति में बड़ा अन्तर नही रह गया है। हिलेरी क्लिण्टन के बारे में अनेक नारीवादी
संगठन यह कह रहे हैं कि अगर वे राष्ट्रपति चुनी गयी तो अमेरिकी इतिहास में पहली
महिला राष्ट्रपति होंगी। सच्चाई यह है कि सिनेटर के रूप में अपने कार्यकाल में उन्होने
सबसे ज्यादा विरोध उन विधेयको का किया जो महिलाओ के संबंध में आर्थिक तथा सामाजिक
सुधारो के पक्ष में थे। उनकी ’’व्यवहारिक नीतियां ’’ क्या हैं? उन पर भी गौर करने की जरूरत है। अमेरिका में सरकार का जनसुविधाओ में निवेश कम
करना जन आन्दोलनो का दमन करना गन लाबी को समर्थन देना ,इजराईल के साथ खूनी गठजोड़ बनाना ,सीरिया ,इराक, अफगानिस्तान से लेकर ,यूक्रेन ,अफ्रीका तक में अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के खूनी खेल को समर्थन देना भी
उनके व्यवहारिक कार्य तथा नीतियां हैं। इस ब्यवहारिकता के मूल में है पूंजीपति
वर्ग के मुनाफे की दर को बरकरार रखना जो विश्व भर में घनीभूत हो रहे आर्थिक संकट
के कारणा सिकुड़ती जा रही है।
वास्तव में ’’डोनाल्ड ट्रम्प’’ की फाॅसीवादी राजनीति और ’’हिलेरी क्लिंण्टन’’ की व्यवहारिक राजनीति दोनो
ही आज किसी दुनियां की जनता के लिए संकट की अभिव्यक्ति है।
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