अब त्यौहार मनाने के लिए रेगुलेशन बनाने की जरूरत है
एल. एस. हरदेनिया
गणेश उत्सव और
दुर्गा माता उत्सव के दौरान जो कुछ विषम परिस्थितियां पैदा हो जाती हैं उनके बारे
में विचार करना आवश्यक है। जबसे हम आज़ाद हुए हैं सामाजिक सुधारों के लिए पहल करना
लगभग बंद हो गया है।
यदि इतिहास पर
नज़र डालें तो यह तथ्य स्पष्ट रूप से उभरकर आएगा कि ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान
हमारे देश में सामाजिक स्तर पर अनेक महत्वपूर्ण पहलें की गईं थीं-जैसे एक समय था
जब हिन्दू समाज में विधवा विवाह वर्जित था। विधवा होने के बाद उस नारी को सिर्फ
सफेद कपड़े पहनना अनिवार्य कर दिया गया था। प्रायः उसके बाल काट दिए जाते थे और
पुरूषों से उसका मिलना पूरी तरह वर्जित कर दिया जाता था। किसी भी पवित्र कार्य के
अवसर पर उसकी उपस्थिति वर्जित थी। जैसे यदि विवाह हो रहा है तो उसे शादी के मंडप
के नीचे नहीं बैठने दिया जाता था। इसी तरह उसे अन्य धार्मिक गतिविधियों में शामिल
नहीं होने दिया जाता था। धीरे-धीरे इस प्रवृत्ति के विरूद्ध आवाज़ उठाई गई और समाज
में ऐसा वातावरण बनाया गया कि विधवाओं को सम्मान से देखा जाने लगा। इसी तरह बाल
विवाह के विरूद्ध भी वातावरण बनाया गया।
एक समय था जब हिन्दू
समाज में यह प्रथा थी कि पति की मृत्यु के बाद पत्नी को उसी चिता में लेटाकर उसका
भी अंतिम संस्कार, प्रायः उसकी
इच्छा के विरूद्ध, कर दिया जाता था।
इसे सती प्रथा का नाम दिया गया था। अन्य लोगों के अलावा बंगाल के राजा राममोहन राय
ने इन सब कुप्रथाओं के विरूद्ध वातावरण बनाया था और उनके विचार के कारण अंग्रेजी
राज में ही सती प्रथा को प्रतिबंधित कर दिया गया था।
आज़ादी के बाद
जवाहरलाल नेहरू ने डॉ. अम्बेडकर और अन्य प्रगतिशील नेताओं के सहयोग से हिन्दू
कोडबिल बनाया था जिसमें महिलाओं को बराबर का अधिकार दिया गया था। वैसे इस पहल का
उस समय विरोध किया गया था और विरोध करने वालों में अनेक हिन्दू संगठन (आरएसएस
सहित) शामिल थे। स्वामी करपात्री और अन्य धार्मिक नेताओं के नेतृत्व में संसद का
भी घेराव किया गया था और नेहरू और अम्बेडकर को भद्दी-भद्दी गालियां दी गईं थीं।
संभवतः समाज में परिवर्तन करने का यह अंतिम प्रयास था। इसके बाद कोई भी प्रयास बड़े
पैमाने पर नहीं किया गया। इसके विपरीत लोगों की भावनाओं के सामने देश के नेताओं ने
लगभग समर्पण करना प्रारंभ कर दिया।
वर्तमान में गणेश
उत्सव और मां दुर्गा उत्सव बड़े पैमाने पर मनाए जाते हैं। शायद अनेक लोगों को मालूम
ही नहीं होगा कि गणेश उत्सव की शुरूआत स्वतंत्रता आंदोलन के महान नेता लोकमान्य
बाल गंगाधर तिलक ने की थी। परंतु तिलक ने उस रूप की कल्पना नहीं की होगी जो आज
हमने गणेश उत्सव को दे दी है।
यह मांग करना
पूरी तरह अनुचित होगी कि गणेश उत्सव और मां दुर्गा उत्सव पर प्रतिबंध लगाया जाए
परंतु उसे व्यवस्थित अवश्य किया जा सकता है। इस समय जिस ढंग से ये दोनों त्यौहार
सार्वजनिक रूप से मनाए जाते हैं उनसे आम आदमियों को अनेक प्रकार की कठिनाईयों का
सामना करना पड़ता है। इन कठिनाईयों को कैसे दूर किया जाए इस पर विचार करना आवश्यक
है। आजकल सरकार अनेक रेगुलेटरी कमीशन बनाती है। जैसे विद्युत के क्षेत्र में
रेगुलेटरी कमीशन है। रियल स्टेट के क्षेत्र में भी रेगुलेटरी कमीशन बनाने की
तैयारी है। इसी तरह त्यौहारों को मनाने के लिए भी रेगुलेशन क्यों न बनाए जाएं। जब
मैं भोपाल में आया था उस समय गिने-चुने दुर्गा उत्सव के पंडाल बनाए जाते थे पर आज
उनकी संख्या हज़ारों में हो गई है। इन्हें व्यवस्थित करने के लिए कुछ सुझावों पर
विचार करना आवश्यक है। जैसे देखा जाता है कि कुछ ही मीटरों की दूरी पर गणेश और
दुर्गा माता की झांकियां लगा दी जाती हैं। झांकियों के साथ लाउडस्पीकर भी लगा दिए
जाते हैं और रात के दो-दो बजे तक इन लाउडस्पीकरों से तेज आवाज में गाने बजाए जाते
हैं।
अनेक मामलों में
देखा गया है कि इन पंडालों से ट्रेफिक भी बुरी तरह से प्रभावित होता है। कुछ
मामलों में ये पंडाल अस्पतालों के पास या अस्पतालों के परिसर में ही स्थापित कर
दिए जाते हैं जिससे अस्पतालों में इलाज करवा रहे गंभीर रोगियों को काफी यातना
भुगतनी पड़ती है। फिर जबरदस्त दिक्कतें तो उस समय सामने आती हैं जब गणेश जी या मां
दुर्गा की मूर्तियों का विसर्जन किया जाता है। लगभग दो दिनों तक पूरे आवागमन की
व्यवस्था चरमरा जाती है। आप भले ही बीमार हैं, अस्पताल जा रहें हैं, तो भी आप अस्पताल तक नहीं पहुंच पाएंगे। इस बात की पूरी
संभावना रहती है कि यदि आप ट्रेन पकड़ने जा रहे हैं तो शायद आप स्टेशन नहीं पहुंच
पाएंगे। एयरपोर्ट जा रहे हैं तो भी इस बात का भय रहेगा कि शायद आप अपनी निर्धारित
हवाई यात्रा न कर पाएं।
अभी क्या
व्यवस्था है इसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। परंतु कुछ नियम अवश्य बनाए
जाने चाहिए। इस तरह के नियम कानून दक्षिण भारत के कुछ शहरों में हैं जैसे यदि आपको
गणेश जी या मां दुर्गा की मूर्ति की स्थापना करना है तो आपको यातायात पुलिस से
अनापत्ति प्रमाण पत्र लेना पड़ता है। इसके साथ ही प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से भी
आपको अनापत्ति प्रमाण पत्र लेना होगा। बिजली के लिए संबंधित अधिकारियों से भी
अनापत्ति प्रमाण पत्र लेना चाहिए। इसके साथ ही मीटर लगाना चाहिए और बिजली की
व्यवस्था इस ढंग से होनी चाहिए कि किसी तरह की दुर्घटना न हो। इसी तरह का पुख्ता
इंतजाम विसर्जन के समय भी होना चाहिए। जैसे झांकियों को विसर्जन के लिए ले जाते
समय कम से कम आधी सड़क अवश्य रूप से खाली रखी जाए, जिससे यातायात नियंत्रण रहे और लोगों को अपने
गंतव्य स्थान पर पहुंचने में किसी भी प्रकार की असुविधा न हो। स्कूलों के बच्चों
को ले जाने वाली बसों का आवागमन प्रभावित न हो। फिर यह भी सुनिश्चित किया जाए कि
मूर्तियों के विसर्जन से तालाबों में कम से कम हानि हो। इसी तरह के नियम ताज़ियों
के लिए भी अनिवार्य किए जाएं। इसके अतिरिक्त इस बात पर भी चिंता आवश्यक है कि इन
उत्सवों में कितने धन का व्यय होता है।
आवश्यकता इस बात की है कि इन सुधारों के
लिए राजनैतिक दलों, विधायकों, सांसदों और
धार्मिक नेताओं को भी पहल करनी चाहिए। परंतु आमतौर पर देखा गया है कि आजकल सामाजिक
जीवन में रहने वाले लोग ऐसी बातें और ऐसे सुझाव देने का साहस नहीं दिखाते हैं
क्योंकि उन्हें लगता है कि कहीं आमजन उनसे नाराज़ न हो जाएं। इसलिए अब नेता भीड़ का
नेतृत्व नहीं करता है वरन भीड़ के नेतृत्व में अपनी गतिविधि करता है। जहां तक आम
आदमियों का सवाल है बहुसंख्यक लोग यह महसूस करते हैं कि ये त्यौहार जिस ढंग से
मनाए जाते हैं उससे भारी असुविधा होती है परंतु उसके विरूद्ध सामूहिक आवाज़ उठाने
का साहस कम ही लोग करते हैं।
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