जुनैद मेरा बेटा था
‘जुनैद मेरा बेटा था‘जुनैद मेरा बेटा था’ इस शीर्षक से
मानवाधिकारों के प्रति प्रतिबद्ध पूर्व आईएएस अधिकारी हर्षमंदर ने एक अत्यधिक
मार्मिक लेख लिखा है, जो ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के एक जुलाई के
संस्करण में प्रकाशित हुआ है। वरिष्ठ साथी एल.एस. हरदेनिया द्वारा किया गया इसका हिन्दी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है -
जुनैद खान मेरा
बेटा है। मैं उसे जानता नहीं हूं। जब वह जिंदा था तब भी मेरी उससे कोई पहचान नहीं
थी। परंतु जिस ढंग से उसकी मृत्यु हुई और जिस ढंग से वह मारा गया मुझे ऐसा लगा कि
यह मेरे पुत्र की मौत थी। मुझे नहीं मालूम कि उसके सपने क्या थे। परंतु मुझे बताया
गया कि वह कुरान का एक शिक्षक और अध्येता बनना चाहता था और शायद एक दिन इमाम बनने
की भी उसकी इच्छा थी। उसके इन गुणों को देखते हुए उसे हरियाणा के एक मदरसे में
पढ़ने के लिए भेज दिया गया। वह बहुत ही प्रतिभाशाली विद्यार्थी था। उसने पूरे कुरान
के 80,000 शब्दों को कंठस्थ
कर लिया था। उसकी सफलता के मद्देनज़र उसे कुछ ही दिनों में हाफिज घोषित किया जाना
था। अरबी में हाफिज उसे कहते हैं जो कुरान को कंठस्थ कर लेता है और उसके साथ ही
साथ उसे कुरान के एक-एक शब्द का रक्षक भी माना जाता है।
जुनैद की उम्र 15
साल थी। उसे अपनी पढ़ाई में इतनी रूचि और लगन थी कि वह साल में एक बार ही अपने घर
आता था और वह भी रमज़ान में। इसी रमज़ान में उसने लगातार अपने गांव के निवासियों के
समक्ष कंठस्थ कुरान का पाठ किया। अपनी अकाल मौत के ठीक एक दिन पहले उसने कुरान का
पाठ पूरा किया था। गांव वालों ने उसकी इस असाधारण प्रतिभा के सम्मान में उसे काफी
पैसे दिए थे। गांव वालों के अतिरिक्त उसके पिता ने भी उसे एक अच्छी खासी रकम दी।
अब उसके पास डेढ़ हज़ार रूपए थे। इन रूपयों को लेकर वह अपने भाई के साथ दिल्ली गया, इस इरादे से कि वह
नए कपड़े और जानमाज़ खरीद कर लाएगा। उस दिन वो ऐसी टोपी पहने हुए था जिसे आम तौर पर
नमाज़ के दौरान मुसलमान पहनते हैं। शायद यदि उस दिन वह यह टोपी नहीं पहने होता तो
उसकी हत्या नहीं होती।
मैं अपने कुछ
दोस्तों के साथ जुनैद के गांव गया। मेरी इच्छा थी कि मैं उसके गांव जाऊं और उसके
परिवार के साथ मिलकर शोक मनाऊं। मैं परिवार से मिला और उनके दुःखदर्द बांटने की
कोशिश की। मुझे मालूम था कि मेरे इन शब्दों से परिवार के ऊपर आया दुःख का पहाड़
हल्का नहीं होगा। परंतु मैंने सोचा कि मुझे अपना दुःख प्रकट करना चाहिए। मुझे नहीं
मालूम था कि मेरे इन शब्दों का कितना प्रभाव होगा। परंतु शब्दों के अलावा दुःख
प्रकट करने का कोई और तरीका है भी नहीं।
सिर्फ दो महीने
पहले हम इसी तरह की एक यात्रा पर गए थे। इस यात्रा का उद्देश्य पहलू खान के परिवार
से मिलना था। पहलू खान की भी हत्या एक भीड़ ने की थी। उसी तरह जैसे जुनैद की हत्या
की गई थी। मैं सोचता हूं कि आखिर मुझे ऐसी कितनी यात्राएं करनी पड़ेंगी। मैं सोचता
हूं कि वह दिन कब आएगा जब इस तरह की हत्याएं रूक जाएंगी। जब तक ऐसी हत्याएं रूकती
नहीं हैं और जब भी ऐसी घटनाएं होंगी तो उन लोगों से मिलकर तो दुःख बांटना ही पड़ेगा
जिनके परिवार का कोई सदस्य इस तरह की बर्बर हिंसा का शिकार होगा। मैंने कहा ‘‘हम आपके आक्रोश का
सम्मान करते हैं, हम आपके दुःख का सम्मान करते हैं। हम जानते हैं कि हम आपके दर्द को कम
नहीं कर पाएंगे,
परंतु हम आपको यह
महसूस करवाना चाहते हैं कि इस त्रासदी की घड़ी में आप अकेले नहीं हैं हम भी आपके
साथ हैं।’’
जुनैद के पिता
जलालुद्दीन जिनकी आयु लगभग 50 वर्ष की होगी हम उनसे मिले और हमें यह स्पष्ट महसूस हुआ कि वे अभी तक यह
नहीं समझ पाए हैं कि उनके पुत्र के साथ ऐसा क्यों हुआ? वे चुप थे परंतु
उनकी चुप्पी एक दुःखभरी कहानी कह रही थी। उनके छोटे से घर के सामने भीड़ लगी रहती
थी। जलालुद्दीन ने जीवन में कभी ऐसी भीड़ नहीं देखी थी। मैंने देखा कि एक कोने में
एक पुलिसवाला बैठा हुआ है जो उनके अन्य पुत्रों से घटना के संबंध में विस्तृत
जानकारी एकत्रित कर रहा था। परंतु वह जानकारी सुन अवश्य रहा था परंतु वह उसे अपनी
नोटबुक में लिख नहीं रहा था। उसके बीच गांव का एक अधिकारी आता है और जलालुद्दीन से
कहता है कि वह अपना घर ठीकठाक कर लें, साफ कर लें क्योंकि एक वरिष्ठ राजनीतिज्ञ जो
भूतपूर्व मुख्यमंत्री हैं थोड़ी देर में उनसे मिलने आ रहे हैं।
जलालुद्दीन ने इतना
ही बोला ‘‘मेरे लड़के आंतकित
हैं’’। मुझे उम्मीद है
कि मेरा बड़ा लड़का जिसका अस्पताल में इलाज चल रहा है स्वस्थ हो जाएगा। उसके दो
बच्चे हैं। मेरे साथ कुछ महिलाएं भी थीं वे घर के भीतर चली गईं और जुनैद की मां से
मिलीं, जो लगातार आंसू बहा
रही थीं। मार्क्सवादी नेत्री सुहासिनी अली भी जुनैद की मां के साथ थीं। जुनैद की
मां कहती हैं ‘‘मेरा बेटा बहुत
भोला-भाला और सीधा था। उसे मुस्लिम टोपी पहनने के खतरों का अंदाज़ नहीं था।’’ मेरे साथ जॉन दयाल
भी थे वे भी सायरा बैगम के कमरे में चले गए और उनसे कहा कि मेरी पत्नी ने आपके लिए
एक प्रार्थना भेजी है। हम सब मिलकर उस प्रार्थना को दोहराएंगे। हम घर के बाहर
जुनैद के एक और भाई हाशिम से बात कर रहे थे। उसकी दाढ़ी थी और वह भी मुस्लिम टोपी
पहने हुए था। उसको भी छुरा घोंपा गया था। उसने दहशतभरी उस शाम का विवरण हमें दिया।
वैसे यह कहानी सभी को मालूम है। ईद के लिए आवश्यक खरीदी करने के बाद तीनों भाई सदर
बाज़ार स्टेशन से एक ट्रेन में बैठ गए। ट्रेन में बैठने के लिए सीटें भी मिल गईं।
ओखला स्टेशन आने पर एक भारी भीड़ ने बोगी में प्रवेश किया। जुनैद ने एक वृद्ध
यात्री के लिए अपनी सीट खाली कर दी। इसी बीच पंद्रह लोगों के एक समूह ने हम बाकी
लोगों से भी सीट खाली करने को कहा। जब हम लोगों ने सीट खाली करने से मना कर दिया
तो हमें तमाचे मारे जाने लगे। उसके बाद हमें पीटना प्रारंभ कर दिया। हमारी टोपियों
को फेंक दिया गया। हमारी दाढ़ियों को नोचा गया। तरह-तरह की गालियां दी जाने लगीं, हमारे धर्म के बारे
में अपमानित शब्दों का प्रयोग किया गया, हमें पाकिस्तानी बोला गया। गोमांस खाने वाले खत्ना
मुसलमान कहा गया।
स्थिति को बिगड़ते
देख हममें से किसी ने गांव के लोगों को सूचित कर दिया कि वे वल्लभगढ़ स्टेशन पहुंचे
और हमारी सहायता करें। वल्लभगढ़ स्टेशन पर हम सबको उतरना था परंतु उन लोगों ने हमें
नहीं उतरने दिया और हमें लगातार पीटना जारी रखा और जो लोग हमारी सहायता के लिए आए
थे उन्हें भी बोगी में घसीट लिया गया। वल्लभगढ़ से असावटी स्टेशन आने तक वे लगातार
हमें पीटते रहे। उनमें से कुछ लोगों ने छुरे निकाल कर हम तीनों भाईयों को मारे। हम
लोग सहायता के लिए चिल्लाते रहे पर किसी ने भी हमारी मदद नहीं की। इस बीच कुछ
लोगों ने अपने कैमरे निकाल लिए और फोटो लेते रहे। बोगी में चारों तरफ खून बह गया।
सभी लोग हत्यारी भीड़ की तरफ देखते रहे। उनमें वह वृद्ध भी शामिल था जिसके लिए जुनैद
ने अपनी सीट खाली की थी। असावटी स्टेशन आने पर हम तीनों को ट्रेन से बाहर फेंक
दिया गया। ऐसा लगता है कि हम पर हमला करने वाले कुछ हत्यारे भी उसी स्टेशन पर उतर
गए थे। ट्रेन एक मिनट रूकी और आगे बढ़ गई। हम लोग पूरी तरह से असहाय थे और सहायता
के लिए चिल्ला रहे थे। परंतु स्टेशन के किसी भी अधिकारी व कर्मचारी ने हमारी खबर
नहीं ली और न तो कोई सामान बेचने वाले और ना ही पुलिस अधिकारियों ने। जुनैद के
शरीर से लगातार खून बह रहा था और उसकी अपने भाई की गोद में सिर रखे हुए मौत हो गई।
अन्य दो भाई भी गंभीर रूप से घायल थे। किसी ढंग से स्टेशन के मुख्य दरवाजे तक सभी
पहुंचे। हम में से एक भाई ने पलवल स्थित एक अस्पताल से संपर्क किया। 45 मिनट बाद एक
एंबुलेंस आई और हमें ले गई। अस्पताल पहुंचने पर जुनैद को मृत घोषित कर दिया गया।
मैं और मेरे सहयोगी
जुनैद के गांव से रवाना हुए और असावटी स्टेशन गए। हमने रेलवे के अधिकारियों और
कर्मचारियों से बात की। आसपास के दुकानदारों से भी बात की। सबने एक स्वर से यह कहा
कि ‘‘हमने ने कुछ भी
नहीं देखा, हमने तो कुछ नहीं
देखा।’’
जुनैद मेरा बेटा
था। वह उन सब लोगों का बेटा भी था जो उस डिब्बे में सफर कर रहे थे। वह उनका भी
बेटा था जो रेलवे के कर्मचारी, अधिकारी थे। वह वहां उपस्थित अन्य यात्रियों का भी बेटा था परंतु उन सबने
उसे मरने दिया।
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