‘सरकारी नकाब़ में संघी घुसपैठ’’ - मध्यप्रदेश जन-अभियान परिषद
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योगेश दीवान
कहने को गैर-सरकारी संगठन (एन.जी.ओ.) पर असल में मध्यप्रदेश सरकार के एक संगठन के रुप में काम कर रही जन-अभियान परिषद ने पिछले दिनों प्रदेश की राजधानी में स्वयंसेवी क्षेत्र का एक कुंभ आयोजित किया, जिसे संवाद कहा गया। जिसमें बिना किसी वाद-विवाद एवं संवाद के पहले से तय एन.जी.ओ. नीति बनाने की घोषणा की गई। इस एन.जी.ओ. कुंभ में न सिर्फ मुख्यमंत्री, मंत्री बल्कि देश के भाजपा प्रमुख और संघी नेतृत्व को भी न्योता गया था। संघ के भगवा विचार से ओत-प्रोत इस आयोजन में 35 हजार एन.जी.ओ. की उपस्थिति का दावा किया गया। जिन्हें पिछले पांच-सात सालों में जन-अभियान परिषद ने ग्राम प्रस्फुटन समिति जैसे नामों से खड़ा किया था। पर उन ढेर सारे एन.जी.ओ. या स्वयंसेवी संस्थाओं को इस आयोजन से दूर रखा गया जो दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, महिला के सवालों विकास परक तरीकों और मानवाधिकार की सोच के साथ समाज में काम करते हैं। ये सरकार की साम्राज्यवादी, सांप्रदायिक और गैर-बराबरी की सोच का विरोध करते हैं, और प्रायः फंड के मामले में सरकार के रहमोकरम पर भी निर्भर नहीं हैं। यानी सरकार या संघ गिरोह के पालतू नहीं हैं। इसलिये ऐसे 46 हजार एन.जी.ओ. को यहां फर्जी बताने की सोची-समझी कोषिश भी की गई है। कितना आष्चर्य है कि सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री और प्रवक्ता मध्यप्रदेश में 87 हजार एन.जी.ओ. की संख्या गिनाते हैं, पर जन-अभियान परिषद का प्रेस नोट 35 हजार पर आकर रुक जाता है और बाकी को फर्जीबाड़े में डाल देता है।
मूलतः संघी गिरोह का एक अभिक्रम जन-अभियान परिषद पिछले सालों में प्रदेश में भाजपा की राजनैतिक ताकत को बढ़ाने का एक प्रमुख हथियार बना हुआ है। पिछला विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव इसके गवाह हैं। मध्यपद्रेश सरकार के योजना और सांख्यिकी विभाग के तहत् काम करनेवाले इस कथित् एन.जी.ओ. के पास सरकार की विभिन्न योजनाओं का ढेरों पैसा डायवर्ड होता हैं। जिसे ये भगवा विचार का तड़का लगाकर अपने नेटवर्क के माध्यम से गांव-गांव पहुंचाने का काम करता है और इसे ग्राम विकास कहा जाता है। पर असल में ग्राम विकास की आड़ में हिन्दु कट्टरपंथी विचारों को फैलाने, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों को जबरन सनातनी हिन्दु बनाने, उनके रीति-रिवाजों पर अपने कर्मकांडों को थोपने या हशिये की इस आबादी को अपना बोटबैंक बनाने का बड़ा ही चतुर और चालाकी भरा उपक्रम ये संगठन करता है। करोड़ों रुपये खर्च करके किया जानेवाला नदी उत्सव, जिसमें नदी की पवित्रता, धार्मिकता या पुण्यता पर तो बात होती है पर विस्थापन, पर्यावरण कम होती जलधारा या नदी प्रदुषण के सवाल अनछुए रह जाते हैं।
जन-अभियान परिषद नर्मदा पथ (नर्मदा परिक्रमा) राम पथ या गीता पथ बनाने की बात तो करती है पर उस मार्ग पर बसे गांवों के मरते कुपोषित बच्चे, मलेरिया से मौतें, पलायन, षिक्षा के सवाल या दलित, महिला, आदिवासी अत्याचार इनके एजेंडे से नदारद रहते हैं। पानी बचाने के वाटरशेडी तरीकों को शिवगंगा नाम देकर आदिवासियों को शिव की जटा से निकलने वाली गंगा की कहानी से जोड़ने की गहरी साजिश हो या घनघोर आदिवासी क्षेत्रों में नर्मदा शबरी कुंभ का आयोजन आखिर कौन सा सामाजिक ग्रामीण विकास है? वहीं चुनाव के समय कमल-रोटी का घर-घर वितरण और 1857 से जोड़कर इसकी गलत धार्मिक व्याख्या का बड़ा आयोजन आखिर जन-अभियान परिषद का जनता के हक में कौन सा एजेंडा है? ये अलग बात है कि कमल और रोटी दोनों प्लास्टिक के थे लाखों की तादाद में जिनको बनाने का किसी कंपनी को ठेका दिया गया होगा। इस पूरे अभियान को चुनावी साल के कारण मिशन 2008 कहा गया। हांलाकि इसे 1857 की 150 वीं वर्षगांठ मनाने से भी जोड़ा गया।
ऐसे ही धनघोर सांप्रदायिक पुरुषवादी कन्यादान योजना हो या लाड़ली लक्ष्मी, सूर्य नमस्कार हो या जलाभिषेक, गोकुल गांव हो या अयोध्यानगरी अथवा अभी ताजा-ताजा बेटी बचाओ अभियान हो, जिसमें पोस्टर में गीता, सावित्री, मीरा, सीता जैसी हिन्दू बेटियां तो हैं पर मुस्लिम, ईसाई, सिक्ख, बौद्ध धर्म की बेटियां नदारद है। हो सकता है शायद चार बीबीयों के संघी तर्क को मानने के कारण मुस्लिम धर्म की बेटियों को बचाने की जरुरत सरकार ने न समझी हो पर अन्य धर्म की बेटियों का क्या? सरकार की ऐसी सब योजनाओं को जन-जन तक पहुंचाने में जन-अभियान परिषद की प्रमुख भूमिका है और रही है।
जन-अभियान परिषद ने अपनी शुरुआत नदी उत्सव से की। जिसके लिये बाद में ‘‘नर्मदा समग्र’’ नामक एक एन.जी.ओ. खड़ा किया गया। देखते ही देखते आज नर्मदा समग्र भोपाल में अपना स्वयं का भवन और ढेरों प्रोजेक्ट के साथ भगवा सुनहरे सपने बुनने में लगा हुआ है। इसकी योजनाओं के टोटकों में जहां एक ओर हरियाली चुनरी यानी नर्मदा के दोनों किनारों को हरा-भरा करना, प्रदुषित पानी को तांबे के सिक्के डालकर शुद्ध करने का दावा, नर्मदा के श्रद्धालुओं के लिये दोनों किनारों पर नर्मदा परिक्रमा मार्ग, और नर्मदा के घाटों में रहनेवाले आदिवासियों को जबरन हिन्दु धर्म में दीक्षित करने के लिये मंदिरों, मूर्तियों का निर्माण।इसी के तहत् आदिवासियों के बड़ा देव, बाघदेव या बूढ़ादेव को शंकर का अवतार बताकर नर्मदा समग्र तथा जन-अभियान परिषद जगह-जगह मूर्ति लगा रही है।
वास्तव में जन-अभियान परिषद जैसे सरकारी एन.जी.ओ. को बनाने की रुपरेखा और निर्णय कांग्रेस सरकार के दौर में ही हो गया था पर इसका क्रियान्वयन कांग्रेस नहीं कर पायी। दिग्विजय सिंह ने ऐसा कोई ढांचा बनाने के लिये प्रशासन अकादमी में स्वयंसेवी क्षेत्र के दो बार बडे मेले किये। जिनमें प्रदेश के और कुछ देश के भी एन.जी.ओ., स्वंयसेवी संगठन, जन-संगठन शामिल हुए। उनके विचारमंथन और लंबी बहसों से ही निकला एक प्रदेश स्तरीय ढांचा या नेटवर्क। इस मेले में शामिल कई सारे कथित् क्रांतिकारियों ने सत्ता के गलियारे में बैठकर ‘‘इसलिये राह संघर्ष की’’ और ‘‘ले मशालें चल पड़े हैं’’ जैसे जनगीतों को गाकर सत्ता के जनवादी रुप को निखारने अथवा उभारने की कोशिश भी की। वहीं सत्ता के द्वारा इस आयोजन में सरकार की योजनाओं की रद्दी भरकर एक-एक सूटकेस भी बांटे गये थे। पर सत्ता की इस आवभगत और मुस्कुराहट ने यहां असल सवाल को उभरने ही नहीं दिया। ये सवाल उस समय भी था और आज भी है कि सरकार को विकास योजनाओं के लिये प्राप्त देशी -विदेशी धन में एन.जी.ओ. को सक्रिय भागीदार बनाना। और किसी भी तरह के विरोध का प्रोजेक्ट देकर मुंह बंद करना इसलिये आज न सिर्फ जन-अभियान परिषद जैसे सरकारी बल्कि कई गैर-सरकारी एन.जी.ओ. भी विभिन्न सरकारी योजनाओं से जुड़कर फल-फूल रहे हैं।
खैर! कांग्रेस की ऐसी बनी-बनाई कोशिश को फाईल की धूल झड़ाकर साकार किया भाजपा सरकार और उसके भी एक प्रमुख पदाधिकारी स्वयंसेवक अनिल माधव दबे ने, और नाम दिया हम जन-अभियान परिषद। जन-अभियान परिषद जहां निजी, विदेशी, और कार्पोरेट धन से संचालित सरकारी योजनाओं को लागू करने में प्रमुख भूमिका निभा रही है वहीं उससे भी ज्यादा सरकारी संरक्षण में संघ के एजेंडे को पूरी निष्ठा, वफादारी और ईमानदारी से लोगों के बीच पहुंचाने का काम भी कर रही है। कहावत है कि जब ‘‘सैया भये कोतवाल’’ तो फिर डर काहे का’’ इस कहावत की युक्ति को चरितार्थ कर रही हैं जन-अभियान परिषद। जो सरकारी सुख-सुविधा और भरपूर दंभ के साथ अच्छे, कर्मठ और लोगों के साथ उनके हक में खड़े एन.जी.ओ., जनसंगठन, संस्थाओं को फर्जी बताने का दावा कर रही है। उन पर नियंत्रण के लिये एन.जी.ओ. पालिसी का खोखला डाफ्ट तैयार करके सरकार से इसे लागू करवाने का दवाब बना रही है। जल, जंगल, जमीन, विस्थापन, मानवाधिकार, महिला, दलित, आदिवासी, हिंसा, शोषण और भूमंडलीकृत आर्थिक नीतियों के खिलाफ लामबंद होती जनता की आवाज को धार्मिक, कर्मकांड और कट्टरता की ओर मोड़कर नये खतरे पैदा कर रही है।
हांलाकि विकास की सतही सोच, परंपरा (खेती, पानी, जंगल संरक्षण) की अतार्किक कट्टरता और दूकानरुपी एन.जी.ओ. को चलाने की प्राथमिकताओं ने आज कई सारे एन.जी.ओ. को सिर्फ सत्ता के दलाल बनाकर रख दिया है। इसलिये जन-अभियान परिषद हो सरकार हो या कंपनी अथवा संघ गिरोह के अन्य ढांचे ऐसे संस्थानों को कोई परहेज नहीं है इनसे जुड़ने में। इनकी तो पहली प्राथमिक और प्रमुख शर्त सिर्फ पैसा है जिसका कोई रंग, विचार या जमीर नही होता। इसलिये ऐसे एन.जी.ओ. आज की नवउदारवादी, भूमंडलीकृत दुनिया में विभिन्न मुद्दों पर काम का दावा करनेवाले डिपार्टमेंटल स्टोर, माल या सुपर बाजार बन गये हैं। जहां बाजार की नीतियों के तहत् सब बिकता और खरीदा जाता है। इसलिये अन्ना हो या गांधी या गोलवलकर अथवा परंपरा हो या संस्कृति, जैविक खेती हो या परंपरागत जंगल पानी संरक्षण, स्वास्थय हो या शिक्षा , भोजन का अधिकार हो या सूचना का कानून सब इनके लिये मात्र एक प्रोजेक्ट है। जो पैसा, पुरस्कार, पद अथवा कथित् प्रतिष्ठा दिला सकता है। और वर्तमान में सत्ता का केन्द्र संघ है तो फिर जन-अभियान परिषद या नर्मदा समग्र से क्या, क्यों और कैसा परहेज? वैसे भी-मध्यप्रदेश में संघी सोच के एन.जी.ओ. की हमेशा भरमार रही है।
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