सांप्रदायिक दंगे-2011
दंगा-मुक्त भारत अब भी एक ऐसा स्वप्न बना हुआ है जिसका निकट भविष्य में पूरा होना असंभव जान पड़ता है। हर वर्ष की तरह, वर्ष 2011 में भी देश के विभिन्न हिस्सों में सांप्रदायिक हिंसा हुई। बीते वर्ष के शुरूआती महीनों में देश के किसी हिस्से से बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा की खबर नहीं आई और ऐसा लगा कि शायद यह वर्ष तुलनात्मक दृष्टि से शांत रहेगा। परंतु साल के मध्य और अंत में अनेक सांप्रदायिक फ़साद हुए जिन्होंने हमारे देश को शर्मसार किया। इस संदर्भ में एक सकारात्मक पहलू यह है कि सन् 2011 में, मुंबई (1992-93) व गुजरात (2002) जैसी भयावह हिंसा नहीं हुई। पंरतु इसके पीछे एक कारण है। शिवसेना, भाजपा और उसके जैसे अन्य संगठन या पार्टियां चाह कर भी बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा नहीं फैला सकती क्योंकि उसके लिए जिस भावनात्मक ज्वार की जरूरत होती है, उसे पैदा करना बहुत आसान नहीं है। यह तभी हो सकता है जब बाबरी मस्जिद को ढ़हाए जाने जैसी कोई बड़ी घटना हो।
सन् 2011 में सांप्रदायिक दंगों का खाता खुला महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के उमरखेडी में, जहां 13 जनवरी को कुछ हिन्दू लड़को द्वारा एक मुसलमान लड़की को छेड़े जाने के बाद दो गुटों के बीच पथराव शुरू हो गया। बड़े पैमाने पर हिंसा भड़कने की आशंका के चलते दुकानें बंद हो गईं और लोग अपने जूते-चप्पल तक छोड़ कर बाजार से भागने लगे। परंतु स्थानीय पुलिस अधिकारी श्री देवकाटे ने जल्दी ही स्थिति पर नियंत्रण पा कर लिया। जिला मुख्यालय से पुलिस बल बुलवाकर उन्होंने हालात को बिगड़ने नहीं दिया।
इससे साफ है कि यदि पुलिस निष्पक्षता से काम करे तो हिंसा रोकी जा सकती है। यह भी साफ है कि छेड़छाड़ जैसी मामूली घटनाएं, कब-जब केवल कानून और व्यवस्था की समस्या न रहकर सांप्रदायिक स्वरूप अख्तियार कर लेती हैं। जनता, हिन्दू और मुसलमानों में विभाजित हो जाती है। किसी को क्रिकेट बाल लगने या कोई छोटी-मोटी सड़क दुर्घटना जैसी साधारण घटनाए तक समाज को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करने के लिए पर्याप्त होती हैं । यह सब नतीजा है निरंतर चलने वाले सांप्रदायिक दुष्प्रचार का और हमारी शिक्षा व्यवस्था का जो विद्यार्थियों के दिलो-दिमाग में फिरकापरस्ती का जहर भर देती है।
इसी तरह की एक अन्य घटना में, एक ईसाई पादरी व मुसलमान रिक्शा चालक के बीच हुए झगड़े ने हिन्दू-मुस्लिम विवाद का रूप ले लिया। कुछ सांप्रदायिक तत्व एक मुस्लिम मोहल्ले में घुस गए व वहां जम कर पत्थरबाजी की। कई मकानों व दुकानों को आग के हवाले कर दिया गया। अनेक वाहन भी क्षतिग्रस्त हुए। हमलावरों ने क्षेत्र में रह रहे आदिवासियों को भी नहीं बख्शा । दुर्भाग्यवश , पुलिस ने अत्यंत पक्षपातपूर्ण व्यवहार किया और केवल मुसलमानों व आदिवासियों पर लाठीचार्ज किया। संपत्ति का नुकसान भी मुसलमानों का ही ज्यादा हुआ।
गुजरात का बड़ौदा, सांप्रदायिक दृष्टि से संवेदनशील शहर है। वहां 16 फरवरी को कुछ शरारती तत्वों ने ईद के उपलक्ष्य में सड़क पर लगाए गए स्वागत द्वार को गिराकर उसमें आग लगा दी। मछुआरा समुदाय के चमीस कहार नामक व्यक्ति को गिरफ्तार किया गया। कहारों और मुसलमानों के बीच बड़ौदा में अक्सर झड़पें होती रहतीं हैं क्योंकि दोनों समुदायों के कुछ सदस्य अवैध शराब के धंधे में संलग्न हैं। शिव कहार के नेतृत्व में कहारों व मुसलमानों के बीच बड़ौदा में 1982 में भयावह हिंसा हुई थी।
इस साल मार्च के महीने की दो तारीख को मुंबई के सेवरी में पैगंबर साहब के जन्मदिन के सिलसिले में लगाए गए झंडे और पोस्टर कुछ सांप्रदायिक तत्वों ने फाड़ दिए। दो दिन बाद, 5 मार्च को कुछ लोगों ने एक बच्चे को धक्का देकर गिरा दिया। इससे हिंसा भड़क उठी। दोनों ओर से पथराव होने लगा। कुछ लोगों ने मुस्लिम महिलाओं के साथ छेड़छाड़ भी की। पुलिस का व्यवहार एक बार फिर पक्षपातपूर्ण रहा। शरारती तत्वों के विरूद्ध कुछ नहीं किया गया। उल्टे मुसलमानों पर लाठीचार्ज हुआ और कई मुस्लिम लड़कों को हिरासत में ले लिया गया। पुलिस कमिष्नर ने भी यह स्वीकार किया कि एक सामान्य झगड़े को सांप्रदायिक रंग दे दिया गया था और उनके प्रयासों से दोनों पक्षों में समझौता हुआ।
अगली घटना महाराष्ट्र के एक अन्य संवेदनशील शहर औरंगाबाद में हुई। 20 मार्च को कुछ मुसलमान लड़के और लड़कियां एस.बी. कालेज से एक परीक्षा देकर लौट रहे थे। मुस्लिम लड़कियां बुरका पहने हुए थीं परंतु इसके बावजूद उन पर कुछ सांप्रदायिक तत्वों ने रंग डालना शुरू कर दिया। जब उन्होंने इसका विरोध किया तो उन पर चाकुओं और गुप्ती से हमला कर दिया गया। चार विद्यार्थी गंभीर रूप से घायल हुए।
पुलिस ने हमलावरों को गिरफ्तार कर लिया। इनमें वे लड़के भी शामिल थे जो घटनास्थल से भाग गए थे। डा. अंबेडकर मराठवाड़ा विष्वविद्यालय के कुलपति प्रो. पांडे ने एस.बी. कॉलेज के प्रशासन के विरूद्ध कड़ी कार्यवाही की क्योंकि कॉलेज ने सांप्रदायिक हमलावरों को कोई सजा नहीं दी थी।
मुंबई की धारावी एशिया की सबसे बड़ी मलिन बस्ती है। सांप्रदायिक दृष्टि से अत्यन्त संवेदनशील इस इलाके में सन् 1992-93 के दंगों के दौरान भारी हिंसा हुई थी। इसके बाद वहा मोहल्ला शांति समितियां बनाई गईं जिनका अच्छा असर हुआ। सन् 1992-93 के बाद पहली बार इस वर्ष यहां सांप्रदायिक हिंसा हुई जिसमें चार लोग घायल हुए। ऐसा लगता है कि षांति समितियों की सक्रियता को बढ़ाये जाने की जरूरत है।
दुर्भाग्यवश , पिछले कुछ सालों में पूरा महाराष्ट्र राज्य ही सांप्रदायिक दृष्टि से अत्यन्त संवेदशील बन गया है और हर वर्ष इस राज्य में बड़ी संख्या में सांप्रदायिक दंगे होते हैं। सन् 2001 से 2011 के दशक में महाराष्ट्र में देश के अन्य सभी राज्यों से ज्यादा, 1192 सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं हुई जिनमें 172 लोग मारे गए। उत्तर प्रदेष में इसी अवधि में 1112 दंगे हुए जिनमें 384 मासूमों ने अपनी जाने गर्वाइं।
मेरठ में 25 अप्रैल को एक गिलास ठंडा पानी सांप्रदायिक हिंसा का सबब बन गया। मेरठ के नजदीक काज़ीपुर गांव के दो रहवासी गांव की छोटी मस्जिद में पहॅुचे और पीने के लिए पानी मांगा। उनसे कहा गया कि वे मस्जिद प्रांगण में लगे नल से पानी पी सकते हैं । परंतु उन्होंने ठंडे पानी की मांग की। जब उनसे यह कहा गया कि ठंडा पानी मस्जिद में उपलब्ध नहीं है तो वे मस्जिद के इमाम और वहां मौजूद अन्य लोगों पर टूट पड़े। उन्होंने मस्जिद में पढ़ रहे कुछ बच्चों की भी पिटाई लगा दी। इमाम और उनके साथियों की रपट लिखने से पुलिस ने साफ इंकार कर दिया। इसके बाद मुसलमानों की एक भीड़ ने थाने को घेर लिया। पथराव हुआ जिसमें सिटी मजिस्ट्रेट और कुछ पुलिस अधिकारी घायल हुए।
इसके बाद भीड़ ने दुकानों और मकानों को निषाना बनाना शुरू किया। कई पुलिस चैकियों को आग के हवाले कर दिया गया। पुलिस ने सावधानी बतौर शहर के सभी सरकारी और निजी स्कूलों को बंद करवा दिया। और यह सब हुआ केवल एक गिलास ठंडे पानी की खातिर।
मेरठ का सांप्रदायिक हिंसा का लंबा इतिहास है। सन् 1987 में वहां हुई जबरदस्त हिंसा के बाद पी.ए.सी. जवानों ने 54 मुस्लिम युवकों को उनके घरो से निकाल कर गोली मार दी थी। उनके शवों को हिण्डन नहर में फेंक दिया गया था।अगली घटना भी उत्तरप्रदेश में ही मुरादाबाद में हुई। कुछ पुलिसवाले मुल्जि़म की तलाश में एक मुस्लिम घर में घुसे। मुल्जि़म को वहां न पाकर वे घरवालों से दुव्र्यव्हार करने लगे। उन्होंने नूरजहां नामक 10 साल की बच्ची के हाथ से कुरान छीनकर उसके बिस्तर पर पटक दिया। जब उन्होंने बिस्तर पलटा तब कुरान नीचे गिर गई। इससे मुसलमान नाराज हो गए। इसे कुरान का अपमान बताते हुए मुसलमानों की भारी भीड़ इकट्ठा हो गई और पुलिसवालों के विरूद्ध कार्यवाही की मांग करने लगी।
पुलिस बार-बार भीड़ को तितर-बितर होने के लिए कहती रही और भीड़, पुलिसवालों के खिलाफ कार्यवाही की मांग दोहराती रही। भीड़ ने पुलिस थाने पर भी हमला किया और पुलिसवालों की गाडि़यों को आग लगा दी। पुलिसकर्मियों पर पत्थर भी फेंके गए। जवाब में गुस्साए पुलिसकर्मियों ने भीड़ की जम कर पिटाई की। पुलिस ने गोलियां भी चलाईं जिसमें दो मुसलमान और पेट्रोल पंप पर काम करने वाला एक हिन्दू गंभीर रूप से घायल हो गए। शहर में कफ्र्यू लगाया गया। निकटवर्ती गांवों के रहवासियों ने पुलिस की बर्बर कार्यवाही और गिरफ्तारी के डर से आसपास के जंगलों में शरण ली।
उस्मानिया विष्वविद्यालय की ए. बी. व्ही. पी. शाखा की बदौलत तेलंगाना जैसे क्षेत्रीय आंदोलन का भी साम्प्रदायिकीकरण हो गया है। इसी सांप्रदायिकीकरण का नतीजा था कि आंध्रप्रदेश के आदिलाबाद जिले में 8 जुलाई को छःह मुसलमानों को जिंदा जला दिया गया। यह लोमहर्षक घटना आंध्रप्रदेष व महाराष्ट्र की सीमा पर स्थित एक गांव में हुई। शरारती तत्वों ने जिले के वाटोली गांव में अल्पसंख्यकों के एक घर में आग लगा दी। निकटवर्ती भैनसा नगर का साप्रंदायिक हिंसा का लंबा इतिहास है इसलिए सरकार काफी सावधान थी। वाटोली गांव में मारे गए लोगां में महबूब खान, नोमान, अरसालन, रिजवान व साफिया बेगम के अलावा दो-वर्षीय टूबा महोश भी शामिल थे।
दिनांक 12 जुलाई को आगरा के मनटोला इलाके में साम्प्रदायिक हिंसा भड़क उठी। एक बीमार बकरी को अस्पताल ले जा रहे ट्रक से दूसरे समुदाय के कुछ लोगों को मामूली चोटें आईं। इसके बाद शुरू हुए विवाद ने जल्द ही दोनों समुदायों के सदस्यों के बीच हिंसक झड़पों का रूप ले लिया। पत्थरबाजी शुरू हो गई। दुकानों, मकानों और गाडि़यों में आग लगा दी गई। कुछ लोगों ने गोलियां भी चलाईं। जवाब में पुलिस ने भी गोलीबारी की। डयूटी पर तैनात डीआईजी को गोली लगते लगते बची। लोग अपने घरों की छतों से गोलियां चला रहे थे। भारी संख्या में हथियारबंद पुलिस व पीएसी के जवानों की तैनाती के बाद बड़ी मुष्किल से दंगे पर नियंत्रण पाया जा सका।
अगस्त महीने की 8 तारीख को मुरादाबाद शहर एक बार फिर साम्प्रदायिक हिंसा की चपेट में आ गया। कावडि़यों (गंगाजल ले जा रहे षिवभक्त) के एक जुलूस को एक मुस्लिम मोहल्ले से होकर निकलने की इजाजत नहीं दी गई। कावडि़ये एक मस्जिद के सामने से अपना जुलूस ले जाना चाहते थे। कावडि़यों ने पहले पुलिस से हुज्जत की और उसके बाद उनमें से कुछ ने मस्जिद पर गोलियां दागीं। चूंकि रोज़ा अफ्तार का समय नजदीक आ रहा था इसलिए पुलिस कोई जोखिम उठाना नहीं चाहती थी।
जब मुस्लिम तराबी के लिए अपने घरों से निकले तब कावडि़यों ने उन्हें मस्जिद जाने से रोका। इसके बाद हिंसा भड़क उठी। कावडि़यों ने कई मोटरसाईकिलों और अन्य वाहनों में आग लगा दी और पुलिस की गाडि़यों पर भी गोलियां दागीं। उन्होंने एक मस्जिद पर भी पत्थरबाजी की। आसपास खड़े कुछ ट्रकों को भी आग के हवाले कर दिया गया। एक पुल पर से गुजर रहे लोगों पर पुल के नीचे से गोलियां चलाई गईं। ऐसा लगता है कि यह हिंसा पूर्व नियोजित थी।
अगस्त महीने की 22 तारीख को मध्यप्रदेश के जबलपुर शहर में एक धार्मिक जुलूस को लेकर शुरू हुए विवाद ने दो समुदायों के बीच हिंसक संघर्ष का रूप ले लिया। जमकर पत्थरबाजी हुई जिसके बाद पुलिस ने 6 थाना क्षेत्रों में कफ्र्यू लगाकर स्थिति को नियंत्रित किया। जबलपुर शहर का साम्प्रदायिक हिंसा का लंबा इतिहास है। यही वह शहर था जहां सन् 1961 में स्वतंत्र भारत का पहला साम्प्रदायिक दंगा हुआ था।
इसके तीन दिन बाद, उत्तरप्रदेश के बहराईच में साम्प्रदायिक हिंसा हुई। बहराईच भी साम्प्रदायिक दृष्टि से संवेदनशील शहर है। एक मस्जिद के सामने दो समुदायों के सदस्यों के बीच किसी मुद्दे पर बहसबाजी हुई। उसके बाद दोनों गुटों ने एक-दूसरे पर पत्थर फेंकने शुरू कर दिए। बीच में किसी ने गोलियां भी चलाईं जिससे एक व्यक्ति गंभीर रूप से घायल हो गया। इलाज के लिए लखनऊ ले जाते वक्त रास्ते में उसकी मृत्यु हो गई। हिंसा में कई लोग घायल भी हुए।
इसी दिन महाराष्ट्र के ठाणे जिले के टिटवाला में हिंसा भड़क उठी। उस जिन जन्माष्टमी थी। कुछ हिन्दू असामाजिक तत्वों ने मुस्लिम युवकों की पिटाई लगा दी और मुसलमानों की गाडि़यों और सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाया। वहां हुई हिंसा के फोटो सहित मुसलमानों का एक प्रतिनिधिमंडल महाराष्ट्र के गृहमंत्री श्री आर. आर. पाटिल से मिला। गृहमंत्री को बताया गया कि हमलावर अब भी खुलेआम मुस्लिम बस्तियों में घूम रहे हैं और मुसलमान डर के साये में जीने को मजबूर हैं। प्रतिनिधिमंडल ने पुलिस कार्यवाही पर भी प्रष्नचिन्ह लगाए।
2 सितम्बर को ईद थी। इस दिन महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के नेवासा में साम्प्रदायिक दंगा हुआ। ऐसा आरोप है कि पुलिस का व्यवहार अत्यंत पक्षपातपूर्ण रहा। जो मुसलमान थाने में एफआईआर लिखवाने गए उन्हें ही आईपीसी की धारा 307 का आरोपी बनाकर गिरफ्तार कर लिया गया। मुसलमानों के साथ ऐसा अक्सर होता है और इसलिए वे एफआईआर दर्ज कराने में भी घबराते हैं। कई मुुसलमानों ने नेवासा से भागकर अहमदनगर में शरण ली। इस दंगे में मुसलमानों पर चाकुओं और तलवारों से हमला किया गया और जकी नामक एक व्यक्ति का कार्यालय पूरी तरह से नष्ट कर दिया गया। इसके बाद भी पुलिस ने कोई कार्यवाही नहीं की और उल्टे मुसलमानों को हत्या के प्रयास का आरोपी बना दिया।
इसके अगले दिन 3 सितम्बर को मध्यप्रदेश के उज्जैन में साम्प्रदायिक दंगा हुआ। उज्जैन में खासी मुस्लिम आबादी है। इस हिंसा में दो लोग मारे गए और 16 घायल हुए। ऐसा कहा जा रहा है कि विवाद की शुरूआत शहर के पुराने इलाके दौलतगंज में स्थित एक दुकान में गणेश की मूर्ति की स्थापना को लेकर हुई। यह दुकान एक मस्जिद के बगल में है। यह स्पष्ट नहीं है कि दंगे का कारण केवल वह मूर्ति थी या कुछ और। वैसे गणेश की मूर्ति की स्थापना-भले ही वह मस्जिद के बगल में हो-विवाद का कारण नहीं बननी चाहिए।
सितम्बर माह की 7 तारीख को आंध्रप्रदेश के कुरनूल जिले की अधूनी तहसील में हुई हिंसा में सैकड़ों लोग घायल हुए। इनमें से तीन को गंभीर चोटें आईं। कारण वही पुराना था-मस्जिद के सामने संगीत बजाया जाना। पुलिस को भीड़ को तितर-बितर करने के लिए कई बार लाठी चार्ज करना पड़ा। दोनों ओर से पत्थरबाजी हुई और यह सिलसिला चार घंटे तक चलता रहा। इसके बाद पुलिस ने हवा में गोलियां भी चलाईं। गणेश की प्रतिमाओं को विसर्जन के लिए ले जाया जा रहा था। यह जुलूस एक मस्जिद के सामने रूक गया और वहां काफी समय तक बाजे बजाए गए। इसके बाद हिंसा शुरू हुई। दोनों पक्ष ट्रकों और आटो रिक्षों में पत्थर भरकर लाए थे।
महाराष्ट्र के आदिवासी इलाके नंदूरबार में 8 सितम्बर को गणेश विसर्जन के दौरान हिंसा हुई जिसमें दो लोगों ने अपनी जानें गवाईं और कई घायल हो गए। बताया जाता है कि विवाद एक गैर-कानूनी गणेश मंडप को लेकर शुरू हुआ। मुसलमानों का आरोप है कि स्थानीय थाने के इंस्पेक्टर रमेश पाटिल का रवैया अत्यंत पक्षपातपूर्ण था और उन्होंने मुसलमानों को डराया-धमकाया। यहां भी अपनी संपत्ति को नुकसान पहुंचाए जाने की एफआईआर लिखवाने थाने पहुंचे मुसलमानों को धारा 353 मैं गिरफ्तार कर लिया गया। इस धारा में 326 मुसलमानों को और केवल 12 गैर-मुसलमानों को गिरफ्तार किया गया। इसी तरह, 6 मुसलमानों को धारा 302 और 12 को धारा 307 में गिरफ्तार किया गया। इन धाराओं में एक भी गैर-मुस्लिम की गिरफ्तारी नहीं हुई। नंदूरबार के मुसलमान इतने आतंकित हैं कि उनमें से जो वहां बरसों से रह रहे हैं वे भी अपने घर वापिस जाने के लिए तैयार नहीं हैं।
राजस्थान के भरतपुर जिले के गोपालगढ़ में 14 सितम्बर को सन् 2011 का सबसे बड़ा साम्प्रदायिक दंगा हुआ। हिंसा में 11 लोग मारे गए जिनमें से 9 की मौत मस्जिद के अंदर पुलिस द्वारा किए गए गोलीचालन में हुई। भरतपुर में मुख्यतः मेव मुसलमान बसते हैं। विवाद एक कब्रिस्तान को लेकर था। हिन्दुओं का कहना था कि उनके जानवरों को पानी पिलाने के लिए गांव में स्थित तालाब की भूमि को पंचायत ने गलत तरीके से मुसलमानों के कब्रिस्तान के लिए आवंटित कर दिया था।
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत राज्य में साम्प्रदायिक हिंसा को नियंत्रित करने में पूरी तरह असफल रहे हैं। पिछले साल राजस्थान में सरोदा और मंगल थाना में दो बड़े दंगे हुए थे और दोनों ही जगह पुलिस की भूमिका घोर पक्षपातपूर्ण थी। उदयपुर जिले के सरोदा में जिला मजिस्ट्रेट और पुलिस अधीक्षक की उपस्थिति में मुसलमानों के 30 घर जलाए गए। मैंने श्री गहलोत से व्यक्तिगत रूप से अनुरोध किया कि इन दोनों अधिकारियों को निलंबित किया जाना चाहिए। बड़ी संख्या में मुसलमानों ने उनके कार्यालय के बाहर धरना भी दिया। परंतु उन्होंने कोई कार्यवाही नहीं की। इससे साम्प्रदायिक सोच वाले पुलिस अधिकारियों का मनोबल बढ़ा और अन्य स्थानों पर भी पुलिस अधिकारियों ने खुलेआम साम्प्रदायिक तत्वों का साथ देना शुरू कर दिया।
गोपालगढ़ के दंगे को गहलोत ने शुरू में केवल जमीन का विवाद बताया। परंतु बाद में श्रीमती सोनिया गांधी द्वारा उनसे जवाब-तलब किए जाने के बाद उन्होंने कलेक्टर और एसपी को निलंबित किया। राजस्थान में साम्प्रदायिक स्थिति बहुत खराब है और गहलोत हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। भाजपा, सत्ता में वापिसी के लिए खुलेआम साम्प्रदायिक कार्ड खेल रही है। श्रीमती सोनिया गांधी से मिले राजस्थान के कांग्रेस नेताओं और संासदों के एक प्रतिनिधिमंडल ने भी उनसे शिकायत की कि मस्जिद के भीतर पुलिस का गोलीचालन अनुचित और अकारण था। राजस्थान के मुसलमान श्री गहलोत से बहुत नाराज हैं और बड़ी संख्या में मुसलमान उनके कार्यक्रमों का बहिष्कार कर रहे हैं।
यद्यपि भरतपुर साम्प्रदायिक दृष्टि से संवेदनशील है परंतु गोपालगढ़ का साम्प्रदायिक हिंसा का कोई इतिहास नहीं था। वहां हिन्दू और मुसलमान शातिपूर्वक एक साथ रह रहे थे। वैसे भी, मेव मुसलमान, सांस्कृतिक दृष्टि से आधे हिन्दू हैं। उनमें से कई के हिन्दू नाम हैं और वे हिन्दू त्यौहार भी मनाते हैं। भाजपा हमेशा से यह कहती आई है कि मुसलमान, देश की सामाजिक मुख्यधारा में शामिल होने के लिए तैयार नहीं हैं और इसलिए बहुसंख्यक सम्प्रदाय उनके प्रति पूर्वाग्रहग्रस्त रहता है। यद्यपि प्रजातंत्र में जीने का अधिकार पाने के लिए कोई शर्तें नहीं लगाई जा सकतीं तथापि भरतपुर के मुसलमानों के “हिन्दूकरण“ के बाद भी उनके विरूद्ध क्रूर साम्प्रदायिक हिंसा की गई। इससे भाजपा के दावे का खोखलापन उजागर हो जाता है।
भाजपा शासित उत्तराखण्ड के रूद्रपुर में भी साम्प्रदायिक दंगा हुआ। रूद्रपुर का भी साम्प्रदायिक हिंसा का कोई इतिहस नहीं है। ऐसा लगता है कि वहां जानबूझकर दंगा भड़काया गया। दो प्रयास हुए जिनमें से एक एक सफल हो गया।
पहली घटना में 28 सितम्बर की रात को कुछ लोगों ने कुरान के पन्ने एक कपड़े में बांधे। उस कपड़े को लाल पेंट में इस तरह डुबाकर मानो वह खून से रंगा हो, सती मंदिर में रख दिया। 29 सितम्बर की सुबह जब श्रद्धालु मंदिर पहुंचे तब खून से रंगी हुई कुरान के पन्ने मंदिर में रखे देखकर उनमें तनाव फैल गया। पुलिस ने स्थिति को संभाला। हिन्दुओं को यह समझाया गया कि इस घटना से मुसलमान भी उतने ही नाराज हैं जितने की वे।
दूसरा प्रयास सफल हो गया। गांधी जयंती के दिन कुछ कागजों को, जिनपर अरबी में कुछ लिखा हुआ था, मांस के टुकड़ों के साथ बांधकर उसी मंदिर में फेंक दिया गया। जैसे ही खबर फैली करीब 150 मुसलमान मंदिर के पास इकट्ठा हो गए। धीरे-धीरे यह संख्या लगभग 800 हो गई। भीड़ जल्दी ही हिंसक हो गई और हिंसा में 38 पुलिसकर्मी और अन्य अधिकारी जख्मी हो गए। इसके बाद हिन्दुओं की जवाबी कार्यवाही शुरू हुई जिससे स्थिति नियंत्रण से बाहर हो गई।
पुलिस के अनुसार 30 से अधिक नागरिक घायल हुए और कम से कम 100 वाहनों में आग लगा दी गई। दिल्ली-नैनीताल राष्ट्रीय राजमार्ग पर रूद्रपुर के आसपास सड़क के दोनों ओर जले हुए वाहनों के स्टील के कंकाल बिखरे पड़े थे। लगभग एक सौ दुकानों को लूटकर उनमें आग लगा दी गई। पुलिस ने 37 लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की जिनमें से 24 को गिरफ्तार कर लिया गया। स्थिति को इस हद तक बिगड़ने से रोका जा सकता था यदि प्रषासन 29 सितम्बर को ही कड़ी कार्यवाही करता और दोषियों को सींखचों के पीछे डाल देता। बाद में राज्य सरकार ने रूद्रपुर के जिला मजिस्ट्रेट और क्षेत्र के पुलिस महानिरीक्षक का तबादला कर दिया ।
यह था सन् 2011 में हुए साम्प्रदायिक दंगों का लेखा-जोखा। कहने की आवष्यकता नहीं कि इनमें से अधिकांश दंगे बहुत मामूली विवादों से शुरू हुए। यह साफ है कि छोटे-मोटे मुद्दे भी बड़ी हिंसा का रूप इसलिए ग्रहण कर लेते हैं क्योंकि अनवरत चलने वाले साम्प्रदायिक प्रचार ने हम सबके मन में जहर भर दिया है। दोनों समुदायों के सदस्य एक-दूसरे के प्रति पूर्वाग्रह पाले हुए हैं और उनमें आपसी विष्वास न के बराबर है। इसके अतिरिक्त, पुलिसकर्मी मुसलमानों के विरूद्ध रहते हैं और अक्सर हिंसा भड़काने वालों का साथ देते हैं। साम्प्रदायिक हिंसा भड़कने का एक कारण गरीबी और बेरोजगारी भी है।
जब तक इन मुद्दों पर समुचित ध्यान नहीं दिया जाता तब तक देश को साम्प्रदायिक हिंसा से मुक्त करना संभव नहीं होगा।
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